चला,रुका,
फिर चला,
यह शिलशिला
यूँ ही चला,
न चल सका,
न रुक सका,
ऐसे ही चलता रहा,
कुछ शख्श मिले,
कुछ कह गए,
कुछ ध्यान दिया,
कुछ नहीं दिया,
थोड़ा सा सुना,
और नहीं सुना,
कुछ वक्त मिला,
आराम किया,
कुछ काम किया,
पर कर न सका,
जहाँ जाना था,
वहाँ जा न सका,
जहाँ आना था,
वहाँ आना सका,
कुछ शिकवे गिले,
पर कुछ भी नहीं,
कुछ भूल गया,
कुछ याद रखे,
याद रखे ये अच्छा किया,
याद रखे बस याद रखे,
कुछ कठिनाई,
सामने आयी,
पर कुछ न थी,
सब वहम ही था,
कुछ शब्द मिले,
उन्हें लिख न सका,
कुछ हर्फ़ मिले,
उन्हें पढ़ न सका,
कुछ दुआ मिली,
वो काम आयीं,
काम आयीं कहाँ,
यह पता नहीं,
कुछ गलत किया,
पर कुछ भी नहीं,
हाँ कुछ तो था,
जो पता न चला,
कुछ राह मिलीं,
उन्हें चल न सका,
कुछ आह मिलीं,
उन्हें ले न सका,
कुछ साथी थे,
हाँ बस थे,
वो भी न रहे,
जाने कहाँ गए,
कुछ लम्हे थे,
उन्हें भूल गया,
कुछ यादें थीं,
पर कुछ न थीं,
कुछ तो थीं,
पर याद नहीं,
कुछ बातें थीं,
मुलाकाते थीं,
क्या थीं,क्यों थीं,
थीं भी तो क्यों,
होने का अफ़सोस रहा,
कुछ सिमटा सा हूँ,
कुछ आहत हूँ,
पर कुछ भी नहीं है,
जाने दो,
कुछ तो है,
अंदर अंदर,
क्या है, क्यों है,
कुछ न पता,
इस दुनिया में,
रहने की मुझे,
न वजह पता,
न जगह पता।
-अशोक कुमार पचौरी
(जिला एवं शहर अलीगढ से)