लिखना भी तो,
क्या लिखना है?
कहना भी तो,
क्या कहना है?
खलिश है रहती,
हर पल मन में,
मिल भी ले तो,
क्या कहना है?
खत लिखता हूँ,
लिख लेता हूँ,
और उसे फिर,
मोड़ माडकर,
बक्शे में कहीं,
रख देता हूँ,
कुछ नहीं लिखना,
क्यों लिखता हूँ ?
कुछ नहीं कहना,
क्यों कहता हूँ?
पता नहीं तो,
मिलना क्यों है?
बक्शे में ही रखने हैं तो,
'अशोक' खत लिखता ही क्यों है?
-अशोक कुमार पचौरी
(जिला एवं शहर अलीगढ से)