भाग 3
【मेथी की फंकी】
"ज़ीरू कितने समय हुए न... हमें शिवालिक पार्क में वक़्त व्यतीत किए। मानों एक अब्द गुज़र चला हो।" भावार्थ शिवालिक पार्क कि तरफ़ एक एक निग़ाह देखते हुए कहता है। वह दोनों आज दसवीं बोर्ड का आख़िरी परीक्षा दे कर एक दूजे का हाथ पकड़े घर की ओर सुकून की रफ़्तार से चल रहे थे।
"क्या कहती हो? आज की सांझ पार्क चलें..."
"आज?" व्याख्या सवालिया स्वर में पूछती है।
"हां बाबा आज। क्यों... तुम्हे कोई विशेष काम है?"
"हां बहुत विशेष। प्यारी मां का कहना रहा... बेटा बोर्ड परीक्षा का परिणाम लक्ष्य तय करने और भविष्य उज्ज्वल बनाने में एक अहम भूमिका अदा करता है। तुम आठ के बदले छ घंटे ही सोना मगर इस परीक्षा में काश की गुंजाइश न छोड़ना। अब तुम्हे पता ही है, प्यारी मां की बातें और मेरे प्रति उनकी उम्मीदें सराखों पर, सो मैं पूरे बोर्ड परीक्षा तक जी भर के सो नहीं पाई हूं। आज चूर हो कर सोने का विचार बनाया है।" व्याख्या आखों को मादकता से चमका कर कहती है।
"यार तू भी न... मतलब बात तो ऐसे कर रही मानो, पिछले एक महीने में तूने परीक्षा नहीं पहाड़ तोड़ें हैं।" भाव तनिक खींज कर कहता है।
"ओह मिस्टर टावर, तू न परीक्षा और नींद के मध्य असंतुलन को कभी नहीं समझ सकता। तुझको तो बस पचास में सत्रह और सौ में तैंतीस से मतलब है। तु नहीं समझेगा इन दिनों पढ़ने वालों का दशा...।"
"ओए सुन, ज्यादा इतर मत। मैं यहां कोई फेलियर नहीं बैठा हूं।"
"हां फेलियर ना सही, ठेलियर तो है न। गलती से दो तीन नम्बर इधर उधर हुए तो विकेट गिरते देर कहां...! बिना तेल के मोटरसाइकल कि तरह ठेल डगर कर मंज़िल तक पहुंचता है।" व्याख्या भावार्थ की तीखी फिरकी लेती है।
"हां मैं जानता हूं। मैं तेरी बराबरी नहीं कर सकता, ना ही क्लास और टीचर के नज़र में मैं तेरे और उस आभास कि जगह ले सकता हूं।" भावार्थ हवा में ताक कर कहता है।
"देख भाव, झगड़ा-लड़ाई, मनमुटाव जो भी हो... तेरे मेरे बीच की बात है, और यहीं तक रहे तो बेहतर है। तु बार बार खुद को उस आभास से कम्पेयर ना किया कर। वरना दूंगी दो चार।" व्याख्या भाव को सख्त हिदायत देती है।
"चाहे उपरी मन से या मुझे बूरा ना लगे ये सोच के तु कुछ भी कहे, पर अंदर ही अंदर मानती तो तु भी होगी कि, वह स्मार्ट ऑफ माइंड है।"
"हां तो मैंने कब कहा कि वो स्मार्ट ऑफ माइंड नहीं है। लेकिन तु क्यूं खुद को कम आंकता है? अगर वो स्मार्टी है, तो तु मेरा हार्टी है।" व्याख्या भावार्थ के कांधे पर थप्प से मरती हुई, कहती है।
भाव मौन हो कर चलता जाता है। वह व्याख्या के बात का कोई प्रतिउत्तर नहीं करता है।
"ओए मैं कुछ कह रही हूं..." व्याख्या भावार्थ के कांधे पर जोर दे कर, उसे अपने ओर मुड़ाती हुई, अपनी बात पुनः दोहराती है।
"हां मैं सुन रहा हूं।"
"बता मैंने क्या कहा..."
"यही कि मैं तेरा हार्टी हूं।"
"मैं तेरी क्या हूं..?" व्याख्या ज़रा सा मुस्का कर पूछती है।
"कभी फ़ुरसत में बताऊंगा।" भावार्थ सड़क के दोनों ओर से आते जाते वाहनों को देखते हुए कहता है।
"ऐ भाव, बता ने मैं तेरी क्या हूं..?" व्याख्या विनम्रता से पूछती है।
"अच्छा पहले रोड क्रॉस कर ले फ़िर बताता हूं।" भावार्थ सड़क के दोनों ओर से वाहनों के आवा जाही के रुकते ही व्याख्या संग सड़क पार करता है।
"चल बता अब मैं तेरी क्या हूं..." व्याख्या पुनः सवाल दागती है।
"मैं तेरा हार्टी हूं, और तु मेरी नाटी है।" भाव ठिठक कर हसता है।
"तेरे कहने का मतलब नाटी है..?"
