क्या कहूं और कहां से शुरुआत करूँ कुछ समझ में नहीं आ रहा है। जब कभी इस विषय में कहीं कुछ पढ़ता हूँ या सुनता हूँ कि बेटी पैदा होने पर उसे गला घोंट के मार दिया गया, या किसी नदी, तालाब या कूएँ में फेंक दिया गया या फिर गर्भस्थ शिशु का लिंग परीक्षण करवाये जाने पर बेटी है का पता लगते ही उसे भूर्ण हत्या का रूप दे दिया जाता है। तो शर्म आती है मुझे कि मैं एक ऐसे समाज का हिस्सा हूँ जहां लोगों कि ऐसी संकीर्ण मानसिकता है। कैसे ना जाने कहां से लोगों के अंदर ऐसे घिनौने विचार जन्म लेते हैं। जिसके चलते उन मासूम फूलों से भी ज्यादा कोमल बच्चीयों के साथ लोग ऐसा अभद्र, गंदा, घिनौना, अपराध करते हैं। यहाँ अभी इस वक्त यह सब लिखते हुए इस प्रकार के जितने भी शब्द है वो भी मुझे बहुत कम लग रहे हैं। ऐसे लोगों के लिए जिनकी मानसिकता है कि बेटी उनके सर पर बोझ है इसलिए उसे खत्म कर दो, सच बहुत अफ़सोस होता है। 21वी शताब्दी की बातें करते हैं हम और आज भी इस मानसिकता को ऐसी सोच को खत्म नहीं कर पाये हैं। आखिर कहां जा रहे हैं हम……
जाने क्या मिलता है लोगों को इस तरह का अभद्र पूर्ण व्यवहार करने से और कैसे पत्थर दिल इंसान होते हैं, वह लोग जो इस घिनौने काम को अंजाम देते है। बल्कि ऐसे लोगों को तो इंसान कहना या पत्थर दिल कहना भी इंसान और पत्थर दोनों का ही अपमान होगा। उससे भी ज्यादा बुरा लगता है जब पढ़े लिखे सभ्य परिवारों में भी यही सोच जानने और सुनने में आती है कि जब लोग कहते हैं हमारे लिए बेटा और बेटी दोनों ही बराबर हैं मगर फिर भी यदि पहली बार में बेटा हो जाये तो फिर चिंता नहीं रहती दूसरी बार में बेटी भी हो तो हमे स्वीकार है। क्यों ? क्योंकि दुनिया चाहे चाँद पर ही क्यों ना पहुँच चुकी हो पर सोच तो वही है कि लड़के से ही वंश आगे चलता है लड़की से नहीं। चलिये एक बार को यह बात सच मान भी लेने तो, इससे लड़की का महत्व कम तो नहीं हो जाता , मैं यह नहीं कहता कि इस सब के चलते लड़के का महत्व कम होना चाहिए क्योंकि मैं खुद एक बेटे बाप हूँ लेकिन मैं यह कहना चाहता हूँ कि लड़के को भी वंश आगे बढ़ाने के लिए आगे लड़की की ही जरूरत पड़ेगी ना, तो जब दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं और एक के बिना दूसरा अधूरा है तो फिर लड़की को लड़के की तुलना में महत्व कम क्यों दिया जाता है। एक तरफ तो हम उसी बेटी के माँ रूप अर्थात माँ दुर्गा की पूजा अर्चना करते है। घर की सुख और शांति के लिए कन्या भोज कराते हैं और दूसरी ओर अपने ही घर की कन्या के साथ ऐसा शर्मनाक और अभद्र व्यवहार करते है। आखिर क्यों ?
