आंखें रोती है हस्तियां सोती है,
उनके मन की पीर नयन भिगोती है।
देखकर पीड़ा कच्ची झोपड़ियों की,
जहां तन से लिपेटे हुए मां बच्चे को भूखी सोती है।
तन उनका कितना कठोर है ,
जो एक चीर में सहन कर लेता हांड कंपाने वाली ठंड।
ना आंधी-तूफान विचलित कर सकते उन्हें,
ना घनघोर घटा की मूसलाधार बारिश का प्रचंड।।
बरसातों में टपकती हुई झोपड़ियों में,
नींद नहीं आती है रात गुजर जाती है।
आंखें डबडबाती है सूरज की किरणों के लिए,
बरसात बंद होने की आस लगाती है।।
ये वही झलकियां है जहां मेरे देश के भविष्य,
भविष्य खोज रहे हैं कूड़ेदानों में।
तन पर वसन नहीं पगों में ना चप्पल,
झपट पड़ते हैं झूठे अन्न के लिए खुशियों के प्रतिष्ठानों में।
हे मेरे देश की गरीबी तू जाती क्यों नहीं ?
इन कच्ची मिट्टी के सम तन और घरों को छोड़कर।
तुम्हें मिटाने आए बहुत फरिश्ते ऐलान करके,
"गरीबी हटाओ देश बचाओ" के नारे बोलकर ।।