"अरे! नहीं नहीं, मेरे कहने का मतलब नॉटी है।" भावार्थ अपनी हंसी छिपा कर बात बनाता है।
"मां मैं सोने जा रही हूं। जब तक खुद से ना जगुं मुझे मत जगाना।" व्याख्या कपड़े बदल कर कमरे की बत्ती बुझाती है।
"व्याखी बेटा ऐसा नहीं करते। खाना खा के सोना।" रश्मि रसोई में खाना परोसती हुई कहती है।
"नहीं मां, सो कर उठुंगी तो खा लूंगी।" व्याख्या रश्मि को प्रतिउत्तर करती हुई, अल्लहड़ता से बिस्तर पर पसर जाती है।
"हां भाई, तुम्हे तो बस अपनी प्यारी मां की बात माननी है। मुझे तो तुमने हल्के में ले रखा है।" रश्मि दोनों हाथों में परोसी हुई थाली ले कर व्याख्या के कमरे की ओर कदम बढ़ाती है।
"मां पहली बात तुम न ये बात बात पर भाई कहने की आदत छोड़ दो। मुझे तुम्हारी आदत लग गई है। मैं भी भाव को भाई भाई कहने लग जाती हूं, और वो मुझपर गुस्सा करता है। और दूसरी बात ये कि, प्यारी मां की बात छेड़ कर मुझे भटकाने की कोशिश नहीं करो। खाना तो मैं सो कर उठने के बाद ही खाऊंगी।" व्याख्या अपने कमरे में रश्मि कि आहट पाते ही करवट बदल लेती है।
रश्मि पलंग के बाएं ओर रखे छोटे से मेज़ पर दोनों थालियां रख कर व्याख्या के सिरहाने बैठ जाती है।
"मां मैं वाकई सो कर उठने के बाद ही खाऊंगी।" व्याख्या पुनः हुनकती है।
"ठीक है न, जब मन करे तभी खाना। मैं कौन सा तुझे सिफारिश कर रही हूं। हथेलियों पर थाली की भार पड़ रही थी, तो रख दिया तनिक देर के लिए मेज़ पर।"
"वैसे खुशबू जानी पहचानी लग रही है। क्या बनाया है, मां?" व्याख्या एक लम्बी सांस ले कर खुशबू पहचानने की कोशिश करती है।
"आज किसी कि आखिरी परीक्षा थी। मैंने सोचा उसके मन लायक बना दूं कुछ... तो काबुली चने के छोले और जीरा राइस बनाया है।"
"वाह जी वाह, तुसी दिल ख़ुश कर दित्ता।" व्याख्या मेज़ पर से एक थाली उठा लेती है।
"अब आई ज़िराफ पहाड़ के नीचे।" रश्मि एक ग्लास पानी व्याख्या की ओर बढ़ाती हुई, कहती है।
"मां ऊंट आता है, पहाड़ के नीचे। ना कि जिराफ।" व्याख्या एक चम्मच छोला मुंह में डाले कर चटकारे लेती है।
"पर भाव तो कहता है, तु जिराफ है।" रश्मि मुस्काती है।
"मां अब तु भी...."
"मालूम मां... मैं अपने सारे परीक्षा से बहुत संतुष्ट हुं। मैंने अपना बेस्ट दिया है।" व्याख्या बर्तन धुलाने में रश्मि का हाथ बटा रही थी।
"यह जान के बहुत ख़ुशी हुई, कि तुमने अपने सारे इम्तहान बेहतरीन ढंग से दिए हैं। आज सुबह इंद्रा आई थी। बहुत देर तक तुम्हारी ही बात चली। कह रही थी, यदि व्याख्या का मन यूं ही पढ़ने में लगा रहा तो स्नातक के बाद उसे संघ लोक सेवा आयोग की तैयारी कराएंगे।"
"मां मैं हृदय तल से चाहती हूं, तुम्हारे और प्यारी मां के सपने को पूरा करना, और पूरी कोशिश करूंगी कि पूरा करूं।"
"अच्छा बेटा अब तु सो ले। तेरी नींद पूरी नहीं हुई है, तबियत बिगड़ जाएगी।"
"अब क्या मां... सीधा रात को ही सोऊंगी। पांच बजने को है। मेरे सोते एक घंटे भी नहीं होंगे और तेरे दिया बाती का समय हो जाएगा, फ़िर तु उठा देगी मुझे कि, उठ जाओ व्याख्या सांझ की बेला है। इस समय नहीं सोते। घर में लक्ष्मी नहीं आएंगी, और न जाने क्या क्या...." व्याख्या मस्ताने मिजाज़ में रश्मि के किंवदंती पंक्तियों को दोहराती है।
"अच्छा मां मैं प्यारी मां के घर जा रही हूं। आज भाव ने शिवालिक पार्क चलने को कहा है।" व्याख्या सोफे से उठ कर अपने कमरे में जा अपने जुड़े को पोनी में तब्दील करती है।
"जय श्री कृष्णा अंकल!" व्याख्या उद्यान में प्रवेश करती हुई, प्रभात से कहती है।
"जय श्री कृष्णा बेटे! कैसा रहा इम्तहान...?" प्रभात उद्यान के प्रत्येक पौधे में पानी दे रहा था।
"बहुत अच्छा अंकल।"
"बहुत अच्छे। ऐसे ही मन लगा कर पढ़ना। तुम्हे ले कर इंदु के बड़े बड़े सपने हैं, और बेटे ये सपने कुछ वर्षों के नहीं जो अधूरा रह जाने पर उसे कष्ट नहीं होगा। ये सपनों का पकवान उसके हृदय की हांडी में तब से पक रहा है, जब से उसे पता चला कि बहुत जल्द तुम इस धरती का हिस्सा बनने वाली हो।" प्रभात पौधों में से सूखे, पके, मुरझाए पत्तियों को छाटता हुआ कहता है।
"अंकल आप सभी सिर्फ़ मेरी ही बात करते हैं। भाव को लेकर कोई उम्मीद क्यों नहीं जताते...?" व्याख्या घास पर पड़े मुरझाए पत्तियों को उठा कर एक डलिया में डालती जा रही थी।
"बेटा भाव बहुत अच्छा बच्चा है। कुछ कर दिखाने का जज़्बा उसमें भी है, लेकिन वो थोड़ा ढीला पड़ जाता है। उसका दिमाग बटा हुआ है, क्योंकि बढ़ते उम्र के साथ इंदु की तबीयत बिगड़ती जा रही है, जिसकी वजह से ना चाह कर भी अक्सर वो घर के छोटे मोटे काम, इंदु की दवाई और उसकी तबीयत में उलझा रहता है। तुम्हारे और उसके सोचने समझने कि क्षमता में भी अंतर है। वह तथ्यों को जल्दी समझ नहीं पाता। अतः स्वाभाविक है, जिसकी क्षमता अधिक होगी वह ज्यादा उम्मीदों का हकदार होगा।
