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कंजर उपन्यास

8 नवम्बर 2023

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उपन्यास।
            कंजर
 
(यह पुस्तक पूरी तरह से काल्पनिक है। इसके पात्र, घटनाएं, नाम सब काल्पनिक हैं। अगर कहीं नाम या घटनाक्रम मिलता है तो ये मात्र संयोग हो सकता है।)
      
                    वर्ष- 2018
       
 
                             ISBN-N. -978-93-5300-767-6
 
पुस्तक का नाम:-       कंजर।       
लेखक:-                  नफे सिंह कादयान।
                          गगनपुर, (अम्बाला) बराड़ा-133201,
                          मो०-9991809577
                          E-mail-nkadhian@gmail.com,
                              kadhian@yahoo.com,
                     F.B.- nafe.singh85@gmail.com,
                     Tw.– NSkadhianwriter@
 
कम्प्यूटर टाईप सैटिंग:- नफे सिंह कादयान।    
टाइटल :-                    ,,    
चित्राकंन:-  ©फ्री वेबसाइटें, नफे सिंह कादयान।    
प्रकाशक :-  कादयान प्रकाशन बराड़ा अम्बाला।
कार्यालय:- कादयान प्रकाशन, रामलीला ग्राऊड बराड़ा, अम्बाला (हरि०)
मुद्रक:-  चीमा प्रिन्टर बराड़ा, अम्बाला।
©कॉपीराइट व सभी कानूनी दायित्व:-  लेखकाधीन।
 
Print Book:-250/ रू.
E-Book- 100/ रू.
Foreign-15 $
 



  कहने को तो देश आजाद हो चुका है मगर मगर दबे, कुचले, शोषित वर्ग आज भी गुलामी में जीवन जी रहे हैं। इस कहानी के पात्र वर्तमान समाज में दबंग शक्तिशाली लोगों द्वारा पैदा की गई समस्याओं से झूझते हुए अपने वजूद को बचाने के लिए संघर्ष करते हैं। दबंगई प्रवृति के साथ अगर प्रशासनिक शक्ति भी खड़ी हो जाए तो समस्या और भी विकराल रूप धारण कर जाती है। ऐसे में कत्लोगारत बड़ता है जिसमें मानवता कराहने लगती है। यह कहानी उन शक्तिशाली लोगों की है जो स्वयंभू पंचायतों के माध्यम से निर्बलों पर अत्याचार करते हैं, स्वयं परस्त्रीगमन, दुराचार, भ्रष्टाचार मे लिप्त रहते हैं मगर दबे, कुचले वर्गो को तथाकथित गुनाहों की सजा देते हैं, फतवे जारी करते हैं। 


 










     ---सल्लो ने अपनी हवेली से दलित बस्ती की तरफ जाने वाली गली में देखा। आवाजे वहीं से आ रही थी। फिर उसके कानों में बहुत से आदमियों के चलने की पदचाप सुनाई देने लगी। उसके दिल की दडक़ने तेज हो गई। उसे लगा जैसे हवेली हिल रही हो। उसने कसकर ग्रीलों के उपर लगी रैलिंग पकड़ ली। वहाँ गली से दो-तीन कुत्ते आकर उनकी चौपाल की तरफ जाने लगे, फिर उसे अपनी हवेली के चारों तरफ से कुत्ते निकलते दिखाई देने लगे। सभी कुत्ते उनकी चौपाल को घेरकर बैठ गए। दलित बस्ती की तरफ से एक बार फिर किसी स्त्री के रूदन की आवाज सुनाई दी, फिर उसे जो दिखाई दिया उसे देख उसकी रूह कांप गई। वहाँ एक स्त्री निर्वस्त्र रोते हुए उनकी चौपाल की तरफ आ रही थी। उसके बाल खुले हुए थे और पूरे शरीर पर जख्मों के निशान थे जिनसे खून बह रहा था। अनेक स्त्रियां झुरमुट सा बना गीत गाते हुए उसके पीछे-पीछे चल रही थी। ‘इसके कपड़े किसने उतारे?’ सोचते हुए सल्लो ने पीछे चल रही औरतों की तरफ देखा तो उसे उनके हाथो में उसके कपड़ों के टुकड़े दिखाई देने लगे। हर औरत उसके फटे कपड़ों के एक-एक चीथड़े को हाथ में पकड़े गीत गाती हुई चल रही थी।
  
