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मेला आन ठेला

9 नवम्बर 2019

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मेला ऑन ठेला ,(व्यंग्य)


"सारी बीच नारी है ,या नारी बीच सारी

सारी की ही नारी है,या नारी ही की सारी"


जी नहीं ये किसी अलंकार को पता लगाने की दुविधा नहीं है ,बल्कि ये नजीर और नजरनवाज नजारा फिलहाल लिटरेरी मेले का है ।मेले में ठेला है ,ये ठेले पर मेला है ।बकौल शायर

"नजर नवाज नजारा ना बदल जाये कहीं,

जरा सी बात है ,मुँह से ना निकल जाए कहीं "।

एक बहुत मशहूर ललित निबंध है "ठेले पर हिमालय" जिसमें लेखक ठेले पर लदी हुई बर्फ देखकर खुद को तसल्ली देता है कि उसने हिमालय की बर्फ का दीदार करने के बाद खुद पर हिमालय में होना महसूस किया था।ठीक वैसे ही कल जब ठेले पर चाय पीने गया तो एक वीर रस के कवि मिल गए वो वीर रस की कविता सुना रहे थे ।उनकी कविता सुनकर मुझे हाल ही में हुए एक साहित्यिक मेले की याद आ गयी जहाँ लोगों को राजनीति से धकियाये एक स्टार कवि की कविता सुनने को मिल रही थी ,मगर खड़े ही खड़े,।अगर कोई कुर्सी पर बैठना चाहता है तो उसे कॉफी का आर्डर देना पड़ेगा ।जो काफी का आर्डर दिए बिना कविता सुन रहा था ,उसे लोग ऐसी नजरों से देख रहे थे जैसे बिना बुलाया बाराती शादी में सबसे आगे आकर खाना खा रहा हो और सबसे स्टाइल में फोटो भी खिंचवा रहा हो ।वैसे ये लिटरेरी मेले भी बड़े जबरदस्त किस्म के होते हैं जिनकी तुलना हिंदुस्तान की शादियों के मुहावरों से की जा सकती है कि

" जो शादी के लड्डू खाये वो भी पछताए और जो लड्डू ना खाए वो भी पछताए"।

बड़े बुजुर्ग कह गए हैं कि लड्डू खाकर ही पछताना चाहिए ,क्योंकि "कंगाल से जंजाल भला"।अगर कोई किसी सरकारी विभाग की खरीद फरोख्त से जुड़ा लेखक नहीं है उसके मेले में दुबारा बुलाये जाने की प्रायिकता ना के बराबर होती है ,और यदि कोई किसी कालेज के हिंदी विभाग का विभागाध्यक्ष है,या लाइब्रेरी से जुड़ा साहित्यकार है तो उसके उस मेले में और तकरीबन हर मेले में बुलाये जाने की संभावना सापेक्षतावाद के सिद्धांत की तरह स्थायी है ।ये जिन चैंनलों से प्रायोजित होते हैं ,वहां साल दर साल असहिष्णुता की बहसें चलती रहती हैं ,लेकिन इन मंचों पर एडिट करने की सुविधा ना होने के कारण यदि कोई पलट कर प्रस्तोता से सवाल कर ले तो फिर प्रस्तोता तुरंत और स्थ्ययी रूप से असहिष्णु हो जाती हैं।पिछले साल जावेद अख्तर ने ऐसे ही प्रस्तोता से उसी के मंच पर प्रस्तोता को असहिष्णु होने का ताना दिया तो वो बिलबला उठीं ।जावेद अख्तर दूरदर्शी आदमी थे ,लगे हाथ पूछ भी लिये थे कि "अगले साल हमको बुलाओगी या नहीं "।