वैसे मुझे तुम्हारा सवाल अच्छा लगा। मुझे अच्छा लगा कि तुम्हे भाव कि फ़िक्र है।" प्रभात ठिठक कर मुस्काता है।
"अंकल आप ऑफिस से आ कर कितने थक जाते हैं, फ़िर घर बाहर बाज़ार के कितने सारे काम... और फ़िर भी आप अपने उद्यान कि खूब रखवाली करते हैं। आप इस बाग से निगाहबान सा व्यवहार करते हैं। आपको इन बगीचों से कितना स्नेह है...?" व्याख्या एक अग्यार कि भांति पूछती है।
"बेटे मुझे इस बाग से उतना स्नेह है, जितना कि तुम्हारी प्यारी मां से। और इसलिए स्नेह है, क्योंकि उसे इस बाग से बहुत स्नेह है। जब वह सांझ और भोर में इन प्रत्येक पौधों को हवा के एक झोंके मात्र से लहराता देखती है, तो संग संग वह भी लहलहा उठती है, तब उसकी ख़ुशी देख मुझे अलौकिक संतुष्टि का एहसास होता है।" प्रभात के चेहरे की त्वचा तन जाती है। उस तनी त्वचा के उभरते नसों में सुकून व सुख की झलक मालूम पड़ती है।
"आप कितना प्यार करते हैं, प्यारी मां से। आप दोनों के साथ को कभी नज़र ना लगे। वैसे प्यारी मां कर क्या .... ओह! ख़्याल आया, वह जरूर इस वक़्त उपन्यास की दुनिया की हिस्सा हुई बैठी होंगी।" प्रभात और व्याख्या संग संग खिलखिला कर हँसते हैं।
"अच्छा अंकल मैं जा रही हूं, भाव को बुलाने। हमें आज पार्क जाना है, और देर हुए तो जाते ही सांझ ढलने लग जाएगी।" व्याख्या सूखे गले पत्तों से भरे डलिए को बाग के किनारे बने एक ऊंचे फलक पर रख देती है।
व्याख्या इंद्रा के कमरे के बाहर चौखट पर दरवाज़े से ओट लिए चुप चाप खड़ी खड़ी इंद्रा को निहार रही थी। दोलन कुर्सी पर बैठ कर उपन्यास पढ़ने में मग्न इंद्रा पिछले कुछ क्षण से दरवाज़े पर आहट पा कर दाईं ओर मुड़ कर देखती है।
"व्याखी, तुम कब आई बेटा?" इंद्रा आखों से ऐनक उतारती हुई, पूछती है।
"मैं तो कब की आई हूं, प्यारी मां। उद्यान में अंकल का हाथ बटा रही थी।" व्याख्या कमरे में प्रवेश करती है।
"ओह! मेरी बिटिया रानी कब से आई है, और मुझे खबर ही नहीं हुआ। वैसे आपका इम्तहान कैसा रहा?"
"बहुत अच्छा रहा प्यारी मां। ठीक उतना अच्छा जितनी अच्छी आप हो।" व्याख्या कमरे में रखा प्रसाधन मेज़ अपनी ओर खींच कर इंद्रा के ठीक सामने बैठ जाती है।
"ये क्या प्यारी मां..! आपका पूरा शरीर सूज गया है। आंखे और हाथों की तो दशा ही बदल गई है। आपको क्या हुआ है? सच सच कहना आप ठीक तो हो न...!" व्याख्या इंद्रा के शोथ देह को देख घबरा जाती है।
"मैं बिल्कुल ठीक हूं, बेटा। बस थोड़ा डायबिटीज़ हाई हो गया है, जिसके कारण देह शोथ गया। मैं फ़िलहाल सख़्त परहेज़ पर हूं, बहुत जल्द आराम हो जाएगा।"
"जरूर आपने आलू कि टिक्की और सूजी की ख़ीर पर जीभ फिराए होंगे। वरना बेवजह थोड़ी डायबिटीज़ हाई हो जाएगा।"
"हा हा... काफ़ी समय के बाद कल प्रभु ने अपने हाथों से सरसो के मसाले में आलू की रसेदार सब्जी बनाई थी। तो मैंने उसपे थोड़ी चावल खा ली थी। इसलिए...." इंद्रा व्याख्या के मासूमियत भरे फटकार पर ठिठक कर मुस्काती है।
"प्यारी मां! क्या शौक जीवन से बड़ा है...? क्या क्षण भर के आनंद के लिए जीवन के एक बड़े हिस्से को व्यर्थ कर देना मुनासिब है...?" व्याख्या के मुख से निकलते स्वर में भरपूर नमी थी।
"बेटा बहुत परहेज़ करती हूं, और करूं भी क्यों न... बहुत सी जिम्मेदारियां हैं, मुझपर जिन्हे निभाना बाक़ी है। मगर क्या करूं... मन ही है, मचल जाता है।" इंद्रा इन पंक्तियों को कहते समय शायद अपने भावी जीवन के कुछ अनदेखे पलों को तसव्वुर कर रही थी।
"अगर ऐसे ही आपका मन मचलता रहा, फ़िर तो सारे सपने धरे के धरे रह जाएंगे। अगर मुझे एक अच्छी शख्शियत बनते देखना चाहती हो तो अपना स्वास्थ्य बनाए रखो, ताकि जब मैं लक्ष्य प्राप्त कर के आऊं तो आप मेरे माथे पर तिलक लगा सको। मैं झुक कर चरणस्पर्श करूं, और आप मुझे गले से लगा सको।" व्याख्या इंद्रा का हाथ अपने हाथों में लेती हुई कहती है।
"तुम चिंता मत करो। मैं अपना पूरा ख्याल रखूंगी। मुझे तुम्हारी शख्शियत देखनी है, उस पर नाज़ करनी है।" इंद्रा व्याख्या के सर पर दायां हाथ रखती हुई, उसे स्नेह जताती है।
"प्यारी मां, अब आप जो भी खाओगी एक नियम और हिसाब से खाओगी। सिर्फ़ दवाइयों पर निर्भर मत रहो। कुछ घरेलू नुक्से भी शुरू कर दो जिससे डायबिटीज हाई ना हो। वैसे ये बताओ आप मेथी कि फंकी तो प्रयोग में लेती हो न ...?"