         
                       कंजर
                                 
        अप्रेल माह के अन्त तक सुर्य देवता ने अपनी अग्रिशिखाओं को प्रचंड रूप से प्रदिप्त करना शुरू कर दिया। गर्मी से बेहाल हो सभी मानव, पशु, पक्षी परछाइयों की आगोश मे पनाह तलाशने लगे। मेघ देवता अभी बंगाल की खाड़ी में दूर कहीं सोया पड़ा था पर लोग अपने प्यासे नयन चक्षुओं द्वारा अभी से आकाश का चहूँ और से मुआयना करने लगे थे।
   उत्तर भारत के एक मध्यम आबादी वाले गाँव कंजर गढ़ में लोग असाढ़ी की कटाई से फारिग हो चुके थे। चौधरी उमेद सिंह अपनी चौपाल में खड़े नीम की छाया में कुर्सी पर बैठा बीड़ी के शुट्टे लगाते हुए विचारमग्र था पर उपर टहनियों पर विराजमान पक्षी उसके विचारों में विघ्र डाल रहे थे। पास ही उसका बूढ़ा बाप खाट के तकिये पर कमर रख ऑंखें बंद किये अधलेटा सा हुक्का गुडग़ुड़ा रहा था। कौन से खेत मे जीरी लगानी है, किस में गन्ना बीजना है, ज्वार बाजरे के लिए कौन सा किल्ला उपयुक्त रहेगा। उमेद मन ही मन इसी उधेड़बुन में उलझा हुआ था कि तभी कहीं से आकर उसका खासमखास खबरी अमली उसके पावों के पास जमीन पर धम्म से आसन जमा कर बैठ गया।
    ‘राम जी की जय हो, चौधरी साहेब।’ अमली ने बैठते ही एक नारा सा लगाया। उसके मैले-कुचैले कपड़ों में कई खिड़कियां, रोशनदान खुले हुए थे। पैन्ट  नीचे से ऐसे फटी थी जैसे किसी फिल्म निर्देशक ने नायिका की मांसल पिंडलियां दर्शकों को दिखाने के लिए फाड़ी हो। उसके कमीज के खिस्से मे सदा प्यासा रहने वाला स्टील का एक खाली गिलास ठुंसा हुआ था। और उसके मुखमण्डल से चौबीस घन्टे डेरा जमा चुकी शराब की मुस्कंद आ रही थी। राम-राम बोल कर उसका मुख रूपी स्पीकर बिना ये जाने पूरा चालू हो गया की उमेद सिंह उसकी बात पर ध्यान भी दे रहा है या नही।
    ‘ऐसा कौन माई का लाल पैदा हो गया इस गाँव में जो अपां नै अगले साल होने वाले सरपंची के चुनाव में हरा सके। मैं कोई पागल थोड़े ही हूँ जो गलियों की खाक छानता फिरता हूँ। चौधरी साहेब मैने आपके लिए पूरे के पूरे आंकड़े इकट्ठे कर लिए हैं, सारी जातियों की पक्की रिपोर्ट मेरे पास है, आप कॉपी पर पैन रगड़ते चलो, मैं बता रहा हूँ, लगाओ टोटल।’ अमली ने अपने सूख चुके मुख को अंदर से जीभ फिरा कर थूक से तर किया और दोबारा बोलने लगा-  ‘कोलियों की एक सौ बीस वोट हैं, अस्सी वोट हमारे बिल्कुल पक्के हैं, बाकी चालिस में से भी चारा डाल कर खिसकाएंगे। बी. सी. क्लासियों कुम्हार, झींवर, नाई धोबी, जुलाहे, पिन्जों, जोगी, बढ़ईयों की कुल मिला कर बारह सौ चालिस वोट हैं। इसमे भी आधे से अधिक वोट हमारे पक्के हैं। और ये जायेंगे भी कहाँ, पानी को तो पूल के नीचे से होकर ही बहना है, मेरे बेट्यां नै घास तो आपकी मेढ़ो से ही काटनी है। बुरे वक्त रूपया-दैल्ला भी लेना है। वोट तो आपको डालनी ही पड़ेगी। अब चुहड़े, चमार, धानक, कोली, रमदासीये, कबीर पंथियों जैसे दलित समाज का आंकड़ा लगा लो। इनकी गाँव मे सबसे अधिक वोट हैं। पूरी चौबीसो अस्सी वोट इनके पास हैं, यानी बाकी सभी जातियों के आधे से भी ज्यादा, पर मेरी सासू के आपसी फूट की वजह से आज तक एक बार भी जरनल सीट पर सरपंच नही बन सके।’
