कोई मुझे मेरे बाबू जी के घर छोड़ दो
जो घर मेरी मां के लिए बनाया था
जिसमें हम भाई-बहन ने छोटा सा सपना सजाया था।
उस घर की बुनियाद से हमें जोड़ दो
कोई मुझे मेरे बाबूजी के घर छोड़ दो।
उस घर की दीवारों पर
बाबू जी की यादें बसी है
उसी के आंगन में हमारी किलकारी मा की ममता छुपी है।
मैं क्यों ना राऊ आज
मेरे पिता का अभी कर्ज बाकि है
जो मुसीबत मेे छोड़ जाएं वो कैसे साथी है।
जिस पिता के कंधे छूल गए जिस के हाथ में छाले पड़ गए।
जो भूखा सोया अकेला रोया
जिस पे एक कुर्ता वहीं पहना वहीं धोया।
जिस के घर से पानी टपकता था
जिस ने खुद को बेचा बोझ ठोया
वो पिता मेरे घर छोड़ने पर बहुत रोया।
जिस मा ने पोचा लगा लगा कर
पैसा इकट्ठा किया
कुछ बच्चो को दिया कुछ घर मेे लगा दिया।
खुद का श्रंगार छुट गया है
एक कंगन वो भी टूट गया है।
इन रिश्तों की डोर से मुझे जोड़ दो
कोई मुझे मेरे बाबूजी के घर छोड़ दो।
जो आज है मेरे सपने
वो कभी थे बाबू जी के अपने
सब कर्ज में डूब गए
वो भी बिक गए
जो खेत थे कभी अपने।
आज ना जाने क्यों बाबू जी की
वो मिट्टी याद आती है
जिस मेे हल चलाते थे वो बात रुलाती हैं।
ना जाने क्यों उन की बाते सताती है
क्यों आज बार बार बाबूजी की याद आती है।
जो बाबू जी मेरे सर पर हाथ रखते थे
जो मेरी गलती को माफ़ कर देते थे
जिन के सोक बहुत थे
वे सब को दबाकर रखते थे।
वो रास्ता जिस ले बाबूजी चला करते थे
वो रास्ता जिस पे बचपन मेे लिखा करते थे।
वो रास्ता जो यादा से भरा हुआ है
वो रास्ता जिस पे मेरा गांव बसा हुआ है।
कोई मुझे उस रास्ते पे छोड़ दो
कोई मुझे मेरे बाबू जी के घर छोड़ दो।
*सरफिरा लेखक सनातनी*
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