ज़िंदगी क्या है बस मीठा सा इक ज़हर है ..!
रोज़ ही बनते बिगड़ते जी रहा है इन्सा ..
कभी साँझ है ख़ाबो की तो कभी सहर है ..!
सब कुछ मिला पर शायद कुछ मिला भी नही ..
इक तलाश सी जाने क्या रहती हर पहर है ..!
कहने को पहाड़ सा जीवन काटे ना कटे ..
पर कोई बिछड़े तो पल भर की भी क्या ख़बर है ..!
जीना भी नही चाहते और मरने से भी डरते हैं ..
दिन रात पिए जाते हैं जिसे हम सब यारो ..
बस यही ज़िंदगी का मीठा सा ज़हर है ..!