चल चार कदम
हर बार यूँ ही,
डगमगाया लौट आया।
कभी कोशिश नहीं की,
कभी थोड़ा चला,
कभी बीच रस्ते से लौट आया।
ठोकरों का डर कभी,
कभी उनसे गिर जाने का,
हर बार डरा,
और डर के वापस आया।
कभी मंजिल का पता न था,
कभी रास्ते भटक गया,
इसलिए में मुकाम को नहीं पाया।
-अशोक कुमार पचौरी
(जिला एवं शहर अलीगढ से)