"अब तक तो कभी नहीं ली है, लेकिन अब सोच रही हूं कि मेथी कि फंकी बना कर रख लूं।" इंद्रा विचरती हुई कहती है।
"सोच नहीं रही हूं प्यारी मां। मैं जा रही हूं फंकी बना कर रख देती हूं। आप रोज़ाना इसे पानी से खाली पेट एक चम्मच जरूर लेना। उसके आधे एक घंटे बाद ही कुछ खाना।" व्याख्या कमरे से बाहर रसोई कि ओर बढ़ने लगती है।
"अरे! बेटा मैं कर लूंगी। तुम ख़ाहमखा परेशान हो रही हो।" इंद्रा व्याख्या के पीछे पीछे रसोई कि ओर चलने लगती है।
इंद्रा रसोई में उंचे पीढ़े पर बैठी बैठी अनवरत व्याख्या को देखती जाती है। व्याख्या खूब लगन से अबाध गति से निरंतर मेथी को चारो ओर से भूजती है। मेथी की पकती हुई कड़वी कड़वी महक रसोई के चारो ओर फैल कर अपने अंतर्मन से स्नेह लुटाती नम आंखों वाली इंद्रा व इंद्रा के प्रति व्याख्या के सात्विक प्रेम को नज़र लगने से बचाती है।
"मां... मां चाय बनी क्या?" भाव आखें मलते हुए रसोई में प्रवेश करता है।
"ओह! तो यहां मां की तबीयत बिगड़ी पड़ी है, और छोटे साहब के आखों में नींद की सुनहरी लालिमा छाई है। और सोना हो तो सो जाइए। हम बेड टी दे देंगे।" व्याख्या खीज़ कर कहती है।
"तु कब आई? तु तो आज चूर हो कर सोने वाली थी न..! और मुझपर बेवजह क्यों बरस रही है?" आखें मलता, जमुहाई लेता भाव व्याख्या पर एक संग कई सवाल दागता है।
"कब आई, क्यों आई ये सब छोड़। अब रह गया सवाल तुझपर बरसने का तो तु अपनी हरकतें देख... ज़वाब मिलते देर नहीं लगेगा।"
"मां देख ये पागल हो गई है। इसलिए कहता हूं, ज्यादा मत पढ़। देख... कर गया न रिएक्शन। अब तू...." भावार्थ इससे आगे कुछ बोलता कि उससे पहले व्याख्या भुजे हुए मेथी को मिक्सर में डाल कर मिक्सर का बटन बिल्कुल तेज़ कर देती है, जिससे निकलने वाली ध्वनि के आगे भाव कि आवाज़ दब जाती है। वह जब मिक्सर बंद करती है, तो भाव पुनः अपनी बात रखता है। व्याख्या पुनः मिक्सर को चालू कर देती है। ऐसा दो तीन मर्तबा होने पर भाव समझ जाता है, कि व्याख्या ऐसा जानबूझ के कर रही है। वह खींज कर रसोई से बाहर चला जाता है।
"ओह! तुम दोनों के नोक झोंक... किसी सिनेमा से कम नहीं।" इंद्रा हृदय संग मुस्कुरा कर कहती है।
"प्यारी मां आप अपना ख़ास ख़्याल रखना। अब मैं घर जा रही हूं, मां परेशान हो जाएगी।"
"भाव बता रहा था, तुम दोनों को पार्क जाना है...।"
"हां प्यारी मां जाना तो था, लेकिन अब सांझ ढल गई है। हम कल चले जाएंगे।" व्याख्या रसोई से बाहर की ओर निकलती है।
"अब्बे ओ टावर, कल शाम पांच बजे आऊंगी। पार्क चलना।" व्याख्या बरामदे में टहल रहे भाव से कहती है।
"हां ठीक है, और सुन! लौटते समय गोलगप्पे भी खाएंगे।" भाव घर के दरवाज़े तक पहुंच चुकी व्याख्या को आवाज़ लगाते हुए कहता है।
"ठीक है, ठीक है, खाएंगे। लेकिन याद रहे जैसे गोलगप्पे खाना नहीं भूलता, ठीक वैसे ही पैसे लाना भी मत भूलना।" व्याख्या बाहर से चिल्ला कर भाव से कहती है।
दूसरा दिन, सांझ की बेला....
"ओए! ये क्या पहन रखा है, तुने?" व्याख्या भाव से चौक कर पूछती है।
"ये क्या पहना है, मतलब? टिशर्ट पहना है, और क्या..." भाव प्रतिउत्तर करता है।
"अब्बे ओ घोंचू, मेरा मतलब है... 'तुने ये मिलेट्री प्रिंट कि टीशर्ट' क्यों पहनी है?"