   अमली ने खुश्क हो चले अपने गले को फिर थूक से तर किया। उसने खंकार कर गले के स्पीकर को साफ करते हुए आशा भरी निगाहों से चौधरी उमेद सिंह की तरफ देखा। फिर अपने खाली गिलास को हाथ से सहलाते हुए उसने भाषण चालु रखा-  ‘दलित समाज के वोट..., अस्सी परसैंट पक्के हमारी झोली मे गिरेंगे। इनकी रग का तो पहले बड़े चौधरी को पता था और आप तो उससे भी चार कदम आगे निकल गए। फूट पाओ और राज करो, ये चाणक्य से भी अच्छी नीति है। मेरे बेट्यां में एकता होती तो अब तक बहन जी प्रधान मंत्री की कुर्सी पर विराजमान हो जाती। आपां के दो कुनबों ने इनको कभी कुएं का पानी नही पीने दिया। मन्दिर की सीढिय़ां नही टपने दी। अपनी खाट पे बैठने नही दिया। मेरे बेट्यां नै कभी घोड़ी पै चढक़े बन्नो नही लाने दी। लट्ठ पेल के अपने खेतां मै बैगार करवाई। साम, दाम, दण्ड, भेद की नीति अपना कर कभी अपने मुकाबले चुनाव में खड़े नही होने दिया। सरकार ने जब भी अनुसुचित जाती की सीट गाँव वालों पे थोपी, तब आपने चाणक्य निती का अनुपालन करते हुए अपने दलित नोकर को सरपंच बनावा दिया और गाँव की प्रधानी अपने पास से खिसकने नही दी। चौधरी साहब, हल्क मा जमाए सुखा पड़ग्या.....थोड़ी सी मिल जाती तो, तर...।’ अमली खिस्से में से गिलास निकालते हुए भाषण रोक उमेद की खुशामद करता बोला।    
  अमली के दिमाग पर कब्जा करने वाले नशे के कीड़ों से अब ब्रदास्त नही हो रहा था। जीभ प्यास से ऐंठी जा रही थी। उसका दिल कर रहा था कि दुनिया का सबसे कड़वा जहर पी लिया जाए तो प्यास शांत हो। नशे के कीड़ो ने जब शिकंजा पूरा टाइट किया तो उसका मन रोने गिड़गिड़ाने लगा।
          बे-गैरत, गलीज सही साकिया अब अपना मुझको,         
           मय प्याला बक्स दे या डाल कफन सुला मुझको।
  वह जानता था चौधरी उसका गला तर करने के लिए कुर्सी से हिलेगा भी नही। ‘अब क्या होगा?’ सोचते हुए उसके शरीर में कंपकंपी और ऐंठन होने लगी। तभी उसे गहन अंधकार में आशा की एक किरण दिखाई दी। चौधरी का छोटा भाई कबरी अपनी बुलेट मोटर साईकिल पर पटाके बजाता हुआ आवारागर्दी कर कहीं से घर आया तो वह उमेद को देख चौपाल से कुछ दूरी पर ही रूक गया। उसे पता था ढांट पडऩे वाली है पर करे तो क्या करे। घर, चौपाल बिल्कुल आमने सामने। कहीं से बच कर नही जाया जा सकता, फिर भी उसने एक तरकीब आजमाने का निश्चय कर लिया। उसने देखा की भाई का दूसरी तरफ मुँह है तो वह आसानी से निकल सकता है। उसने बुलेट का इंजन बंद किया और दबे पांव उसको पैदल खींच कर घर की तरफ चल दिया। वह निकल भी जाता मगर अमली के तो लाल परी के अभाव से पेट में ऐंठे उठ रहे थे। जैसे ही कबरी चौपाल का गेट पास करने लगा अमली तपाक से बोला- ‘बेटे कबरेज, टायर में कील ठूंस गई कै?’
   ‘ओये साले, नशेड़ी कुत्ते.... पिटवाएगा क्या?’ कबरी के मन ने विद्रोह करते हुए अमली को दो-तीन करारी गालियां सुनाई मगर प्रत्यक्ष में वह खी-खी कर हॅंसते हुए उमेद की तरफ इशारा कर अंगुली अपने मुँह पर रख उसे चुप रहने का संकेत करने लगा पर देर हो चुकी थी। उमेद का सिर अमली के बोलते ही गेट की तरफ नब्बे डिग्री पर घूम गया।
