जलता हुआ चिराग देखा पुरानी कोठी के ताख पर |
क्या अब चाँद की चाँदनी आती नहीं इसके मेहराब पर ||1||
इतनी खामोशी क्यूँ है छाई इसके दर-ओ-दिवार पर |
जानें क्या कुछ गलत हुआ है इसके पुरानें अस्हाब पर ||2||
क्यूँ अब आते नहीं परिन्दे इसके शजरे साख पर |
इतनी धूल क्यूँ जमीं हैं इसके हर जर्रे-जर्रे के इश्राक पर ||3||
रहती थी जिन्दगियाँ यहाँ एक दूजे के अश्फ़ाक पर |
शायद हुआ है झगड़ा इन सबका पुरखों की जायदाद पर ||4||
नूर-ए-कमर से शामें बज्म होती थीं अपने शवाब पर |
एक वक्त था सभी मेहमान कायल थे यहाँ के आदाब पर ||5||
शहर का हर शक्स ही फिदा था इसके मुकाम पर |
शायद कुछ पाबन्दी लगी हो मेरे सवालों के जवाब पर ||6||
ताज मोहम्मद
लखनऊ