मेरा कुछ नहीं है मेरे लिए, जिंदगी समर्पित है परहित के लिए।
घर, परिवार, कुल , समाज , सर्वोपरि है मेरे लिए।।
बचपन ही था जो वक्त दे गया मुझे अपने लिए।
यौवनकाल सजाया माता-पिता के सपनों के लिए।
अध्ययन करते-करते वक्त कब निकल गया जिंदगी का।
भविष्य सजाया था अच्छी नौकरी के लिए।।
मैंने सोचा नौकरी के बाद मेरे लिए समय आयेगा।
जो मुझे खिलते हुए चमन से मधुकर की भांति मधु पिलायेगा।
मगर वक्त ने मुझे जिम्मेदारियां दे दी इतनी।
सोचना छोड़ दिया मैंने अपने लिए।।
सक्षम हुआ अपने पैरों पर खड़ा हो गया था मैं।
जिम्मेदारियों का अहसास से रूबरू हो गया था मैं।
सोचने लग गया अपनों की दुनिया सजाने को ।
मैं हूं माता-पिता के अधूरे सपने सजाने के लिए।।
जन्म से ही कहने लगे थे मुझे तू माता-पिता के बुढापे के साहारा है।
इसलिए ही इस धरा पर हुआ जन्म तुम्हारा है।
बचपन में मैं इसे खेल समझता था अल्फाजों का।
लेकिन अब समझा मेरा यह कर्तव्य मां बाप के लिए।।
जब कमाई शुरू हुई तो मैं खुश था कि मौज मस्ती का वक्त आया है।
मेरी मेहनत ने मुझे अपने लिए कुछ करने के काबिल बनाया है।
मगर घर, परिवार के लोगों ने ऐसा सिला दिया।
मुझे राजी कर लिया शादी के लिए।।
शादी के बाद में दब गया कर्ज तले अर्थ और सात बंधनों के।
मेरा सब कुछ समर्पित हो गया मेरे प्रियतमा के लिए।
मैं भूल गया अपने आप को हवाले कर दिया प्रेम के।
अब माता-पिता भाई-बहन के साथ जीने लगा पत्नी के लिए।
सुंदर वस्त्र, सुंदर आभूषण और सौंदर्य प्रसाधन मुझे सुंदर बीवी का श्रृंगार करना था।
मुझे परवाह नहीं मेरे रुप और यौवन में पुष्प खिलाने का मुझे अपनों के लिए कमाना था।
नौकरी करता था पैसे कमाता था लेकिन अपने लिए कुछ नहीं था।
लेकिन फिर भी मन में खुश था अपनों के लिए।।
सरकारी नौकरी के नाम को ऐसा अभिशाप लग गया।
मुफ्त की खाते हैं लोगों के मन ऐसा रंग चढ़ गया।
बॉस की सुनकर आता खूब घर पर खुशनुमा चेहरा लिए।
आलसी और निकम्मा लगता था अपनी पत्नी के लिए।
पत्नी कहती थी आता है और बिस्तर पर पड़ जाता है।
कभी भी घर के कामों में हाथ ना बंटाता है।
घर पर बॉस थी मेरी बीवी ।
कैसे समझाऊं मैं सारी मेहनत करता हूं तुम्हारे सपनों के लिए।।
वक्त निकल गया प्रेम मोहब्बत में, बच्चे आ गये नये मेहमान बनकर।
जिम्मेदारियां बढ़ गई , अब मै जीने लगा बीवी और बच्चों के लिए।
सास-बहू की विचारधाराएं बदलने लगी, मैं बीच में फंस गया चक्की के पाट सम।
माता-पिता , भाई-बहन निकल गये सूची से अब जीने लगा बीवी और बच्चों के लिए।
आशियाने विस्तार का रोग लगा मुझे जमाने को देखकर।
क्योंकि थक चुका था मैं अपने पत्नी के ताने सुनकर।
पैर पसार लिए इतने चद्दर से बाहर आ गये।
मैंने ख़ुद के सपने को दिये दिखावटीपन के लिए।
बच्चे बड़े हुए उनका भविष्य राह में आ गया ।
उनके पढ़ाने का दुष्कर लक्ष्य सामने आ गया।
हाई स्कूल तक दिक्कतें कुछ कम थी जिंदगी में।
अब बजट गड़बड़ाने लगा आगे के लिए।।
इंजीनियरिंग पढ़ाऊं या एम बी बी एस पढ़ाऊं।
वकील, जज, या वैज्ञानिक बनाऊं।
कुछ दिन पहले ही होम लोन चुकाया था ।
अब पी. एफ. और लोन उठा लिया बच्चों के अध्ययन के लिए।
चिंतायें रहती थी दिल में बच्चों की सफलता की हमेशा।
क्या स्वर्णिम भविष्य देगा बच्चों के लिए खर्च किया पैसा।
जो उम्मीद है मन में पूरी हो जायेगी।
मैंने अपने आप को नियंत्रित रखा हर रिश्ते के सपने के लिए।।
पढ़ाई खत्म हुई बच्चों की शादी लक्ष्य बन आ गई।
जिंदगी की बची कमाई वह खा गई।
उम्र आ गई बुढ़ापे की शौक ना मन में रहा कोई।
कभी मन से एक कपड़ा ना खरीदा अपने लिए।।
मेरी कोई इच्छाएं नहीं थी ना कोई शिकायत थी किसी से।
लेकिन हर किसी की शिकायत रहती थी मुझसे।
हर शिकायत का निवारण मेरे लिए जरूरी था।
मैं हमेशा तड़पता रहा प्रेम की दो लफ्जों के लिए।।
इच्छाएं थी मेरी समाज सेवा और समाजिक परिवर्तन की।
माता-पिता भाई-बहन के सपने पूरे करने की।
लेकिन मेरी इच्छाएं कभी पूरी ना हो सकी गृहस्थ जाल में।
मैंने हर इच्छा समर्पित कर दी बीवी और बच्चों के लिए।।
नहीं था महत्व पैसे का मेरे जीवन में कभी भी।
क्योंकि मुझे मानवता के बीज बोने है अभी भी।
लेकिन बीवी बनकर दीवार खड़ी हो जाती है।
क्योंकि मेरी कमाई बनी है सिर्फ उसके लिए।।
ऐसा क्यों सोचती है पत्नियां स्वार्थी क्यों बन जाती है?
पति की इच्छाओं को क्यों नहीं जान पाती है।
जो साथ देता है हमेशा तुम्हारे सपने सजाने को ।
क्यों लक्ष्य रहता है पति गलत ठहराने के लिए।।