आज सुबह मैं बहुत जल्दी उठ गई मुझे रात को ठीक से नींद नहीं आई थी।रह रहकर मेरी आंखों के सामने सिन्हा साहब की बहू का चेहरा आ जा रहा था वह ज्यादा घर से बाहर नहीं निकलती थी दो तीन बार ही उसे मैंने देखा था कितना मासूम चेहरा था उसका पर हर बार मुझे उसके चेहरे पर उदासी ही दिखाई दी थी आज मुझे इसका अहसास हो रहा था। पहले कभी मैंने उसके उदास चेहरे पर ध्यान ही नहीं दिया था।
मैंने घर के सभी काम जल्दी से समाप्त किया और फिर सिन्हा साहब के घर जाने के लिए निकल गई आज उनकी बहू का अंतिम संस्कार होना था। वहां पहुंचकर मैं भी लोगों के बीच बैठ गई पोस्ट मार्टम के बाद लाश घर आ गई थी बहू के अंतिम संस्कार की तैयारी चल रही थी अंदर से आवाजें आ रही थी कोई कह रहा था अच्छे से श्रृंगार कर दो यह सुहागन थी। कोई कह रहा था कि पायल और बिछुआ जरूर पहना देना, चूड़ियां भी पहना दो उसके विदाई वाली चुनरी भी उसे उढ़ा देना।
यह सब सुनकर मन अंदर से व्यथित हो रहा था मैं सोच रहीं थी कि जीते जी तो उसे किसी ने चैन की सांस नहीं लेने दी आज सभी उसे अच्छे से श्रृंगार करके विदा कर रहे हैं।मेरा मन सोच सोच कर दुखी हो रहा था कि यह कैसी विडम्बना है कि हम जिंदा लोगों को जलाने में भी नहीं हिचकते और फिर समाज को दिखाने के लिए उसके विपरीत व्यवहार करते हैं यह कोई कैसे कर सकता है क्या उसकी अंतरात्मा उसे धिक्कारती नहीं होगी।
फिर खुद ही अपनी सोच पर अफ़सोस कर रही थी अरे जिसकी अंतरात्मा मर जाती है वही ऐसा घृणित कार्य करता है तो उसकी अंतरात्मा उसे क्यों धिक्कारेगी??
सिन्हा साहब का पूरा घर अस्त-व्यस्त था और सभी रोने चिल्लाने का नाटक कर रहे थे।
बाहर लोगों में फुसफुसाहट हो रही थी।
तभी पाठक चाची वहां आ गई और यह सब देखकर व्यंग से बोली अरे यह लोग तो उसी कहावत को चरितार्थ कर रहे हैं कि' "जीयद बाप को पानी नाहीं मरत बाप को पिंड़ा"
उनकी बातों को सुनकर सिन्हा साहब के घर वालों के चेहरे की हवाइयां उड़ने लगी।यह सभी ने देखा और महसूस किया। परंतु किसी ने कहा कुछ नहीं बाहर बैठी औरतें कह रही थीं अरे बहू को अपने मायके चले जाना चाहिए था। तभी किसी ने धीरे से कहा वह अपने मायके गई थी उसके माता-पिता उसे फिर यहीं छोड़ गए थे।वह गरीब परिवार से थी और ज्यादा पढ़ी लिखी भी नहीं थी।
यह सब सुनकर मैं सोचने पर बाध्य हो गई कि क्या गरीब माता-पिता अपने स्वार्थ के लिए अपने बच्चे को मरने के लिए छोड़ सकते हैं। क्या हमारे समाज में आज भी वही पुरानी सोच व्याप्त है कि लड़की डोली पर ससुराल जाए और अर्थी पर वहां से विदा ले।
नहीं हर माता-पिता ऐसा नहीं सोचते पर कुछ माता-पिता समाज के डर और तानों के कारण एवं अपनी गरीबी के कारण ऐसा करते हैं इससे पूरी तरह इंकार भी नहीं किया जा सकता।
क्योंकि जो घटना यहां घटी और लोग कह रहे थे उसे नकारा भी नहीं जा सकता था।
घर वाले जब अर्थी को लेकर चले गए तो मैं भी अपने घर आ गई लेकिन मेरे मन में विचारों की आंधी चल रही थी।
मैं सोचने लगी यदि कुछ लोग मिलकर ऐसी संस्था चलाए जहां असहाय लड़कियां आकर रहें और उनके अंदर जो काबिलियत हो उससे अपना जीवनयापन करने का प्रयास करें तो बहुत से असहाय लोगों का जीवन बचाया जा सकता है।
पर हम लोग किसी बाहरी लोगों के मामले में पड़ना नहीं चाहते और अगर कोई आगे आता भी है तो पीड़ित व्यक्ति उसका साथ नहीं देता।
क्योंकि शायद उसे यह उम्मीद रहती है कि उसके घर वाले बदल जाएं पर ऐसा होता नहीं है जो व्यक्ति बुरा है वह कभी सुधरेगा इस उम्मीद में किसी को अपना जीवन दांव पर नहीं लगाना चाहिए।
यह सब सोचते हुए मेरे सिर में दर्द होने लगा तभी मेरी सहेली रेखा मेरे घर आ गई उसे देखकर मुझे बहुत अच्छा लगा अब मैं उससे अपने दिल की बात खुलकर करूंगी।
इसलिए अब आज इतना ही कल मेरी सहेली रेखा से मेरी क्या बात हुई उस विषय पर चर्चा करूंगी।
डॉ कंचन शुक्ला
स्वरचित मौलिक
7/4/2022