"तो.... बहुत से लोग पहनते हैं, मैंने भी पहन ली। इसमें कौन सी बड़ी बात है..." भाव व्याख्या के वार्ता का तात्पर्य ना समझ पाने के कारण उसे सामान्य तौर पर लेता है।
"तु हकीकती पागल है। वो सारे लोग बेवकूफ़ हैं, तो क्या तुभी बेवकूफी करेगा? 'ये मिलेट्री प्रिंट के कपड़े हमारे देश के आदरणीय सैनिकों की पहचान हैं। उनके लिए ये कितना अहम है, हम सामान्य जन इस बात का थाह नहीं लगा सकते। वो अपने प्राण से ज्यादा इज्ज़त और हिफाज़त इस वर्दी कि करते हैं। बहुत मेहनत से उन्हें ये चितकबरे छपाई की वर्दी मिलती है।' हम सब इस योग्य नहीं हैं, कि ऐसे प्रिंट के कपड़े पहनें, और अगर पहने तो ये उनकी घोर अव्हेलना होगी। मुझे नहीं पता कि कंपनी इस छपाई के कपड़े क्यों बनाती है, पर अगर हम इसे खरीदना और पहनना बंद कर दें, तो निःसंदेह वह एक दिन बनना बंद कर देंगे। भाव मेरी मानो तो फिलहाल ही इसे बदल दो।" अपने मनोभाव को सरल व सुबोध शब्दों में कश कर बांधते हुए, अपनी वार्ता प्रकट करती व्याख्या के मुखड़े पर एक ग़ज़ब कि आभा प्रतीत हो रही थी। उसके दोनों भौंह के बीच एक प्रकार का तेज मालूम पड़ रहा था, जिसमें वह भावी जीवन की एक जिम्मेदार नागरिक प्रतीत हो रही थी। आने वाले समय में अपने राष्ट्र के प्रति उसकी जिम्मेदारियां नागरिक होने के नाते मात्र मौलिक कर्तव्य तक ही सीमित नहीं थे, अपितु इस जिम्मे में उसका पेशा भी नज़र आ रहा था।
"व्याख्या तु सही कह रही है। बस दो मिनट मैं तुरंत बदल कर आता हूं।" व्याख्या कि बात से सहमत भावार्थ टीशर्ट बदल लेता है।
"व्याखी, तेरा दिमाग वास्तव में कभी-कभार चलता फिरता सा लगता है। मतलब तु यह जता देती है, कि किताबी ज्ञान के सिवा भी तुझे कुछ जानकारी है।" भावार्थ सड़क के दाएं ओर चलती व्याख्या को सड़क के बाएं ओर करते हुए कहता है।
"भाव, चाहे तु कितना भी कमीनगी कर ले, पर मुझे सड़क के दाएं ओर से बाएं ओर कर के ये जता देता है, कि थोड़ा ही सही पर तुझे मेरी फ़िक्र तो है, और तो और आज कि तरह यदा कदा मेरी बात मान कर यह भी बता देता है, कि बुद्धि के नाम पर कुछ फुटकर सिक्के तो भगवान ने तेरे भी दिमागी जेब में दिए हैं।" व्याख्या भावार्थ के कांधे पर हाथ धरे मस्त मौला हो कर चलती हुई कहती है।
"सुन! पैसे लाया है?" व्याख्या चलते चलते एका एक रूक जाती है।
"हां यार लाया हूं। तु चल ना..." भाव ठिठक कर हसता हुआ कहता है।
"तेरी इस हसी में तेरी नीयत पक्की नहीं लग रही है। ला पैसे इधर दे... मैं आज सच में पैसे नहीं लाई हूं। तु तो गोलगप्पे मसक कर गिड़क लेगा, फसुंगी मैं। पैसों के बदले दोंगे बनाने पड़ेंगे।" व्याख्या सड़क किनारे जम कर खड़ी हो जाती है, और भाव से पैसे मांगते हुए अपनी दाईं हथेली आगे कर देती है।
भाव व्याख्या को पैसे दे देता है, फ़िर दोनों हसी ठिठोली करते पार्क पहुंचते हैं। वैशाख का महीना था। दोपहर का चिलचिलाता घाम प्रकृति की देह को सेक कर जा चुका था। गेरुआ रंग से प्रदीप्त भानु गगन की आड़ में छिप कर उस सांझ उमस से उद्विग्न जनों को चुप चाप ताक रहा था। व्याख्या और भाव भी इस तपन को गहराई से महसूस कर रहे थे। एक किसलय पर पड़े ओस के बूंद की भांति व्याख्या के तीखे नाक पर पसीने की छोटी छोटी बूंद उभरने लगी थी। भाव के कनपटी पर पसीने की एक मोटी लर बनने लगी थी।
"ओह! मैं तो थक गई भाव। चल ना थोड़ी देर चौतरे पर बैठते हैं, फ़िर टहलेंगे।"
"चौतरा गंदा है, रूक साफ़ कर दूं।" भाव अपने इर्दगिर्द कोई जुगाड़ ना पा कर चौतरे पर जमे धुल को फूँक मार के उड़ाने लगता है।
"अरे! संभल कर। आंख बंद कर के फूँक, वरना आखों में धूल के कण चले जाएंगे।" व्याख्या फितरतन फ़िक्र जताती है।
व्याख्या और भावार्थ एक लम्बी सांस लेते हुए चौतरे पर बैठते हैं।
"उफ़! हालत खस्ता हो गई भाव। मेरी तो तबीयत ही अकड़ गई। हम पार्क में समय बिताने आए थे, और वही नहीं बीत रहा।" व्याख्या अधखिले लहराते गुलाबी फूल की भांति अंगड़ाई लेती हुई कहती है।
"तु झल्ली है, क्या? खुलियाम ऐसे मस्ते मिजाज़ अंगड़ाई ना लिया कर। लोग समझ जाते हैं, बचपन करवटें बदलने लगा है।" अंगड़ाई के दौरान व्याख्या की फैली हुई दोनों बाज़ूओं को भाव झट से समेट कर नीचे करता है।
"तो कौन सी बड़ी बात हो गई... उम्र चढ़ेगी तो बचपन करवटें तो बदलेगा न!" व्याख्या आदतन भाव के कांधे पर हाथ धर कर ओट लेती है।
"तो क्या ऐलान करेगी कि तु अब करवटें लेने लगी है... और अंगड़ाई तुझे स्वाभाविक लगने लगी है..?" भाव खींज जाता है।
"हां करूंगी ऐलान! लेकिन सिर्फ़ तुझसे।" व्याख्या मतवाली हो कर कहती है।
"तेरी तबियत तो ठीक है, न! या फ़िर तपन से बुद्धि खिसक गई है?" भाव व्याख्या के इस हरक़त से थोड़ा झेंप जाता है।
"जनाब! तबीयत बिल्कुल ठीक है। बस मिजाज़ थोड़ा मस्ताना हो चला है।"
"हां तो अपने मिजाज़ की हदें तय कर। उसे बता कि हम घर नहीं बाहर हैं।" भाव गंभीर हो कर कहता है।
"सुन न! तेरे इन बातों से एक शायरी ख़्याल में उतर आई। एक रोमांचक शायरा ने लिखा है...
