एक ऐसा शहर जहाँ बकौल ममता कालिया पैदल चलना किसी निरुपायता का पर्याय नहीं था। साहित्य की वह उर्वर भूमि जिसकी नमी किसी भी कलम को ऊर्जा से भर देती थी, जहाँ का सामाजिक ताना-बाना ही लेखकों-बुद्धिजीवियों से बना था। रचनात्मकता, प्रतिरोध और गंगा-जमुनी अपनेपन में रसा-पगा यह शहर, इलाहाबाद कभी देश की हिन्दी मनीषा को दिशा देता था। आन्दोलनों को जन्म देता था और राजधानियों से चले आन्दोलनों को उनकी औकात भी बताता था। ममता जी बताती हैं कि मुम्बई जैसे महानगर को छोड़कर यहाँ आते समय उन्हें बहुत अफसोस हो रहा था लेकिन इस छोटे शहर के बड़प्पन ने बाद में उन्हें हमेशा के लिए अपना कर लिया। इस किताब में उन्होंने उसी इलाहाबाद को साकार किया है। वह इलाहाबाद जहाँ 'विपन्नता का वैभव और गरीबी का गौरव' धन और सत्ता के दम्भ में झूमते महानगरों की आँखों में आँखें डाल कर देखा करता था। यह सिर्फ संस्मरण नहीं है, एक यात्रा है जिसमें हमें अनेक उन लोगों के शब्दचित्र मिलते हैं जिनके बिना आधुनिक हिंदी साहित्य का इतिहास नहीं लिखा जा सकता और जो उस समय के इलाहाबाद के मन-प्राण होते थे। उपेंद्रनाथ अश्क, शैलेश मटियानी, नरेश मेहता, भैरव प्रसाद गुप्त, मार्कण्डेय, शेखर जोशी, अमरकांत, ज्ञानरंजन, दूधनाथ सिंह, रवींद्र कालिया, उस समय के साहित्यिक इलाहाबाद की धुरी लोकभारती प्रकाशन और उसके कर्ता-धर्ता दिनेश जी, जलेस-प्रलेस और परिमल से जुड़े लेखक, गरज कि इतिहास का एक पूरा अध्याय अपने नायकों और उनकी खूबियों-खामियों के साथ यहाँ पूरी संवेदना और जीवन्तता के साथ अंकित है। साहित्य की आभासी राजधानियों के आत्मग्रस्त स्तूपों पर बैठे हम लोगों के लिए यह वृत्तान्त बहुत ईर्ष्याजनक भी है। दिल की तरह धड़कते हुए एक शहर में फैला हुआ हमारा यह सांवला सा कल सोशल मीडिया के असंख्य मंचों पर छितराए हमारे चमचमाते आज को बहुत कुछ सिखा सकता है। नए साहित्यिकों को इसे अवश्य ही पढ़ना चाहिए और जहाँ भी वे हैं, वहीं एक ऐसा इलाहाबाद बनाना चाहिए।
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