क्या बिगाड़ा है उस मासूम ने आपका…. क्या आने से पहले उसने कहां था आपसे कि मुझे इस दुनिया में लाओ, नहीं ना। आने वाला बच्चा बेटी है या बेटा जब आपको खुद ही यह बात पता नहीं और ना ही यह बात आपके हाथ में है। तो फिर उस मासूम और बेगुनाह बच्ची को भी सज़ा देने का आपको कोई अधिकार नहीं और सज़ा भी किस बात की, महज़ वो बेटा नहीं बेटी है। अरे लोग यह क्यों नहीं समझते कि अगर उनकी पत्नी नहीं होती तो बेटा या बेटी जिसकी भी उनको चाह है वो उनको मिलता कहां से, अरे अगर उनकी खुद की माँ नहीं होती तो उनका वजूद ही कहां होता। इस पर कुछ लोग कहते हैं वजूद ही नहीं होता तो इच्छा ही नहीं होती। मगर यह मानने को कोई तैयार नहीं कि आखिर बेटा हो या बेटी है तो उनका अपना ही नौ महीने तक जिसके आने का पल-पल बेसबरी से इंतज़ार किया जाता है। जिसके आने से आपके घर को रोशनी मिली आपको जीवन जीने का नया मोड़ मिला, चाहे बेटा हो या बेटी दोनों ने ही आपकी ज़िंदगी को रोशन किया। तो फिर बेटी के प्रति यह भेद-भाव क्यों ?
खैर इस विषय में जितना भी कहां जाये वो कम ही होगा और ऐसे लोगों को जितना भी समझा जाये वो रहेंगे “कुत्ते की दुम ही जो बारह साल नली में डाले रहने के बावजूद भी कभी सीधी नहीं होती” वैसे तो इस विषय में कोई गंभीर कदम उठाने की आवश्यकता है और इस विषय पर सामूहिक रूप से चर्चा होनी चाहिए और कोई ठोस निर्णय निकालना चाहिए। लेकिन फिर भी जब कभी इस विषय की ओर कोई अच्छा प्रयास किया जाता है तो जान कर ख़ुशी होती है और अच्छा भी लगता है, परिणाम भले ही देर से निकले मगर प्रयास करते रहना और प्रयासों का होते रहना भी जरूरी है। शायद इन अक्ल के अंधों को थोड़ी सी अक्ल, ज्ञान और समझदारी की रोशनी मिल जाये और यह सही-गलत के भेद को पहचान सकें। ऐसा ही एक प्रयास भोपाल शहर में बेटी बचाओ आंदोलन के तहत किया गया, मुझे सचमुच में बहुत सराहनीय लगा। उन्होने एक अभियान शुरू किया है जिसके माध्यम से जनता तक यह संदेश पहुंचाने का प्रयास किया है “बेटी क्यों नहीं” शायद ऐसे प्रयास ही ज्यादा नहीं तो कम से कम कुछ लोगों की आँखें तो खोल ही सकते हैं। आज हमारे देश में बेटियों की जो हालत है जिसके चलते भूर्ण हत्या जैसे मामले आए दिन अखबारों में पढ़ने को मिलने लगे हैं शायद इन प्रयासों से हम उन दरों में कुछ हद तक कटौती कर सकें और इन प्रयासों के माध्यम से ही कुछ उन नन्ही बेजान कलियों की आत्मा को शांति और सुकून पहुंचा सकें जो खिलने से पहले ही अपनी ही ज़मीन से उखाड़ के फेंक दी गई।
अंत में बस इतना ही कहना चाहूँगा जैसा कि मैंने ऊपर भी कहां है कि ऐसे प्रयास होते रहना चाहिए और जो लोग इस विषय में नाममात्र की भी ऐसी या इस प्रकार की सोच रखते हैं कि बेटी बोझ है बेटा कुलदीपक उन सभी से मेरा अनुरोध है “जागो सोने वालों” बेटा हो या बेटी, है तो इंसान की ही संतान और भगवान की देन इसलिए दोनों को एक समान मानो और दोनों का ही तहे दिल, से खुले दिमाग और खुले मन से स्वागत करो और बस यही कामना करो की बेटी हो या बेटा दोनों ही स्वस्थ हों।