'इस उम्र की भी अब चोली सिलवा दो,
ये बड़ी बेपरवाही से बढ़ती चली जाती है।
ज़रा कमसिन क्या करार दो इसे,
कमबख्त घायल तमाम को कर जाती है।।'
लिखने वाले ने क्या लिखा है... उफ़! इन शायरों के ख़्याल भी बड़े अनोखे होते हैं।" व्याख्या मग्न हो कर शायरी सरिता में डुबकी लगा रही थी।
"शायरों के ख़्याल से याद आया। मां ने एक बार बताया था।... 'जहां ना पहुंचे रवि वहां पहुंचे कवि।' वैसे ये बता, तुने ये शायरी कहां पढ़ ली?"
"बतादुंगी, लेकिन तु पहले वादा कर प्यारी मां से नहीं कहेगा।" व्याख्या भाव के समक्ष अपने दाएं हाथ की हथेली फैलती हुई, वादा मांगती है।
"चल नहीं बताऊंगा। अब बता..." भाव इंद्राणी से ना बताने का वादा करता है।
"मैं कुछ समय पहले तेरे घर आई थी। प्यारी मां से मिलने उनके कमरे में गई, पर वहां प्यारी मां थीं ही नहीं। मेरी ध्यान खुले किताब पर गई। वह उपन्यास था। उसे बंद कर ही रही थी कि, मैंने सामने शायरी कि एक किताब पड़ी देखी। उसे उठाया और कुछ पन्ने पलटने लगी, कुछ शायरी भी पढ़ी जिसमे से एक यह शायरी थी।"
"ओह! तो अब तु छिप छिपा के शेरो शायरी पढ़ने लगी है।" भाव सवालिया निगाह से व्याख्या की ओर देखता है।
"ओए! ऐसे क्या घूर रहा है? एक ही बार पढ़ी है। सौ बार नहीं, और हां खबरदार जो तूने मुझे ऐसे चोरों वाली निगाह से देखा। कारनामे तुने भी कम नहीं किए हैं।" व्याख्या भाव को आखें दिखती हुई कहती है।
"यार गुस्सा क्यों करती है, मैं तो बस पूछ रहा था।" भाव अत्यंत सामान्य लहज़े में कहता है।
"अच्छा सुन! इस बार कहीं जाएगा क्या?"
"जाएगा मतलब?"
"बाबा तु इन छुट्टियों में कभी कभी अपनी नानी के घर जाता है, न! तो वही पूछ रही हूं कि इस छुट्टी में जाएगा या नहीं..?"
"नहीं तो, क्यों तु कहीं जा रही क्या?"
"नहीं यार, मैं तो तेरा पूछ रही थी। मैं भला कहां जाऊंगी। जब से नानी मां और नानु गए हैं, ननिहाल का माहौल ही बदल गया है। अब वहां जाना अच्छा नहीं लगता।"
"फ़िर ठीक है।"
"फ़िर ठीक है, का मतलब? तु चाहता है कि मैं कहीं ना जाऊं। यानी तुझे मेरी कमी खलती है।"
"ओए! चल चुप कर। कहीं जाने ना जाने का सवाल पहले तुने दागा है। मतलब तुझे मेरी कमी खलती है।"
"ओह मिस्टर टावर, मैं और तुझे मिस.... तु जानता है न हर गर्मी कि छुट्टीयों में मुझे कुछ न कुछ पढ़ने कि आदत है। ऐसे में मेरा समय आराम से बीत जाता है। मुझे इतनी फुर्सत ही नहीं मिलती कि बॉलीवुड स्टाइल में मिस्टी जैसा मुंह बना कर सोचुं कि...... 'आई मिस यू'।"
"ठीक फ़िर समझ ले तेरी अगली छुट्टी चैन से बीतेगी।"
"मतलब"
"मां कह रही थी, उन्हें अबकी कुछ काम है, लेकिन निश्चित रूप से अगली छुट्टीयों में नानी के घर जाना है।"
व्याख्या और भावार्थ एक दूसरे की गैरमौजूदगी के दौरान अंतर्मन में होने वाली खलन को आख़िरी तक स्वीकार नहीं करते हैं।
"कल से हम पार्क नहीं आएंगे।" व्याख्या ऊपर की ओर मुख करे हवा तलाश रही थी।
"तु पार्क नहीं आएगी... लेकिन क्यूं?"
