पूछते-पुछते पहुँचा उस बाजार में जहाँ रौनक-
ए-महफिलें थी बड़ी |
बिकनें के लिये हर दुकान पर वहाँ कई ज़िन्दगीयाँ थी खड़ी ||1||
हर सम्त ही शऱाब-ओ-सबाब की महकी-महकी शामें थी सजी |
कोई भी शर्म कोई भी हया उस हरम में ना किसी नजर में थी दिखी ||2||
बाजार-ए-हुस्न की हर दुकान पर गिरने के लिये कयामत थी बड़ी |
मैनें भी देखा दिवान-ए-खास में खरीदारों की लगी एक भीड थी बड़ी ||3||
हर हाथ में ही जाम था हर नजर में ही थी मयखाना-ए-मस्ती |
ऐसा लगा मेरी भी मझधार में फसीं कश्ती साहिल पर आ थी लगी ||4||
मालिक-ए-सामाँ को सुकून आया जब उनकी नजर मुझ पर थी पड़ी |
घूमते-घूमते मेरी भी नजर इक नूरे आफताब पर जा थी टिकी ||5||
हर आँख थी इन्तजार में उस महफिल-ए-मुन्तजर की बड़ी |
शिरकत-ए-बज्म से उसके हर आशिके जाँ पर बिजली सी थी गिरी ||6||
शोखियाँ उस आब-ओ-हया के चेहरे की उफ कातिल थी बड़ी |
आगोश में उसके जानें को मेरी जुस्तजू मेरें दिल पर ही थी अड़ी ||7||
उस कमरे की हर दिवार पर इक अजब सी थी नमी |
मेरे लिये उसके उल्फत-ए-मोहब्बत में ना जानें कैसी थी कमी ||8||
छूनें पर उसको जानें कैसी उसके दिल में इक आह थी उठी |
देखा जो मैनें गौर से तो उसकी आंखों में कुछ अश्को की थी नमी ||9||
दिल को तो अब मेरें उस पर बीती हर बात सुननें को थी पड़ी |
मुझको पता चला इक गरीब की इज्ज़त का जो आके यहाँ थी बिकी ||10||
ना जानें कितनें हाथों से कितनी ही बार उसकी आबरू थी लुटी |
रूह उसकी अन्दर से छलनी-छलनी हर बार ही थी हुई ||11||
मरना भी अगर चाहे तो वह अपनी मर्जी से मर सकती थी नहीं |
क्योंकि पहरे की हर निगाह होती उस पर थी हर घड़ी ||12||
उसकी हर आह में दुआ बद दुआ थी कि आ जाये कयामत की घड़ी |
क्योंकि ज़िन्दगी उसकी हर वक़्त मौत से भी बद तर थी बनी ||13||
मायूस थी बड़ी वह शायद कुछ कहना मुझसे चाह थी रही |
थी लबों तक तो बात उसके पर हिम्मत कहने की ना थी बची ||14||
कम्बख्त रात को भी ना जानें गुजरनें की इतनी जल्दी क्यू् थी पड़ी |
सब जाननें को मैं बेताब था उस पर बीती ज़िन्दगी की हर घड़ी ||15||
फेहरिस्त सब गुनहगारों की इस बाजार में लम्बी थी बड़ी |
मैं भी तो उसमें शामिल हो गया था उस वक़्त की घड़ी ||16||
कैसे बनाऊ मै उसको फिर से वह पहले वाली मासूम सी लड़की |
काश मेरे भी पास होती वह परियों वाली जादू की छड़ी ||17||
ताज मोहम्मद
लखनऊ