    ‘ओये कबरेज के बच्चे, यहाँ आ तू।’ उमेद उसकी तरफ कुर्सी घुमाता हुआ दोबारा गुस्से से बोला- ‘साले दिन भर आवारागर्दी करता रहता है। ऐसी कोई क्लास नही गुजरी जिसमे साहबजादा तीन-चार पेपरों मे स्प्लियां न लाया हो। हरामखोर, तेरे से तो ये भी नही होता की किसी अच्छे सहपाठी की नकल मार कर पास हो जाये, नकल के लिए भी अक्ल चाहिए।’
   ‘प्लस टू तक बिना पढ़ाई के ही पास हो गया हूँ क्या? अब कॉलेज में एक-दो पेपर में तो सभी की कंपार्टमेंट आ जाती है। मेरे अकेले की आई है क्या? कम से कम आठ-दस लडक़े, लड़कियों की आई हुई है। आप तो बस मेरे छोटे होने के कारण रोब जमाते रहते हो।’ कबरी दबी जुबान में विद्रोह का बिगुल बजाता उमेद से बोला।  
  ‘साले जुबान लड़ता है मेरे आगे। जिन की कंपार्टमेंट आती है वे तेरे ही जैसे लुच्चे-लफंगे हैं। जिस दिन कमर पर चार-पांच डण्डे, खलवे पड़ गए सारी मस्ती भूल जायेगा। चल मोटर साईकिल साइड में लगा कर इस अमली का गिलास भर दे। और तू...’ उमेद अमली के सर पर हाथ से हल्का सा थप्पड़ जमाता हुआ फिर बोला- ‘कल शाम तक मुझे बच्चितर पट्टी की पूरी बाड़चाल लाकर दे। देख वे अब के किस सूरमें को मेरे   मुकाबले सरपंची मे खड़े करने के प्लान बना रहे हैं।’
    ‘हो जाएगा प्रधान जी.....बस यूं समझो रिर्पोट अपके पास पहुंच गई। मेरे बेट्यां के पेट मा घुस के आपके मतलब की बात निकाल कर लाऊंगा।’ अमली उमेद के चरणों में बिछता हुआ सा बोला। अब उसकी जान में जान आ गई थी।
    ‘गिलास रहने दे, ले हाथ की ओक बना ले ताऊ।’ कबरी अलमारी में से रैड वाईन की बोतल निकाल कर उसका ढक्कन खोलते हुए अमली से बोला।     
   ‘रै क्यूं मजाक करै सै छोरे, गिलास भर दे मेरा, शाम तक का कोटा पूरा हो जागा।’ अमली उतावला होता हुआ बोला।
    ‘गिलास ले रहा है या यह बाल्टी है, आधी बोतल से उपर आ गई,
 तेरे गिलास में।’ अभी कबरी की बात खत्म भी नही हुई, अमली बिन पानी डाले एक घूट में सारी शराब गुड़प कर गया।
   ‘मेरे अच्छे बेटे, मेरे चाँद, ए... बस इतनी सी लालपरी और डाल दे, करंट पूरा नी बना अभी।’ अमली अपनी अंगुली के पोर पर अंगुठा रख कर गिलास आगे करता हुआ कबरी से बोला।
   ‘ओये! ज्यादा स्याणा मत बन, बहुत हो गया। आवाज लगाऊं क्या भाई को?’
‘लगा अवाज मेरे बेटे, कॉलेज से भाग कर मोटर साईकिल पर सैंसियों की लडक़ी को कहाँ-कहाँ घुमाता फिरता है? कहाँ गुलछर्रे उड़ाता है.... तू जरूर चौधरी को सरपंची मे हरवाएगा, ले अभी तेरी कमर पर कामड़ा बजवाता हूँ। तू क्या मैं ही आवाज लगाता हूँ...चौधरी .साहेब।’
   ‘ओये ताऊ, ले पूरी बोतल डकार ले।’ कबरी ने उसके मुँह पर हाथ रख दिया और बोतल उसके हाथ में पकड़ा दी। अमली उसे भी गिलास में डाल कर गटक गया।
  इधर अमली झूमता हुआ चौपाल से नीचे उतरा उधर उमेद के नोकर जग्गी ने चौपाल की बगल में बने शैड से खेतो में बुवाई करने के लिए ट्रैक्टर निकाल लिया। उसने ट्रैक्टर के पीछे टिलर लगाए हुए थे जिन पर खात, बीज के कट्टे और एक लम्बा रस्सा रखा था।
