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डर दा मामला है

29 दिसम्बर 2019

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डर दा मामला है (व्यंग्य)

"सबसे विकट आत्मविश्वास मूर्खता का होता है ,हमें एक उम्र से मालूम है --हरिशंकर परसाई"।

फिल्मों की "द फैक्ट्री "चलाने वाले निर्देशक राम गोपाल वर्मा महोदय ने डर के लेकर दिलचस्प प्रयोग किये।वो अपनी किसी फेम फिल्म में डर फेम शाहरुख़ खान को तो नहीं ला पाये ,लेकिन डर को लेकर उन्होंने विभिन्न प्रयोग किये ।पहले भूत का डर दिखाकर तो उन्होंने अपनी तिजोरी भरी लेकिन फिर दर्शकों को ये बताते बताते खुद कंफ्यूज हो गए कि डरना जरूरी है या डरना मना है ।एक बार तो उन्होंने डर का उत्सव भी मनाया और पांच लाख के इनाम -इकराम की भी घोषणा कर दी कि जो उनकी भूतिया फिल्म बिना डरे सहमे अकेले देख ले उसको वे पांच लाख रूपये इनाम में देंगे।उन्हीं दिनों अभिनेता ऋतिक रोशन सिर्फ दस रुपये में शीतल पेय पीकर हिम्मती बन जाने का सुझाव दे रहे थे और सुपर थर्टी की तर्ज पर मार्गदर्शन कर रहे थे कि "डर के आगे जीत है "।हजारों बेरोजगारों ने अपने सुनहरे भविष्य के लिए दस रुपये का शीतल पेय पीकर अपने डर को भगाया और पांच लाख रूपये जीतने निकल पड़े ,बिना डरे हुए फिल्म देखने के लिए ,लेकिन डर को जब नकद होने का समय आया तो वो परवान नहीं चढ़ सका।अकेला आदमी अपनी रोजी रोटी को लेकर डरता है,अपने परिवार के भविष्य और सुरक्षा के लिए डरता है ,अपनी कमाई के छिन जाने या डूब जाने के खतरे से डरता है ।लेकिन डर बड़े बड़ों को भी लगता है ,आम आदमी ये देखकर हैरान है।किसान डरता है कि उसकी खेती पर जाड़े में पाला ना पड़ जाये लेकिन उसे ये नहीं पता कि इस देश में अब डर की कुछ लोगों ने दुकानें खोल रखी हैं ,वे डर की खेतियाँ कराते हैं।डर अपने गोदामों में रखते हैं घी की तरह ।सुबह शाम थोड़ा सा डर खुद खा लेते हैं च्यवनप्राश की तरह और बाकी का डर कुछ भोली भाली जनता में बाँट देते हैं कि "डरो ,डरते रहो, कहीं तुम्हारे साथ ऐसा ना हो,वैसा ना हो "।सरकारें समझा -समझा के हलकान हो जाती हैं कि किसी को किसी से डरने की कोई जरूरत नहीं है ।देश के सब नागरिक समान हैं ,सभी निर्भय होकर रहें "लेकिन फिर भी लोग डरते हैं।डरना शौक है,डरना फैशन है,डरना ट्रेंड है ,डरना स्टेटस सिंबल है ,जो लोग नहीं डरे हैं ,निडर होकर देश में जी रहे हैं उन्हें टीवी ,मीडिया में फुटेज नहीं मिलता।कदम कदम पर तख्ती लिये लोग कैमरों के सामने बता रहे हैं कि वो डरे हैं।प्रशासन पर चीख रहे,उसे अपशब्द कह रहे ,हिंसा पर उतारू लोग भी ये कह रहे हैं कि वे डरे हुए हैं।वैसे वक्त के साथ डर की सिर्फ परिभाषाएं ही नहीं बदली हैं बल्कि लुक्स भी बदल गए हैं ,परिधान तो बदले हैं।आमतौर पर पहले अस्त-व्यस्त कपड़ों वाला कमजोर प्राणी डरा -सहमा सा नजर आता था और हाथ जोड़कर फरियाद करता हुआ कहता था कि उसे मदद की जरूरत है ।अब डर भी ब्रांडेड है,ट्रेन्डिंग कपड़ों वाला है ,डरे हुए लोग मोबाईल का वीडियो कैमरा आन करके आते हैं जो खासे कॉन्फिडेंट दिखते हैं मगर सिस्टम पर चढ़ जाने को आमादा दिखते हैं।फैंसी स्लोगन बताते हैं ,फ़िल्मी गाने गाते हैं और सबसे खास बात संविधान के ढेर सारे अनुच्छेदों और उपबंधों का जिक्र करते हुए हमेशा यही बताते हैं कि संविधान में ये कहीं नहीं लिखा है कि ये करना जरूरी है ।क्या बात है साहब आप वही वही सब बताएंगे जो संविधान में नहीं लिखा है ,कभी उस पर भी तो गौर करें कि संविधान में क्या लिखा है ,जनता क्या चाहती है ,इसे फ़ैशन आइकॉन बन कर सड़कों पर निकले लोग तवज्जो नहीं दे रहे हैं ।देश बदलने के लिए ही लोकतंत्र में नए मैंडेट दिए जाते हैं ,जब देश में पुरानी रवायतें बदली जाती हैं तब कुछ लोगों को खासी तकलीफ होती है ,सबको कायदा -कानून बताने लगते हैं -

