समाज के दो नागरिक - स्त्री और पुरुष जिन्हें हमेशा से अलग - अलग समझा जाता रहा है । अलग-अलग से मेरा तात्पर्य है कि एक को श्रेष्ठतर और दूसरे को कमतर।
हालांकि अब कई दस्तावेजों में स्त्री और पुरुषों की समानता पर ध्यान दिया गया है किन्तु इस बात से भी हम नहीं नकार सकते कि किसी चीज को कागज पर उतारने में और असल जिंदगी में उतारने में जमीन-आसमान का फर्क है ।
समाज की पूर्वधारणाएँ इतनी आसानी से खत्म कहाँ होती हैं??
एक लघुकथा आपको बताती हूँ जो आपको इस बात का अंदाजा लगाने में समर्थ करेगी-
एक बार एक ऋषि गौतम बुद्ध पर उपदेश दे रहे थे, तभी उनके एक शिष्य ने उनसे प्रश्न किया कि गुरुवर! हमेशा पुरुष ही गौतम बुद्ध क्यों बनता है?? क्या कोई स्त्री गौतम बुद्ध नहीं बन सकती??? उसके लिए हमेशा सीता- सावित्री को ही क्यों आदर्श बताया जाता है??
अपने शिष्य का प्रश्न सुनकर ऋषि फीका सा मुस्कुरा दिये और बोले- पुत्र! स्त्री के लिए ये आसान नहीं है । राजकुमार सिद्धार्थ अपने पूरे परिवार को छोडकर ज्ञान की तलाश में निकल गए थे । अगर कोई स्त्री ऐसा करती है,तो लोग कहेंगे कि वो अपने किसी प्रेमी के साथ भाग गई होगी। एक बार भी किसी के मन में यह खयाल नहीं आएगा कि शायद उसे खुद की अथवा ज्ञान की तलाश रही हो!
सत्य की खोज के बाद जब राजकुमार सिद्धार्थ वापस आए,तो उन्हें महात्मा बुद्ध की उपाधि दी गई । वहीं उनके स्थान पर अगर कोई स्त्री होती,तो उसे बदचलन, कुल्टा,चरित्रहीन और न जाने क्या क्या कहा जाता। उसे समाज से बहिष्कृत कर दिया जाता।
यह वो समाज है जहाँ कोई पुरुष स्वयं से मर्यादा पुरुषोत्तम राम बनने की उम्मीद नहीं रखता किन्तु पत्नी सबको सीता जैसी चाहिए।
समाज की रूढियों के खिलाफ स्त्रियों को स्वयं लड़ना पडता है । प्राचीन काल में मीरा,लक्ष्मीबाई और सावित्री फुले , आधुनिक युग में सन्तोष यादव और मैरी कॉम और भी न जाने कितने उदाहरण हैं जहाँ स्त्रियों ने इन रूढियों को तोडकर अपने हुनर से मिसालें पेश की हैं ।
मगर हमें यह भी समझना होगा कि इन धारणाओं के लिए केवल पुरुष समाज जिम्मेदार नहीं है बल्कि स्त्रियाँ भी उतनी ही जिम्मेदार हैं या फिर ये कहें स्त्रियाँ और भी ज्यादा जिम्मेदार हैं क्योंकि जब कोई स्त्री इन बंधनों को तोडकर आगे बढ़ने लगती है,तो उसके खिलाफ बात करने वालों में स्त्रियाँ ही सर्वाधिक होती हैं । तब उसे अपने संस्कारों, सीमाओं और उसके स्त्री होने का हवाला दिया जाता है ।
पुराने जमाने की स्त्रियाँ आज भी अपनी बहू- बेटियों को रोकती- टोकती हैं । पिछड़े क्षेत्रों की स्त्रियाँ आज भी इन गलतफहमियों में जी रही हैं ।
सुधार की आवश्यकता सिर्फ पुरुष समाज में नहीं है बल्कि स्त्री समाज में भी है । जब दोनों समाज एक साथ सुधार करेंगे,तभी वो एक साथ आगे बढ सकते हैं । और इसके जिसकी आवश्क्यता है वो है- जागरुकता।
जागरुकता फैलाकर ही इन सब समस्याओं से निजात पाया जा सकता है ।