जाने कब से हम उनको खुदा कह रहे हैं |
और एक वो हैं जो हमको सजा दे रहे हैं ||1||
मोहब्बत में जिनकी हम यूँ रुसवा हुए हैं |
वहीं तो हमें अब सबसे बेवफा कह रहे है ||2||
मानकर जिसे अपना सौंपी थी जिंदगी |
वही अब हमें जालिम गैर सा कह रहे हैं ||3||
थे पत्थर के वह हमसे मिलने से पहले |
मेरी जिंदगी के अब जो खुदा बन रहे हैं ||4||
ना मालूम है जिंदगी के मसाईल उनको |
पता है उन्हें ये वे खुद से दगा कर रहे हैं ||5||
जरूरत है तेरी बस हमको यूँ चाहने की |
मजबूरी को तेरी हम वफा समझ रहे हैं ||6||
कभी रोते थे जो शानों पर सर रख कर |
आज मेरी जिंदगी का वह मजा ले रहे हैं ||7||
बड़ी मोहब्बत से बनाया था घर उन्होने |
बच्चे जिन्हें ऐसे वहाँ से दफा कर रहे हैं ||8||
एक वक्त था यारों जो लगे थे कतारों मे |
आज मिलने से वो मुझसे मना कर रहे हैं ||9||
कोई पूछे उनसे ऐ ताज गुनाहों को मेरे |
जानें किस बात की यूँ वो सजा दे रहे हैं ||10||
ताज मोहम्मद
लखनऊ