आज सुबह मुझे साहित्यनामा पत्रिका डाक द्वारा प्राप्त हुई।साहित्यनामा पत्रिका अदम्य प्रतियोगिता करवा चौथ के अवसर मेरा लेख चयनित हुआ था वह लेख उस पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।यह देखकर मुझे बहुत ख़ुशी मिली उस प्रतियोगिता में भारतीय संस्कृति के विषय में लिखने के लिए कहा गया था।
मैंने अपने लेख में भारतीय संस्कृति सभ्यता संस्कार और परम्पराओं के विषय में अपने मन के उदगारों को व्यक्त किया था।
उसके कुछ अंश को मैं यहां लिख रहीं हूं।
हमारी भारतीय संस्कृति और संस्कार आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने कल थे और आगे भी रहेंगे। हमारी संस्कृति और संस्कार हमें दृढ़ता प्रदान करते हैं हमें कमजोर नहीं बनाते आज हम आधुनिकता के नाम पर अपनी पहचान भूलते जा रहे हैं।
हमें अब किसी प्रकार का बंधन बर्दाश्त नहीं होता पर क्या हम जो कर रहे हैं यह उचित है??
यदि हमारे विचारों को व्यक्त करने की आजादी हमसे छीन ली जाए हमें आगे बढ़ने से रोका जाए हमसे हमारे अधिकार छीनने की बात की जाए तो हम उसका विरोध करें यह तो उचित है पर आजादी के नाम पर हम अपने संस्कार भूल जाए हम अपने बड़ों का अपमान करें उनकी सही बात भी नहीं सुने यह हमारी सभ्यता और संस्कृति नहीं है।
हमें अपने रीति रिवाजों को छोड़ना नहीं चाहिए यदि हम अपनी पुरानी परम्पराओं को अपने जीवन में उतारने लगे तो इसमें कोई नुक़सान नहीं है बल्कि फ़ायदा ही है इससे हम अपने बच्चों को अपनी सभ्यता संस्कृति और संस्कारों का पाठ बहुत आसानी से पढ़ा सकते हैं।
हमारी भारतीय संस्कृति हमें एकता का संदेश देती है हम अपने तीज़ त्योहारों को एक साथ मिलकर मनाते हैं। जब कई लोगों और रीति रिवाजों का एक साथ समावेश होता है तो हमें एक-दूसरे को जानने समझने का अवसर मिलता है। हमारे नज़रिए में परिवर्तन होता है इससे प्रेम की भावना उत्पन्न होने लगती है।
हमारी भारतीय संस्कृति और संस्कार हमें आगे बढ़ने से नहीं रोकता बल्कि सबको साथ लेकर चलने की शिक्षा देता है।
कहने का तात्पर्य यह है कि हमें अपनी मर्यादा, परमपराएं, संस्कार और संस्कृति को भूलाकर आगे नहीं बढना चाहिए बल्कि इनको अपने जीवन में उतार लेना चाहिए तब हम अपनी पहचान बनाने में कामयाब हो सकतें हैं क्योंकि अपनी सभ्यता संस्कृति और संस्कार को नकार कर कोई भी व्यक्ति और देश उन्नति नहीं कर सकता।
आज इतना ही कल फिर मिलती हूं
डॉ कंचन शुक्ला
स्वरचित मौलिक