"अब तो इस तालाब का पानी बदल दो

ये कँवल के फूल मुरझाने लगे हैं

वो सलीबों के करीब आये तो

हमको कायदे-कानून समझाने लगे हैं "

जब सड़कों पर बसे जलीं ,तब कुछ लोग कायदा कानून भूल गए थे,अब कानून उनकी चौखट पर पहुंचा तो कायदे-कानून की दुहाई दे रहे हैं।जो सड़कों पर नहीं हैं उनके मन में भी सवाल है ,कि आखिर सुधार क्यों ना हो ,कब तक मामलों को लटकाये रखा जायेगा-

"क्योंकि मेरे सवाल तुम्हारी मान्यताओं

का उल्लंघन करते हैं,

नया जीवन बोध संतुष्ट नहीं होता

ऐसे सवालों से जिनका सम्बन्ध

आज से नहीं अतीत से है

तर्क से नहीं रीत से है "

तो कूल डूड और डूडनियों को अपने फेसबुक की स्टेटस बढाने के लिए डर का सहारा लेना जरूरी नहीं है ।डरे तो वो माँ बाप भी हैं जिन्होंने अपना तन पेट काटकर आपको दिल्ली पढ़ने भेजा और आप पढाई -लिखाई ना करके जंतर मंतर की शोभा बढ़ा रहे हैं।आपको डर है कि देश का भविष्य खतरे में है ,वाकई देश खतरे में है जब आप जैसे देश के टॉप माइंड बड़े संस्थानों की प्रयोगशालाओं से निकल कर डफली बजा रहे हैं और देश को दिशा देने के बजाय आपकी वजह से ट्रैफिक की दिशा बदलनी पड़ रही है। अगर डफली ही बजानी थी तो कहीं बजा लेते इतनी महंगी सब्सिडी वाली शिक्षा लेने की जरूरत ही क्या थी।वैसे भी देश के वो तमाम माँ बाप डरे हैं कि बेटे-बेटियों को जंतर मंतर पर देखकर ,क्योंकि जिन कुछ लोगों के साथ ये जश्न ए डर चल रहा है ,उनमें से कुछ तो कोई सामजिक अध्ययन की ग्रांट पा जाएंगे या और कुछ हासिल कर लेंगे ।ये टोपियां,ये तख्तियां,ये डफलिया बाँट कर उनके कई काम सध जाएंगे।उनको डर है कि उनकी रबड़ी,मलाई,चाशनी इसी टोपी,तख्ती, डफली के बलबूते बहाल ना हो तो उन्हें विदेश में भी जाकर बताना पड़ेगा अपने डर के बारे में।डर की कीमत होती है ।एक बार आमिर खान को देश में डर लगने लगा अचानक इस देश में।उनके डर से आजिज होकर लोगों ने स्नैपडील पर उनके द्वारा प्रचार किये जाने वाले सामानों से डरना शुरू कर दिया ।मार्किट वैल्यू डाउन हुई तो उन्होंने डरना छोड़ दिया।आजकल लोग उनसे फोन करके पूछ रहे हैं कि आप डर रहे हैं या नहीं ,उन्होंने कहा है कि हमे डरना चाहिए और पानी बचाना चाहिये।हुनर पीढ़ी दर पीढ़ी ट्रांसफर होता है ,डर भी पीढ़ी दर पीढ़ी ट्रांसफर होता है ये ना सिर्फ डरने की बात है बल्कि अचंभे की बात है।