"आएगी का क्या मतलब है, हम दोनों नहीं आएंगे। समझा! गर्मी देख रहा है... देह पसीने से लस्त है। ऐसे में लू के सिवा कुछ हासिल नहीं होना है।"
"ज़ीरु पार्क नहीं आएंगे, तो गोलगप्पे कैसे खाएंगे?" भाव हिचकिचा कर पूछता है।
"तेरे स्वाद में बाध पड़ गया है। तुझे गोलगप्पे के सिवा कुछ सूझता ही नहीं। साल के तीन सौ पैसठ दिन गोलगप्पे खा खिला कर मार डालता है। एक तो कुल्फी खाने वाले मौसम में तुने गोलगप्पे खाने के शौक पाल रखें हैं। ऊपर से चाहता है, कि गोलगप्पे के चलते मैं रोज़ाना इस भरी वैशाख में पार्क आऊं और खुद को झौंस लूं।" व्याख्या ख़ामख़ाह उखड़ जाती है।
"ज़ीरु तुझे नहीं लगता कि तु आज कल बहुत चिढ़ने लगी है...! छोटी छोटी बात पर इतना गुस्सा करती है। यार अगर यही बात तु प्यार से कह देती तो क्या मैं तुझे समझता नहीं? और मान ले नहीं भी समझता तो, हमेशा तो मैं तेरे ज़िद के आगे झुकता हुं न! इस बार भी झुक जाता।" भाव अपनी नाराज़गी जाहीर करता है।
"बात ज़िद की नहीं..." व्याख्या अपनी बात पूरी करती कि तभी,
"हाय व्याख्या! हाय भावार्थ!" आभास व्याख्या और भावार्थ की ओर बढ़ता हुआ कहता है।
"हाय!" व्याख्या और भावार्थ आभास को प्रतिउत्तर करते हैं।
"तुम दोनों को गर्मी नहीं हो रही क्या... इतनी उमस में दोनों आराम से बैठे बातें कर रहे हो।" आभास मुस्कुरा कर पूछता है।
"नहीं ऐसा नहीं है। गर्मी तो बहुत हो रही है। बस हम कुछ देर में निकलने ही वालें हैं।" 'व्याख्या'
"ये लो आइसक्रीम खाओ।" आभास सख्य भाव से चाॅको बार की एक आइसक्रीम व्याख्या कि ओर बढ़ाता है।
"नो थैंक्स! मेरा मन नहीं है।" व्याख्या आइसक्रीम लेने से इनकार कर देती है।
"व्याख्या, इस भरी गर्मी में आइसक्रीम खाने की इजाज़त मन से नहीं जरूरत से लेनी चाहिए। तुम पूछो अपने माथे पर उभरते पसीने से कि आइसक्रीम खाने से उसे कुछ राहत मिलेगी या नहीं...!" आभास पुनः व्याख्या कि और आइसक्रीम बढ़ाता है। इस बार व्याख्या सह झिझक आइसक्रीम स्वीकार कर लेती है। आभास एक दूसरी चाॅको बार आइसक्रीम भावार्थ की ओर बढ़ाता है।
"सॉरी, मुझे आइसक्रीम पसंद नहीं है।" भावार्थ आइसक्रीम स्वीकारने से साफ़ मना कर देता है।
"ओह प्लीज़ भावार्थ अब लो भी। अगर तुम इनकार करोगे तो व्याख्या भी असहज महसूस करने लगेगी।" भावार्थ आइसक्रीम स्वीकार लेता है। तीनो एक साथ आइसक्रीम खाते हैं।
"वैसे... तुमने तीन आइसक्रीम कैसे ले ली? मेरा मतलब है, तुमने हम दोनों को आइसक्रीम दिया, तो क्या ये आइसक्रीम हम दोनों के लिए ही खरीदा था या ...." 'व्याख्या'
"जब तुम और भावार्थ पार्क में प्रवेश कर रहे थे, तो उस वक़्त मैं वहीं दरवाज़े के पास लगे ठेले पर छोले कुलछे खा रहा था। तभी मेरी नज़र तुम दोनों पर पड़ी। मैंने देखा तुम दोनों चौतरे पर बैठे हो, और मुझे आइसक्रीम खानी थी, तो सोचा क्यों न साथ खाया जाए।" 'आभास'
"ओह, थैंक्यू!" 'व्याख्या'
"व्याख्या दोस्तों को हर बात पर थैंक्यू नही कहते, और जिन्हे थैंक्यू कहते हैं उन्हें दोस्त नहीं कहते। तो कहो तुम मुझे थैंक्यू कहना चाहती हो या दोस्त?" आभास व्याख्या के प्रति अपने एक तरफा साख्य भाव को जाहीर करता है।
"हम्म सही कहा।" 'व्याख्या'
"ये मेरे सवाल का जवाब नहीं था। थैंक्यू या दोस्त?" आभास पुनः पूछता है। उधर मौन बैठे भावार्थ का चेहरा उतरने लगता है। व्याख्या के प्रति आभास के इस दोस्ताने अंदाज़ से उसके दिमाग की नसों में दौड़ती खून रफ़्तार पकड़ लेती है।
"दोनों ही चलेगा।" व्याख्या धीरे से से कहती है।
"व्याख्या शाम ढल रही है। अब घर चलें..." भावार्थ चौतरे से उतर कर खड़ा हो जाता है।
"हां ठीक है।" व्याख्या भावार्थ के मनोभाव को समझती हुई, उसकी बातों में अपनी हामी भरती है।
इतनी जल्दी व्याख्या को वापस जाता देख आभास के मुखड़े पर प्रश्नवाचक चिन्ह् लग जाता है। शायद वह व्याख्या से तनिक देर और बतियाना चाहता था।
"उफ़! तुझको नहीं लगता आभास कुछ ज्यादा हक जता रहा था।" व्याख्या पार्क से बाहर निकलते ही कहती है।
"हक़ देने वाला जब उसे हक़ दे रहा है। तो जताने वाला तो जताएगा ही न।" भाव रूखे स्वर में कहता है। उसके चेहरे पर सिकुड़न है। भौंवें झुकी हुई हैं, और दोनों भौंहों के मध्य कि त्वचा पर भी बारीक सिलवटें पड़ गईं हैं।