  जैसे ही जग्गी ने शैड की तराई से नीचे गली की तरफ ट्रैक्टर मोड़ा अचानक अमली उसके आगे आ गया। तराई में होने के कारण जब ट्रैक्टर ब्रेकों से भी नही रूका तो नोकर ने अमली को बचाने के लिए उसकी लिफ्ट नीचे छोड़ दी जिससे टिलर धम्म से जमीन को फाडऩे लगे। गली की पक्की ईंटों में टिलर फंसने से ट्रैक्टर रूक गया। अमली टायर के नीचे आने से बाल-बाल बचा।
  टिलरों के कड़-कड़ाने की आवाज सुन कर उमेद कुर्सी से उठ बिन बादल बरसात की तरह नोकर पर बरस पड़ा- ‘ओये हरामजादे...  ओ कमीणे.....टिलर का एक फाल भी टूट गया तो पूरे महीने की तनखा पर कलम फेर दूंगा। मेरी सास्सू के, देख कर काम नही कर सकता क्या? कभी कस्सी का बिन्डा तोड़ देता है, कभी रस्से तोड़ लाता है।’
  ‘चौधरी साहेब, ये अमली मर जाता तो मुझे फॉंसी लग जानी थी। और मुझे पता है कि गवाही भी आप इसी की तरफ की देते क्योंकि हम दलित हैं और ये आपकी ही जाति का है।’ जग्गी मुँह बिचका कर  बोला।
   ‘ज्यादा बकवास मत कर..... खेत में जाकर टिल्ले वाले छ: किल्ले, झाण्डी वाले चार किल्ले दौसरे कर दे। पहले एक पाड़ हैरों से देना फिर टिलर चलाना और सुहागा ठीक प्रकार से लगाना, तू फांट बहुत छोड़ता है। टयुवैल का ख्याल रखना, जैसे ही बिजली आए बटन दबा देना, ऑटोमैटिक सड़ गया है, ईख बिन पानी मुरझा रहा है। सारी बिजली पता नही कहाँ बेच रहे हैं हरामजादे, हमारे हिस्से में चौबिस घंटे में मुश्किल से चार-पांच घंटे ही आती है, किसी मंत्री का दौरा हो तो बिजली फुल, और उसके जाते ही गुल।’
   नोकर पर हेकड़ी जमा उमेद सिंह दूसरी बीड़ी सुलगा कर अभी कुर्सी पर आराम से बैठा ही था कि उसका बूढ़ा बाप आंखे खोल कर हुक्का गुडग़ुड़ाता हुआ उसे उॅंच-नीच की बातें समझाने लगा-  ‘ओ छोरे, तन्ने ये कमीण कुछ ज्यादा ही मुँह लगा रखे हैं। ये बैणी यवे छित्तर खाकर सीदे होते हैं। हमारे बड़े बुजुर्ग कहते आए हैं, ढोर, गंवार, शुद्र, पशु, नारी, इनको छित्तर मारो चारी, नही तो ये सिर पर चढ़ जाते हैं। मेरी चौधर में अढ़ै ते बारह कोस तक कोई माई का लाल खंग न सका, और न ही किसी ने चूं की। तू आजकल बड़ा चौधरी बना फिरता है....., हरामखोर...  कमीणों की खाट पर बैठ उनकी झूठी थालियां चाटता है, दारू और मूत के कुज्जे में तूने चार किल्ले खो दिए...
         घर की खांड किरकरी लागै, चोरी का गुड़ मिठा,
         बणी बणाई सारी बिगड़ज्या, खुल जा सारा चिटठा।
  भले ही हम कितने बड़े लाटि मुरब्बेदार हों, इन बद फेलियां में तो भरे हुए कुएं भी रित जाया करैं सै।’
   ‘बस...बहुत खरी कर ली, जहाँ बैठा है वहीं बैठा रह बुढ्ढे। कभी बाप दादों ने ढंग की रोटी खा कर भी देखी है क्या? उमेद अपने बाप के नहले पर दहला मारता हुआ बोला-
               कबर के मा पैर लटक रहे अब चलता न जोर,
               सारी उमर गुजार दी, बस रहे ढोर के ढोर।।