अब लोगों को ये कहाँ पता था असहिष्णुता के झंडा बरदार जावेद अख्तर के साथ खुद अगले साल असहिष्णुता हो जायेगी और मेले से पत्ता गुल हो जायेगा।अब वजह जो भी हो दिल्ली की सर्दी में डॉ ऑर्थो तेल की असफलता या प्रस्तोता से पलट कर सवाल पूछने की असहिष्णुता रही हो इस बार जावेद अख्तर इस मेले से बाहर रहे और उनकी जगह शायरी में चौके छक्के वाले हजरात तशरीफ़ लाये लेकिन वक्त ने उनको हिट विकट कर रखा है सो तेवर नदारद ही रहे।इन मेलों की सबसे अनूठी बात ये है कि ये होते तो साहित्यकारों के नाम पर हैं मगर सिनेमा वाले इसमें खूब बुलाये जाते हैं ।मंच पर एक घण्टे का साहित्यकार का सेशन होता है जिसमें शुरू के दस मिनट तो साहित्यकार की महानता बताने में निकल जाते हैं ,और जब चर्चा परवान चढ़ती है तो प्रस्तोता एक घंटे की परिचर्चा को आधे घण्टे में निपटा देता है ।क्योंकि 15 मिनट के रेडियो जॉकी के शो को एक घंटे का एक्सटेंशन जो देना होता है ।जब हिंदी साहित्य के गम्भीर साहित्य की चर्चा के घण्टों को काटकर पुरुष प्रस्तोता अपनी महिला रेडियो जॉकी फ्रेंड की सुंदरता के ड्रेस सेंस,रूप लावण्य और अपने कॉफी के अनुभवों को साहित्य प्रेमियों के समक्ष रसास्वादन करता है तो साहित्य और कलाएं जमीन पर लोटती नजर आती हैं।

कॉफी, वेफर्स के ठेलों के बीच लगे इन मेलों के बहिष्कार के भी चर्चे खूब होते हैं ।पहले तो लोग हँस हँस कर गर्व से इन मेलों में जाने की फोटो फेसबुक पर पोस्ट करते हैं और जब तारीख पास आते ही आयोजकों से फोन करके पूछते हैं कि

"क्या पत्नी और बच्चों को भी साथ ला सकते हैं उनका भी किराया मिलेगा या नहीं ,होटल में अलग कमरा मिलेगा ना "।

और उधर से जब जवाब मिलता है कि" सभी लेखकों के ठहरने की व्यवस्था एक ही रुम में है और सभी लेखिकाओं के एक साथ ठहरने की व्यवस्था दूसरे कमरे में एक साथ है सो नो सेपरेट रुम फॉर लेखक,और रहा सवाल किराये का तो वो हम अभी नहीं दे पाएंगे ,आप टिकट के बिल लगा दें ,सब मार्च में ही क्लियर हो पायेगा"।

मुफ्त घूमने की संभावनाओं पर तुषारपात

और इस टके से जवाब के बाद उस लेखक को बोध ज्ञान प्राप्त होता है और वो कहता है कि

"मुझे पता लगा है कि इस मेले के आयोजकों के सम्बन्ध फासिस्ट और पूंजीपतियों से है सो मैं इस मेले का बहिष्कार करता हूँ "।

ये और बात है कि होटल और किराये के बिल का भुगतान अगर तुरंत हो जाता तो वो शायद श्रम आधारित व्यवस्था से मान ली जाती।

एक साहित्यिक दम्पति ने तो अपना सेकेंड हनीमून तक इस सबमें प्लान कर डाला था मगर हाय रे जमाने ।

वैसे इन मेलों को कुछ लोग बहुत सीरियसली भी लेते हैं ,उनके लिये साहित्य साधना के केंद्र बिंदु जैसे हैं ये मेले ,उनमें हैं अप्रवासी साहित्यकार जो अपना,धन,समय,ऊर्जा की परवाह नहीं करते और साहित्य के सतत उन्नयन के लिये ऐसे दौड़े चले आते हैं जैसे राम की अयोध्या वापसी पर भरत स्वागत को दौड़ पड़े थे

"आया है जो साहित्यकार उड़न खटोले पे

हिंदी आज निछावर है उस बेटे अलबेले पे "

ये लोग चंद रोज में हमें हिंदी की तासीर बताकर चल देंगे ,तब तक हिंदी के मेलों के पहलवान अपने अपने दांव पेंच को शान चढ़ा रहे हैं ।इन मेलों की नूरा कुश्ती में पैरोडी भी खूब चर्चा में हैं जैसे

"मुफ्तखोरी की शायरी अब तो महत्वहीन हुई

तेरे जहर भरे बोली से ये फिजां इतनी गमगीन हुई "

समाप्त 😊

कृते दिलीप कुमार





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"हैप्पी बर्थ डे ",,(व्यंग्य)"बड़ा शोर सुनते थे पहलू में दिल का जो काटा तो कतरा ए लहू तक ना निकला "ऐसा ही कुछ रहा ,इस हफ्ते,,जब कश्मीर का नया जन्म हुआ ।धमकी,ब्लैकमेलिंग,और सुविधा की राजनीति करके उसे इंसानियत,कश्मीरियत,जम्हूरियत का मुलम्मा चढ़ाने वालों के दिन अब लद गये।अब अल

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मेला आन ठेला

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मेला ऑन ठेला ,(व्यंग्य)"सारी बीच नारी है ,या नारी बीच सारीसारी की ही नारी है,या नारी ही की सारी"जी नहीं ये किसी अलंकार को पता लगाने की दुविधा नहीं है ,बल्कि ये नजीर और नजरनवाज नजारा फिलहाल लिटरेरी मेले का है ।मेले में ठेला है ,ये ठेले पर मेला है ।बकौल शायर "नजर नवाज नजार

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तो क्यों धन संचय (व्यंग्य)हाल ही में एक ट्वीट ने काफी सुर्खियां बटोरी ,"पूत कपूत तो क्यों धन संचयपूत सपूत तो क्यों धन संचय"जिसमें अमिताभ बच्चन साहब ने सन्तान के लिये धन एकत्र ना करने का स दिया उपदेश दिया है लोगों ने इस वाक्य को आई ओपनर की संज्ञा दी है ।लोग बाग़ ये अनुमान लगा रहे हैं कि प्रयाग में जन्

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अबकी बार,तीन सौ पार,(व्यंग्य)"नहीं निगाह में मंजिल तो जुस्तजू ही सही नहीं विसाल मयस्सर तो आरजू ही सही "जी नहीं ये किसी हारे या हताश राजनैतिक पार्टी के कार्यकर्ता की पीड़ा या उन्माद नहीं है।बल्कि हाल के दिनों में तीन सौ शब्द काफी चर्चा में रहा।एक राजनैतिक दल ने तीन सौ की ह

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"ये कैसे हुआ" (व्यंग्य)फ़ांका मस्ती ही हम गरीबों की विमल देखभाल करती हैएक सर्कस लगा है भारत में जिसमें कुर्सी कमाल करती है "।उस्ताद शायर सुरेंद्र विमल ने जब ये पंक्तियां कहीं थी तब उन्होंने शायद ये अंदाज़ा लगा लिया था कि इस देश की जनता की साथी उसकी फांकाकशी ही रहने वाली है ।वी द पीपुल तो हमें जनता जन

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8 दिसम्बर 2019
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पापा नहीं मानेंगे (व्यंग्य)"खुदा करे इन हसीनों के अब्बा हमें माफ़ कर दें, हमारे वास्ते या खुदा , मैदान साफ़ कर दें ,"एक उस्ताद शायर की ये मानीखेज पंक्तियां बरसों बरस तक आशिकों के जुबानों पर दुआ बनकर आती रहीं थीं ,गोया ये बद्दुआ ही थी ।इन मरदूद आशिकों को ये इल्म नही

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14 दिसम्बर 2019
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"कौआ कान ले गया "(व्यंग्य)"हुजूर ,आरिजो रुख्सार क्या तमाम बदनमेरी सुनो तो मुजस्सिम गुलाब हो जाए ,गलत कहूँ तो मेरी आकबत बिगड़ती है जो सच कहूँ तो खुदी बेनकाब हो जाए"इधर सताए हुए कुछ लोगों के जख्मों पर फाहे क्या रखे गए उधर धर्म को अफीम मानने वाले लोगों ने लोगों को राजधर्म याद

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"आपको क्या तकलीफ है " (व्यंग्य)रिपोर्टर कैमरामैन को लेकर रिपोर्टिंग करने निकला।वो कुछ डिफरेंट दिखाना चाहता था डिफरेंट एंगल से ।उसे सबसे पहले एक बच्चा मिला ।रिपोर्टर ,बच्चे से-"बेटा आपका इस कानून के बारे में क्या कहना है"?बच्चा हँसते हुये-"अच्छा है,अंकल इस ठण्ड में सुबह सुबह उठकर स्कूल नहीं जाना पड़ता

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डर दा मामला है

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डर दा मामला है (व्यंग्य)"सबसे विकट आत्मविश्वास मूर्खता का होता है ,हमें एक उम्र से मालूम है --हरिशंकर परसाई"।फिल्मों की "द फैक्ट्री "चलाने वाले निर्देशक राम गोपाल वर्मा महोदय ने डर के लेकर दिलचस्प प्रयोग किये।वो अपनी किसी फेम फिल्म में डर फेम शाहरुख़ खान को तो नहीं ला पाये ,लेकिन डर को लेकर उन्होंने

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5 जनवरी 2020
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मेरा वो मतलब नहीं था

11 जनवरी 2020
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"मेरा वो मतलब नहीं था " (व्यंग्य)"जामे जितनी बुद्धि है,तितनो देत बतायवाको बुरा ना मानिए,और कहाँ से लाय"देश में धरना -प्रदर्शन से विचलित ,और अपनी उदासीन टीआरपी से खिन्न फिल्म इंडस्ट्री के कुछ अति उत्साही लोगों ने सोचा कि तीन घण्टे की फिल्म में तो वे देश को आमूलचूल बदल ही द

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कागज़ नहीं दिखाएंगे

19 जनवरी 2020
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"कागज़ नहीं दिखाएंगे "(व्यंग्य)"युग के युवा,मत देख दाएंऔर बाएं और पीछे ,झाँक मत बगलेंन अपनी आँख कर नीचे,अगर कुछ देखना है देख अपने वे वृषभ कंधे,जिन्हें देता निमंत्रणसामने तेरे पड़ा, युग का जुआ "युग का जुआ युवाओं को अपने कंधों पर लेने की हुंकार देने वाले कविवर हरिवंश राय बच्चन अपने अध्यापन के दिनों में

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खिचड़ी बनाम बिरयानी

26 जनवरी 2020
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"खिचड़ी बनाम बिरयानी "(व्यंग्य)"मालिन का है दोष नहीं ,ये दोष है सौदागर का जो भाव पूछता गजरे का और देता दाम महावर का" ऐसा ही कुछ आजकल के धरना प्रदर्शनों का है जो किसी अन्य वजहों की वजह चर्चा में आ जाते हैं बजाय उसके जो वजह उन्होंने चुनी है ।धरना ,वैचारिक मतभेदों को लेकर है

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3 मार्च 2020
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3- नीचे का खुदादोनों सिपाहियों की ड्यूटी थी ,वो दोनों स्नाइपर थे और वो दोनों दुश्मनों के निशाने पर भी थे ।आबिद और इकबाल।वैसे इकबाल हिन्दू था और नाम था इकबाल सिंह ,जबकि आबिद का नाम आबिद पटेल था ।इकबाल को सब इकबाल कहकर ही बुलाते थे ताकि लोगों को लगे के वो मुसलमान है क्योंकि वो शक्ल सूरत और रव

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वर्क फ्रॉम होम ,(व्यंग्य)आये दिन अख़बारों में इश्तहार आते रहते हैं कि घर से काम करो ,घण्टों के हिसाब से कमाओ,डॉलर,पौंड में भुगतान प्राप्त करो।जिसे देखो फेसबुक,व्हाट्सअप पर भुगतान का स्क्रीनशॉट डाल रहा है कि इतना कमाया,उतना माल अंदर किया ।महीने भर की नौकरी पर एक दिन वेतन पाने वाला फार्मूला अब आदिम लगन

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“वादा तेरा वादा” “परनिंदा जे रस ले करिहैं निसच्य ही चमगादुर बनिहैं” अर्थात जो दूसरों की निंदा करेगा वो अगले जन्म में चमगादड़ बनेगा।परनिंदा का अपना सुख है ,ये विटामिन है ,प्रोटीन डाइट है और साहित्यकार के लिये तो प्राण वायु है ।परनिंदा एक परमसत्य पर चलने वाला मार्ग है और मुफ्त का यश इसके लक्ष्य हैं।चत

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चाँद और रोटियां

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चाँद और रोटियां (व्यंग्य)प्रगतिशीलता के पुरोधा,परम्पराओं को ध्वस्त करने वाले कवि करुण कालखंडी जी देश में मजदूरों के पलायन से बहुत दुखी थे ,उन्होंने लाक डाउन के पहले दिन से बहुत मर्माहत करने वाली तस्वीरें और करुणा से ओत प्रोत कविताएं लिखी थीं ।वो सरकार पर बरसते ही रहे थे क

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