"क्या? तेरे कहने का मतलब क्या है... और कौन किसे हक़ दे रहा है?" व्याख्या चौक कर पूछती है।
"चल छोड़... कहीं तुझे मेरी बात बुरी ना लग जाए। वैसे भी अब तो वह तेरे थैंक्यू और फ्रेंडशिप दोनों ही शब्दों का हिस्सा बन गया है, और सही भी है। वो और तुम पढ़ने में भी अच्छे हो, दिखने में भी अच्छे, दोनों की दोस्ती खूब जमेगी।" भाव खिसियानी हसी हस कर कहता है।
"ओह! तो तुझे ये बात बुरी लगी है। तो सुन... अगर मैं आभास को सिर्फ़ दोस्त कहती तो ये ज्यादा हो जाता, और फ़िर तुझे भी अच्छा नहीं लगता। अब रही बात थैंक्यू की तो भाव यार मुझे आदत नहीं है, किसी को बिल्कुल खरा जवाब देने की, मुझे सिर्फ़ थैंक्यू बोलना अच्छा नहीं लगा इसलिए मैंने दोनों कहा। और फ़िर तु ही बता तुझे भी तो आइसक्रीम नहीं खानी थी, फ़िर भी तुने स्वीकारा न। तु भी तो साफ़ इनकार कर सकता था। जब तु खुद नहीं ऐसा कर पाया, तो मुझे कैसे तुने उम्मीद कर ली कि मैं उसे बिल्कुल खरा जवाब दे दूं..!" व्याख्या भाव को समझाने का भरसक प्रयास करती है।
"चल गोलगप्पे खाते हैं।" व्याख्या भाव का ध्यान बटाने के उद्देश्य से कहती है।
"मुझे नहीं खाना।" भावार्थ का स्वर अब भी रूखा था।
"मैं पूछ नहीं रही हूं, बता रही हूं। चल आ..." व्याख्या गोलगप्पे के ठेले कि ओर बढ़ने लगती है।
"गोलगप्पे खा कर घर चली जाना, और ख़्याल रहे- सड़क के बाएं किनारे से चलना।" भावार्थ व्याख्या को फ़िक्र निहित हिदायत दे कर आगे बढ़ जाता है।
व्याख्या एक जगह खड़ी खड़ी भाव को देखती जाती है। उसे आशा है, कि वह पीछे मुड कर जरूर देखेगा और रूक जाएगा। किन्तु भाव चलता ही जाता है। भाव काफ़ी आगे तक जा चुका है, बस कुछ ही क्षण में उसे इतनी दूर से देख पाना भी व्याख्या के लिए मुश्किल हो जाएगा। व्याख्या समझ जाती है, आज भाव का गुस्सा व्याख्या कि उम्मीद पर भारी पड़ गया है। वह पीछे नहीं मुड़ कर नहीं देखेगा। तभी भावार्थ उसे ठहरा हुआ मालूम होता है। वह पीछे मुड़ कर भी देखता है, मगर पुनः वह अपनी गति पकड़ लेता है। व्याख्या रफ़्तार से भाव कि ओर बढ़ती है। वह जल्द से जल्द भाव के पास पहुंचने के लिए बीच बीच में दौड़ती भी है।
"रूक जा भाव प्लीज़!" व्याख्या झुंक कर अपने घुटनों पर हाथ धरे ज़ोर ज़ोर से हाँफ रही थी। व्याख्या के झुकने के कारण उसके ढीले ढाले वॉकिंग टीशर्ट का गला आगे की ओर से झूल जाता है। भावार्थ पीछे मुड़ कर देखते ही व्याख्या के पास आ कर झट से उसे ऊपर उठाता है।
"तुझे कोई हब खब रहता है, या नहीं..? लड़कियों वाले दो चार लक्षण सीख ले। हम घर वालों के लिए तु छोटी है, दुनिया के लिए नहीं। आइंदा कभी ऐसे झुकना मत।" भाव पुनः चलने लगता है।
"ठीक है, तेरी सारी बातें सराखों पर। अब कभी ऐसा नहीं हो इस बात का ध्यान रखूंगी। अब ये बता कि मैंने ऐसा भी क्या कर दिया जो तु इतना गुस्सा है...? जब भी आभास मुझसे बात करता है, क्लास में मुझसे कुछ पूछ लेता है। तेरा चेहरा उतर जाता है, ऐसा क्यूं?"
"तुम और आभास जितने स्मार्ट हो, मैं उतना ही डंब हूं। इसलिए जब भी वो तुमसे बात करता है, तुम्हारे इर्द गिर्द होता है, मुझे उसकी स्मार्टनेस खल जाती है। मेरे मन में उसके लिए कोई द्वेष नहीं आता, लेकिन मैं खुद को और कम बहुत कम आंकने लगता हूं, और ये खुद को कम आंकना एक गुस्सा बन कर बाहर निकालता है।" भावार्थ अपने अंतर्मन में चल रहे तथ्यों को बाहर निकालता है।
"किसने कह दिया वो स्मार्ट है, और तु डंब?" व्याख्या भाव संग धीरे धीरे चलती है।
"प्लीज़ अब मुझे सहानुभूति मत दे। थोड़ी देर बाद मैं सामान्य हो जाऊंगा।" भाव अनायास ही खींज कर कहता है।
"मैं तुझे सहानुभूति नहीं दे रही हूं। तु मेरा फ्रेंड है, तुझे अगर गलतफहमी हुई है, तो उसे दूर करना मेरा फ़र्ज़ है।"
"फ़र्ज़... वो भी फ्रेंड के नाते? फ्रेंड तो वो आभास भी है। तो..." भावार्थ ठिठक कर हँसता है। वह अपनी बात पूरी कर पाता कि व्याख्या बोल पड़ी....
"हां है, वो मेरा फ्रेंड। वैसे भी क्लासमेट और फ्रेंड में ज्यादा अंतर नहीं होता।" व्याख्या अबकी खींजते हुए ऊंचे स्वर में कहती है।
"मगर वो सिर्फ़ फ्रेंड है, और तु.... तु मेरा 'औसम बौसम फ्रेंड' है। सबसे ख़ास, सबसे गहरा, बेहतरीन, अंतरंग और आत्मीय।" व्याख्या भावुक स्वर में भाव का हाथ पकड़ कर धीरे धीरे कहती है।
....क्रमश: