जो हुआ अच्छा,
जो हो रहा है अच्छा, जो होगा वह और भी अच्छा । सबमे कल्याण समाया हुआ है।
रैनपुर नाम के एक गांव में दीपक और ज्योति नाम के पति पत्नी निवास करते थे। दीपक एक टैक्सी ड्राइवर था। टैक्सी बहुत पुरानी होने से चलने के दौरान खट खट की आवाज से पैसेंजर परेशान हो जाया करते।
दीपक के पास नया टैक्सी खरीदने के पैसे नहीं थे। दीपक बेहद ही गरीबी में जीवन जी रहा था। पर इतने संघर्षों के बावजूद वह अपनी ईमानदारी और मेहनत से कोई समझौता नहीं करता। यहां तक की इतनी गरीबी में भी उसका हृदय एक राजा की तरह विशाल था।
ज्योति - सुनिए जी आप जो पैसे कमा कर घर पर ला रहे हैं। अब उन पैसों से घर का गुजारा कर पाना मुश्किल है। आप कोई दूसरा कार्य देख लीजिए। जिससे की कम से कम इतनी कमाई हो जिससे घर का खर्चा चल सकें।
उतने में मकान मालकिन वहां पहुंच जाती है।
मकान मालकिन - दीपक पिछले तीन महीनों को बचा हुआ किराया कब तक चुका रहे हो। अगर ना हो सके तो घर खाली करो।
दीपक उनसे क्षमा मांगता है। और कहता है।
दीपक - मालकिन नमस्ते सुनिए ऐसा है की कुछ महीनों से मेरा धंधा कुछ ठीक नहीं चल रहा। उससे तो इतनी भी कमाई नहीं हो रही की हम घर का राशन ला सके बांकी कामों के लिए पैसे का इंतजाम टैक्सी की कमाई से करना तो दूर की बात हो गई है।
दीपक - मालकिन आपको विश्वास दिलाता हूं की मैं जल्द ही कोई उपाय निकालकर इस समस्या से उबर जाऊंगा और आपके किराए के पैसे चुक्तु करने के साथ ही जीवन की डगमगाई नैया को पुनः पहले की तरह पटरी पर ले आऊंगा बस आप हम पर इतना अहसान कर दीजिए की हमें थोड़ी मोहलत दे दीजिए। आपका बड़ा उपकार होगा। अन्यथा बरसात के मौसम में हम बीवी बच्चे को लेकर बेघर होकर कहां भटकेंगे।
मकान मालकिन - ठीक है ठीक है। पर बस एक अंतिम माह की मोहलत और देती हूं पर अबकी बार मैं कुछ नहीं सुनूंगी।
ज्योति अब क्या होगा जी मुझे तो कुछ समझ ही नहीं आ रहा।
दीपक - चिंता मत करो दुर्गा मां जो भी करेगी उसके पीछे कल्याण ही छुपा होगा। दुर्गा मां पर निश्चय रखो।
ज्योति - अजी एक काम करूं मैं नवरात्रि का व्रत रखती हूं। हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी माता की भक्ति जोर शोर से करूंगी। मां अगर प्रसन्न हो गई तो हमारे सब दुख, दूर हो जायेंगे।
दीपक - क्यों नहीं जरूर करो। नेकी और पूछ पूछ। हमें आजतक हर समस्यायों से दुर्गा मां ने ही तो उबारा है। इस बार भी उबारेंगी।
इतना कहकर दीपक अपनी बेटी श्रेया को स्कूल छोड़ने के लिए टैक्सी में बैठाकर निकल पड़ता है।
स्कूल के गेट के पास पहुंचते ही श्रेया पिता दीपक से कहती है।
श्रेया - पापा आज प्रिंसिपल ने आपको बुलाया है। मेरे तो ध्यान से ही उतार गया था। आपको बतलाने को
दीपक प्रिंसिपल के ऑफिस में पहुंचकर पूछता है।
दीपक - क्या मैं अंदर आ जाऊं सर
प्रिंसिपल - आइए, आइए जी आप कौन ?
दीपक - जी मैं श्रेया का पिता दीपक हूं, मेरी बेटी आपके ही स्कूल में 6 वीं में पढ़ती हैं। उसने बतलाया की आपने मुझे बुलाया है। तो आपसे मिलने चला आया।
प्रिंसिपल - अच्छा हां हां श्रेया, अरे वाह श्रेया तो बड़ी होशियार बच्ची है। पढ़ने लिखने में बात व्यवहार में सबमें अव्वल। पर एक कमी है जो उसका भविष्य खराब कर सकती है। उसकी फीस कभी समय पर जमा ही नहीं की जाती। एक बार की बात होती तो बात अलग थी। यहां तो कई बार ऐसा हो चुका है। और इस बार तो पूरे 3 महीने की फीस जमा ही नहीं की गई ऐसे कैसे काम चलेगा।
दीपक - जी मैं जल्द ही कुछ करता हूं मुझे कुछ समय दीजिए मैं जरूर कुछ करके उसकी फीस जमा करता हूं।
इस तरह से दीपक के जीवन को चारों ओर से समस्यायों ने घेर रखा था।
पर वह कभी हताश निराश नहीं होता बल्कि भक्ति से मिली आत्मिक शक्ति उसे हर परिस्थिति में मजबूती से खड़ा रखती थी।
दीपक - हे दुर्गा मां मैं तो सिर्फ कोसीस कर सकता हूं और अपना 100 प्रतिशत दे सकता हूं। बांकी सफल होना ना होना यह तो आप समझो।
दीपक टैक्सी लेकर स्कूल से काम पर रवाना हो जाता है।
दूसरे दिन सुबह जब वह टैक्सी लेकर घर से निकलता है। घर से कुछ ही दूरी पर एक युवती बस स्टैंड में खड़ी होती है।
दीपक - कहां जाना है। काकी
काकी - जी मुझे पास के ही दुर्गा मंदिर जाना है।
दीपक - जी बैठिए मैं छोड़ देता हूं।
दीपक - काकी जी दुर्गा मंदिर आ गया
काकी - क्या आप मुझे रोजाना इसी वक्त पूरे नवरात्रि भर उसी स्थान से यहां मंदिर तक लाकर छोड़ दोगे।
दीपक - जी क्यों नहीं
अब हर दिन घर से निकलते ही दीपक उन्हे वहां से उठकर मंदिर तक छोड़ आता आखिरी नौवे दिन जब वह वहां गया तो वह काकी उसे वहां नजर नहीं आई। उसने जैसे ही टैक्सी आगे बढ़ाई पीछे से आवाज आई आज लेट कैसे हो गए ?
दीपक पीछे मुड़कर देखता है। पीछे वही काकी बैठी होती है। दीपक आश्चर्यचकित हो जाता है।
जैसे ही आज फिर मंदिर आता है वह काकी नीचे उतरकर दीपक को कहती है। आओ चलो तुम भी मंदिर के अंदर।
दीपक काकी के पीछे मंदिर में जाता है काकी अंदर जाकर कहीं गुम हो जाती है।
दीपक चारों ओर उन्हे खोजता है।
दुर्गा मां मूर्तियों से प्रत्यक्ष होकर दीपक को साक्षात्कार कराते हुवे कहती है।
दीपक - वत्स तुम दोनों पति पत्नी के त्याग तपस्या से मैं अत्याधिक प्रसन्न हुई। तुम दोनों जीवन की परीक्षा में पास हो चुके हो। अब तुम्हारे दुख के दिन गए। अब सुख की घड़ी आरंभ होती है।
दीपक हांथ जोड़े खड़ा रहता है। और एकटक माता को देखता और सुनता रहता है।
दुर्गा मां अंतर्ध्यान हो जाती हैं।
दीपक अपने खटारे टैक्सी के अंदर आता है। और क्या देखता है। की पिछली सीट पर जहां वह काकी रोजाना बैठती थी। वहां एक नोटों से भरा बैग रखा होता है।
दीपक समझ जाता है की नवरात्रि के नौ दिन साक्षात दुर्गा मां ने उनकी उस टैक्सी की सवारी की और अंतिम दिन फलस्वरूप यह धन देकर गईं हैं।
उस धन को लेकर सबसे पहले दीपक बच्ची के स्कूल जाकर उसकी तीन महीने की बची हुई फीस चुकाता है। और फिर आगे के कुछ महीनों की भी एडवांस फीस जमा कराता है। अपनी बच्ची को स्कूल से लेकर सीधा कपड़ों की दुकान में जाकर सबके लिए सुंदर सुंदर कपड़े खरीदता है। फिर एक कार के शो रूम में जाकर एक नई कार खरीदता है। फिर एक प्रॉपर्टी डीलर से मिलकर एक नया पक्का मकान का सौदा करके नई कार के साथ घर लौटता हैं।
ज्योति - अरे ये क्या, यह सब कैसे किसकी गाड़ी है यह और बेटी जाह्नवी को यह नए नए कपड़े कहां से आए और तो और तुम भी नए कपड़े पहने हो। कहीं मैं कोई सपना तो नहीं देख रही।
दीपक - आओ जरा कार के अंदर बैठो रास्ते में तुम्हे सब कुछ बतलाता हूं।
वह सबको सीधा दुर्गा जी के मंदिर ले जाता है। पूजा अर्चना करता है। फिर सब कुछ वहीं इत्मीनान से बतलाता है। फिर पत्नी और बेटी जाह्नवी को लेकर अपने नए घर को दिखलाने ले जाता है।
एक ही दिन में सारे दुख खत्म होकर, सुख में बदलता देख ज्योति की आंखों से आंसु टप टप टपक रहे थे। पर यह खुशी के आंसु थे।
बोलो दुर्गा माता की जय
कहानी का सार यही है की। हमे हर विपरीत परिस्थितियों में धैर्य बनाएं रखना चाहिए। क्योंकि जो जितना बड़ा हीरो होता है। उसका जीवन उतना संघर्षमय होता है।
सदा याद रखो जो हुआ अच्छा, जो हो रहा है अच्छा, जो होगा वह और भी अच्छा । सबमे कल्याण समाया हुआ है।