जैसे सदैव डरे रहने वाले हुनरमंद जावेद अख्तर का काबिल बेटा फरहान अख्तर भी अचानक डरने लगा।ढेर सारे बॉडीगार्ड के साथ आजाद मैदान में जब पहुंचा और लोगों ने उससे पूछा कि "आप यहां क्यों आये हैं ,क्या आप भी डरे हुए हैं "।तो बॉडीगार्डस के घेरे में घिरे फरहान ने कहा "इतने सारे डरे हुए लोग यहां आये हैं ,जाहिर है कोई वजह होगी डरने की।सो मैं भी इनकी देखा देखी डर रहा हूँ "।इसे कहते हैं पापा का प्यारा बच्चा।इधर ढेर सारे डरे हुए लोगों के कॉंफिडेंट एक्सप्रेशन को देखकर एक प्रौढ़ युवा नेता ने अपनी मम्मी से पूछा है कि "मम्मी,टीवी पर मुझे बाइट देते वक्त डरपोक दिखना है या निडर "।

नेपथ्य में कहीं गुरदास मान साहब का एक गाना बज रहा है 'दिल दा मामला है "।कुछ मसखरे इसकी पैरोडी गा रहे हैं "डर दा मामला है "।

सच बताएं ये झूठ मूठ वाला डर आपको भी लगता है क्या ?😊

समाप्त

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पंडी आन द वे (व्यंग्य) जिस प्रकार नदियों के तट पर पंडों के बिना आपको मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती, गंगा मैया आपका आचमन और सूर्य देव आपका अर्ध्य स्वीकार नहीं कर सकते जब तक उसमें किसी पण्डे का दिशा निर्देश ना टैग हो, उसी प्रकार साहित्य में पुस्तक मेलों में कोई काम संहित्यिक पंडों और पण्डियों के बिना

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वादा तेरा वादा

10 मई 2020
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“वादा तेरा वादा” “परनिंदा जे रस ले करिहैं निसच्य ही चमगादुर बनिहैं” अर्थात जो दूसरों की निंदा करेगा वो अगले जन्म में चमगादड़ बनेगा।परनिंदा का अपना सुख है ,ये विटामिन है ,प्रोटीन डाइट है और साहित्यकार के लिये तो प्राण वायु है ।परनिंदा एक परमसत्य पर चलने वाला मार्ग है और मुफ्त का यश इसके लक्ष्य हैं।चत

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चाँद और रोटियां

14 जून 2020
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चाँद और रोटियां (व्यंग्य)प्रगतिशीलता के पुरोधा,परम्पराओं को ध्वस्त करने वाले कवि करुण कालखंडी जी देश में मजदूरों के पलायन से बहुत दुखी थे ,उन्होंने लाक डाउन के पहले दिन से बहुत मर्माहत करने वाली तस्वीरें और करुणा से ओत प्रोत कविताएं लिखी थीं ।वो सरकार पर बरसते ही रहे थे क

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