  हप्ते बाद तो तुम जोहड़ में बैंसों के साथ डुबकी लगाते थे। पैर में टूटी हुई जुत्ती, कपड़ों मे जूआं किर्तन किया करती थी। मंडलियां चौपालों में एकत्र हुई, हुक्के गाल बजाए, किसी का रिस्ता कर दिया, किसी का बिगाड़ दिया। ये ही काम होता था तुम्हारा। मैं दो बार इस गाँव का सरपंच रहा हूँ और अबकी बार भी सरपंची पक्की ही समझ। मंत्री हो या संतरी जब भी गाँव में आते हैं सबसे पहले मेरे कारण इसी चौपाल में माथा टेकते हैं। मैने अपनी पंजा पार्टी मे बहुत पैंठ बना ली है। चार किल्ले ही बिके हैं, अगर टिकट मिल गया तो जीत कर पांच साल में ही चालिस और खरीद लूंगा। मुझे कोई माई का लाल नही हरा सकता। जनता की नब्ज में अच्छी प्रकार जान गया हूँ, और अब भी कौनसा हमारे पास जमीन की कमी है। पैसठ किल्ले गाँव मे, सौ किल्ले का यमुना नदी पर पहाड़ी फार्म।’ उमेद ने अपने बाप को पूरा लेक्चर पिला दिया। बोलते-बोलते जब उसकी नजर सामने वाली गली के अंतिम छोर पर गई तो वहाँ का नजारा देख वह खड़ा हो जोर-जोर से चींखने लगा।
   ‘ओ हरामजादे, ओ कमीण, ठहर तूझे अभी सबक सिखाता हूँ।’ उमेद ने कुर्सी से उठकर उंची आवाज में जोर से चिल्लाते हुए अपने नोकर जग्गी को आवाज लगाई जो चौपाल के आगे से खेतों की तरफ जाने वाली गली में पडऩे वाले अपने घर के आगे ट्रैक्टर रोक कर अपनी पत्नी को पीटने लगा था। वह उठकर उसकी पत्नी को छुड़ाने के लिए उसके घर की तरफ भागा।
   जग्गी की पत्नी चन्नो इतनी सुंदर व सुंगठित काया की थी कि अगर उसे ढंग के वस्त्र पहना दिए जाएं तो अप्सराएं भी इर्शा करने लगें मगर वह अपने माहौल के हिसाब से हप्ते में एक बार ही नहाती थी और कपड़े भी उसी रोज बदलती थी। गुस्सा उसके चेहरे पर सदा के लिए डेरा डाल चुका था। वह हर समय पड़ोसियों से भिडऩे के बहाने खोजती रहती थी। आज भी पड़ोस का कोई बच्चा उसके गेट के आगे बैठकर गन्ना चूस गया था जिसके छिलके यहाँ-वहाँ बिखरे पड़े थे। जैसे ही वह घर से बाहर निकली गन्ने के छिलके देख कर उसका पारा हाई हो गया। फोरन पड़ोसियों से लडऩे के लिए उसकी जीभ में खुजली शुरू हो गई- ‘ऐ रण्डियों.... ऐ लुच्चियो.... बाहर निकलो किस बूतनी के जमाई ने हमारे गेट के आगे कुरड़ी लगाई है।’ वह जोर-जोर से चींख-चींख कर गालियां देती हुई पड़ोसनों को ललकारने लगी।
   एक ही सांस में जब चन्नो दर्जन भर गालियां दे गई तो पड़ोसने भी बाहर आकर उसे गालियां बकने लगी। झगड़ा सुन चन्नो की देवरानियां, जेठानियां भी निकल आई। वैसे तो वे आपस में ही जूत-पेंतरम करती रहती थी पर जब बात मोहल्ले वालों की हो तो वो आते ही चन्नो का पक्ष ले पड़ोसनों को गालियां देने लगी। देखते ही देखते वहाँ मोहल्ले में वर्डवार हो गया। उसके घर के पास वाले मकान की पड़ोसन प्रेमवती भी कुछ कम नही थी। वह ग्रेजूएट थी और हिंग्लिस मिक्चर गालियां देने के फन मे बहुत माहिर थी। अपने घर से बाहर कदम रखते ही वह चन्नों को लक्ष पर ले चिल्लाने लगी-
 ऐ साली सैवन टी खसमी बिच्च.... यू...नो..स्कूल से आते ही गन्ना तेरा यार टिन्कु चूस रहा था। दूसरों के चिलड्रनो को बदनाम करती है। यू वाईट पिगी, हर रात पूरी गैंग अटैंड करती है फिर भी खुजली नही मिटती। अपने हसबैंड को भेजू क्या आज रात तेरी रगड़ाई करने?’
   वहाँ औरतों में गालियों का कम्पिटिशन हाने लगा। गालियां भी इतनी गन्दी की वहाँ तमाशबीन खड़े मर्दों को भी शर्म आने लगी। कौन सी पड़ोसन किस के साथ फंसी है। किस की लडक़ी कुआंरी मां बन कर चोरी से ऑब्रेशन करवा आई है। अन्न की कमी से किस के कनस्तर मे चूहे कलबाजियां करते हैं। कौन कर्ज में डूबा है। कौनसी ओरतें दाल-सब्जी मांग कर ले जाती हैं। वे एक-दूसरे के झूठे-सच्चे पर्देफाश करने लगी, तभी उस गली से चन्नो का पति ट्रैक्टर लेकर गुजरने लगा। चन्नों को लड़ते देख उसने ट्रैक्टर रोक कर कल्च के पास रखा कस्सी का वह नया बिन्डा निकाल लिया जिसे चौधरी के टयूबैल पर जाकर कस्सी में डालना था। चौपाल में उमेद ने उसकी पूरी खिचाई की थी इसलिए उसका दिमागी पारा अपने उच्च बिंदू पर था। अन्य अधिकतर ग्रामिणों की तरह ब्लैड प्रैशर लौ करने के लिए उसे भी अपनी पत्नी ही रास आती थी। वह इस सुनहरे मौके को हाथ से नही जाने देना चाहता था।
    बॉस नोकर को धमकाए, नोकर बीवी को हडक़ाए, बीवी बच्चों को लताड़े, बच्चे बैचारे खिलोने फाड़े, ऐसी है जग की रीत। हर कोई कमजोर का ही शोषण करता है। जग्गी ने आव देखा न ताव ट्रैक्टर से उतरते ही चार-पांच बिन्डे चन्नो की कमर पे जमा दिए।   
    ‘हाय., टिन्कु के पापा मर गई।’ चन्नो दर्द से कराहते हुए वहीं जमीन पर गिर कर लोटपोट होने लगी तो सभी पड़ोसने अपने अपने घर के अंदर चली गई। उधर झगड़े की आवाज सुन चौपाल से उठकर उमेद चन्नो को छुड़ाने के लिए जग्गी को गालियां देता हुआ उसकी तरफ तेजी ‘से भागा आया। उसे आता देख जग्गी  ट्रैक्टर पर बैठ वहाँ से नौ दो ग्यारह हो गया। वह जानता था कि अगर चौधरी वहाँ आ गया तो दो-चार थप्पड़ उसे जरूर रशीद करेगा।      
   ‘अभी थाने में अपने मित्र एस. एच. ओ. मंगल सिंह को फोन करता हूँ। हरामजादे को जीप में डाल कर ले जाएगा। जब वहाँ कंबल पर लिटवा कर छित्तर परेड करवाऊॅंगा तो सारी हेकड़ी निकल जाएगी इसकी, फिर पीटना तो दूर की बात है दौबारा तूझे कभी गाली भी नही देगा।’ उमेद यह कहता हुआ चन्नो को हाथ से सहारा देकर उठाते हुए उसके घर के अंदर ले गया।
   ‘ना, ना चौधरी साहेब, कहते हैं थाने वाले आदमी को इतना मारते हैं की वह जिंदगी भर काम नही कर सकता। टिन्कु के पापे को कभी कभार ही गुस्सा आता है, वैसे तो वह मुझको बहुत प्यार करता है। सुना है कभी-कभी आप भी तो शराब पीकर चौधरण को एक दो थप्पड़ लगा देते हो।’ चन्नो रोते-रोते चुप हो बोली।
  ‘वो साली भैसड़, गुब्बारे की तरह फूलती जा रही है, अक्ल उसमें है नही, तुम तो मेरी गुलबदन जाने बहार हो।’ उमेद उसको आलिंगन करता हुआ मस्ती में आकर बोला।
   ‘बस रहने दो, तुम सब मर्द एक जैसे होते हो। मतलब हो तो चिकनी चुपड़ी बातें करते हो, फिर मुँह फेर लेते हो।’
  ‘अरे ऐसा कुछ नही है डार्लिंग, लो ये महात्मा गांधी वाला पांच सौ का पत्ता दवा दारू कर लेना। रात को मैं हमेशा की तरह जग्गी को पानी लगाने के बहाने खेत में टयूबैल के कमरे मे सुला दूंगा, तुम मुर्गा बना कर तैयार रखना। रात को देखुंगा उस हरामी ने तेरे जिस्म पर कहाँ-कहाँ जख्म दिए हैं।’ उमेद ने उसे दोबारा बाहों मे कसा और एक जोरदार किस्स करता हुआ बाहर निकल गया।

                                                                              *****

 
 

   बाप की चौधराहट खत्म हुई तो उसका स्थान बड़े भाई ने ग्रहण कर लिया। भाई उमेद सिंह की सरदारी में उसकी बहन सल्लो को इतनी आजादी तो मिल ही गई थी कि वह रात को अपनी हवेली की छत पर टहल सके, वरना तो चौधरियों के घरों की स्त्रीयों को सांस लेने की इजाजत भी घर के मुखिया से लेनी पड़ती थी। उमेद की दो मंजिली हवेली गाँव में सबसे ऊंचाई पर थी। उसकी सीढिय़ों पर गोल जिन्ना बनाया गया था जो तीसरी मंजिल जितनी ऊंचाई तक बना था। उपर गोलाई में रेलिंग लगाई गई थी जिस पर हाथ रख सल्लो आज चॉंद की तरफ देखते हुए पुनम की रात का अवलोकन कर आन्नदित हो रही थी।
   गौर वर्ण, छरछरी लम्बी काया पर इस समय उसने अपनी मन पसंद का काला सूट-सलवार पहना हुआ था। उसके पल्लों पर सुनहरे रंग की सुंदर कढ़ाई की…
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पाठकगण के लिए निवेदन पत्र।

 प्रिय पाठक,
        नमस्कार।
     आशा है आप कुशल मंगल से होंगे। प्रियवर किसी भी लेखक की कहानी, उपन्यास, निबंध के रुप में जो मौलिक रचना पढ़ने के लिए आप के हाथ में होती है उसे लिखने में कई बार वर्षों लग जाते हैं। उसके बाद उसे प्रकाशित करवाने में कॉपी संख्या के हिसाब से न्यूनतम बीस, पच्चीस हजार लगते हैं। अब ई-बुक प्रकाशित करवाने का भी पाँच-छ हजार रेट निकाला हुआ है। ये पत्र इसलिए लिख रहा हूँ कृपया पुस्तक खरीद कर पढ़े। अगर लेखक के अपनी पुस्तक पर खर्चे पैसे पूरे भी हो जाते हैं तो वह आपको उत्तसाह के साथ और भी अच्छी रचनाएँ पढ़ने को देगा।
   अगर आप पुस्तक ई-बुक के रुप में पढ़ रहें हैं तो कृपया कम से कम 100रु. लेखक को अनुदान समझ अवश्य भेजें।
                                                                                                           Nafe Singh kadian  

 

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मीनू द्विवेदी वैदेही

मीनू द्विवेदी वैदेही

कहानी का चित्रण बहुत सजीव और सुंदर किया है आपने 👌 आप मुझे फालो करके मेरी कहानी पर अपनी समीक्षा जरूर दें 🙏

9 नवम्बर 2023

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रचनाएँ
कंजर उपन्यास
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उपन्यास। कंजर   (यह पुस्तक पूरी तरह से काल्पनिक है। इसके पात्र, घटनाएं, नाम सब काल्पनिक हैं। अगर कहीं नाम या घटनाक्रम मिलता है तो ये मात्र संयोग हो सकता है।) वर्ष- 2018                   ISBN-N. -978-93-5300-767-6   पुस्तक का नाम:- कंजर। लेखक:- नफे सिंह कादयान। गगनपुर, (अम्बाला) बराड़ा-133201, मो०-9991809577 E-mail-nkadhian@gmail.com, kadhian@yahoo.com, F.B.- nafe.singh85@gmail.com, Tw.– NSkadhianwriter@   कम्प्यूटर टाईप सैटिंग, टाईटल:- नफे सिंह कादयान। ,, प्रकाशक :- कादयान प्रकाशन बराड़ा अम्बाला। कार्यालय:- कादयान प्रकाशन, रामलीला ग्राऊड बराड़ा, अम्बाला (हरि०) मुद्रक:- चीमा प्रिन्टर, फोटो स्टेट बराड़ा, अम्बाला। ©कॉपीराइट व सभी कानूनी दायित्व:- लेखकाधीन।   Print Book:-250/ रू. E-Book- 50/ रू. Foreign-15 $   कहने को तो देश आजाद हो चुका है मगर मगर दबे, कुचले, शोषित वर्ग आज भी गुलामी में जीवन जी रहे हैं। इस कहानी के पात्र वर्तमान समाज में दबंग शक्तिशाली लोगों द्वारा पैदा की गई समस्याओं से झूझते हुए अपने वजूद को बचाने के लिए संघर्ष करते हैं। दबंगई प्रवृति के साथ अगर प्रशासनिक शक्ति भी खड़ी हो जाए तो समस्या विकराल रूप धारण कर जाती है। ऐसे में कत्लोगारत बड़ता है जिसमें मानवता कराहने लगती है। यह कहानी उन शक्तिशाली लोगों की है जो स्वयंभू पंचायतों के माध्यम से निर्बलों पर अत्याचार करते हैं, स्वयं परस्त्रीगमन, दुराचार, भ्रष्टाचार मे लिप्त रहते हैं मगर दबे, कुचले वर्गो को तथाकथित गुनाहों की सजा देते हैं, फतवे जारी करते हैं

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