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मेरी डायरी आत्ममंथन अप्रैल 2022 भाग 6 इतिहास, समाज और मन की कुछ बातें

17 अप्रैल 2022

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आज सुबह जल्दी उठने का मन नहीं हो रहा था क्योंकि कल देर रात तक मैं प्रतिलिपि पर एक लेख लिख रही थी लेख का शीर्षक है आधुनिक काल में वानप्रस्थाश्रम कितना प्रासंगिक हो सकता है। इसलिए सुबह उठने का मन नहीं था मेरे यहां बूंदा-बांदी भी हो रही थी पर उठना तो था ही क्योंकि मैं अपने लड्डू गोपाल जी को ज्यादा देर तक भूखा नहीं रख सकती।
मैंने उठने के बाद सबसे पहले पूजा की उसके बाद घर के अन्य कामों को निपटाने लगी। तभी बाहर शोर सुनाई दिया मैं घबराकर कर बालकनी पर आ गई और बाहर देखने लगी।
मैंने देखा कि सामने वाले घर में धुआं ही धुआं दिखाई दे रहा है मैं जल्दी से नीचे आ गई।बाहर लोगों की भीड़ इकट्ठी थी वहां सभी बात कर रहें थे कि शर्मा जी की बहू जलकर मर गई वह चाय बनाने गई थी और गैस लीक हो रही थी उसने जैसे ही गैस जलाने के लिए माचिस जलाई वहां आग लग गई।घर वालों ने उसे बचाने की कोशिश की पर आग तो बूझ गई पर शर्मा जी की बहू नहीं बच सकी यह सुनकर मैं स्तब्ध रह गई।
क्योंकि अभी चार दिन पहले ही पड़ोस की पाठक चाची ने बताया था कि शर्मा जी की बहू को उसके घर वाले दहेज के लिए परेशान करते हैं।
शर्मा जी अपने बेटे की दूसरी शादी किसी अमीर लड़की से करना चाहते थे।यह बात पाठक चाची को शर्मा जी की बहू ने बताया था।
उस समय मैंने पाठक चाची की बातों पर विश्वास नहीं किया था क्योंकि मैं और मोहल्ले के सभी लोग पाठक चाची के स्वभाव के बारे में जानते थे।
उन्हें किसी भी साधारण बात को बढ़ा चढ़ा कर कहने की आदत थी। मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि, जहां चिड़िया उड़ सके वहां पाठक चाची अंडा उड़ा देती हैं।इसी वज़ह से मैंने पाठक चाची की बातों पर ध्यान नहीं दिया
इस घटना के बाद मेरा मन बहुत विचलित हो गया मैं सोचने लगी कि आज कल के लोग कितने खुदगर्ज हो गए हैं कि अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए मेहनत नहीं करना चाहते बल्कि सार्टकट अपनाने लगे हैं जिससे उन्हें बिना मेहनत किए ही सब सुख सुविधाएं उपलब्ध हो जाएं।
इसका सबसे आसान तरीका उन्हें अपने दहेज लगता है।
दहेज़ के खिलाफ कानून बने फिर भी आज हमारे समाज में दहेज प्रथा समाप्त नहीं हुई है उसका स्वरूप बदल गया है।
मेरे विचार से दहेज प्रथा को बढ़ावा ज्यादातर औरतें देती हैं अगर एक मां बहन भाभी मिलकर यह संकल्प करें की उन्हें दहेज़ नहीं बल्कि दहेज़ के बदले संस्कारी लड़की चाहिए। तो बहुत हद तक दहेज़ प्रथा खत्म हो सकती है।
हमें प्रारंभ से ही अगर अपने बच्चों को इन कुप्रथाओं के विरोध के लिए तैयार करें तो वह बच्चे बड़े होकर स्वयं इसका विरोध करेंगे।
आज का समाज भी हमें क्या हम क्यों किसी लफड़े मेंं पड़े जैसे शब्दों का प्रयोग करके अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। जबकि हमें भी आगे बढ़कर अगर हमारे आसपास ऐसी घटनाएं होने की संभावनाओं के बारे में हमें जानकारी मिलें तो उसका यथा संभव समाधान करने की कोशिश करनी चाहिए। उससे मुंह मोड़ना उचित नहीं है पर ऐसा हर स्थान पर संभव भी नहीं होता लेकिन अगर कोई हमसे सहायता मांगे तो हमें जरूर आगे बढ़कर उस व्यक्ति की मदद करनी चाहिए।
मेरे पाठक गण शायद यह समझें की मैं बहुत बड़ी बड़ी बातें करने की कोशिश कर रहीं हूं ऐसा कहां सम्भव हो सकता है पर यह मेरे विचार हैं कोई ज़रूरी नहीं कि सभी मेरी बातों से सहमत हो।
इस घटना के बाद मन इतना व्यथित था कि उसके बाद किसी काम में मन नहीं लगा तो मैंने जगजीत सिंह की ग़ज़लों को सुनने लगी मन थोड़ा शांत हुआ।आज इतना ही कल कुछ और अपने मन की बात कहने की कोशिश करूंगी।।

डॉ कंचन शुक्ला
स्वरचित मौलिक



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