है कठिन डगर सुन ले ओ पथिक
चलने से घबरा मत जाना
जाति - पाति के भेदभाव में
फंसकर कहीं तुम न रह जाना
कांटो को तुम पुष्प बनाकर
बढ़ते जाना चलते जाना
कहीं लगे थक गए बहुत हो
तनिक ये भाव न मन में लाना
कहीं दूर है मंजिल ओ राही
पुष्प देखकर मचल न जाना
पुष्प राह के नहीं हैं मंजिल
कांटो को तुम राह बनाना
जब तक थककर चूर न होना
उससे पहले मंजिल पाना
मंजिल क्या है पता तो है ना?
सबको साथ में लेकर चलना
भेद भाव को ताज देना है
राष्ट्र भूमि की बात जो आये
शीश काट कर रख देना है
संघर्ष तुम्हारा समझ तुम्हारी
परिणामो को साझा करना
कहीं लगे की हार हुयी है
खुद को और प्रखर करना है
लगभग लगभग कुछ नहीं होता
जो होता है पूर्ण है होता
मानव जब कुछ प्रण करता है
सबकुछ सहज मुमकिन होता है
इसीलिए यह याद तुम रखना
है कठिन डगर सुन ले ओ पथिक
चलने से घबरा मत जाना
कांटो को तुम पुष्प बनाकर
बढ़ते जाना चलते जाना।
- अशोक कुमार पचौरी
(जिला एवं शहर अलीगढ से)