अप्रैल माह में मैं अपनी डायरी आत्ममंथन में कुछ इतिहास की, कुछ समाज की और कुछ अपने मन की बेबाक बातें करने की कोशिश करूंगी मैं इसमें कहां तक सफल हो पातीं हूं इसका निर्णय मैं अपने आदरणीय विद्वान पाठकों पर छोड़ती हूं।
जब हम अपने इतिहास के पन्नों को पलटते हैं तो हमें भारतीय सभ्यता संस्कृति और संस्कारों का गौरवशाली इतिहास दिखाई देता है।
हमारे पूर्वजों ने देश, समाज, संस्कार अपनी परम्पराओं और संस्कृति को सर्वोच्च शिखर पर पहुंचाया और इसकी रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देने में देर नहीं लगाई।
ऐसा नहीं था कि प्राचीन भारत में सभी लोग देश भक्त और बहुत अच्छे ही थे।उस समय भी हमारे समाज में देशद्रोही और बुरे लोग समाज में विद्यमान थे। हां हम यह कह सकते हैं कि इनकी संख्या कम थी।
हमारा इतिहास हमें यह बतलाता है कि, पहले के लोगों के मन में ईश्वरीय शक्तियों में विश्वास था। पाप पुण्य, धर्म अधर्म, और पुनर्जन्म को मानते थे और उसमें विश्वास भी करते थे।उस समय के लोगों की मान्यता थी कि,"बाढ़े पुत्र पिता के धर्मे, खेती उपजे अपने कर्मे" अर्थात पिता जैसा कर्म करता है उसका फल उसके पुत्र को प्राप्त होता है और जो व्यक्ति खेती यहां खेती का तात्पर्य कर्म अर्थात मेहनत से है इसलिए जो व्यक्ति अच्छे कर्म करता है उसका फल उसे अवश्य प्राप्त होता है।
बुरे कर्म का फल उसे और उसके परिजनों को भोगना पड़ेगा।
इसलिए पहले के लोग बुरे कर्म करने से डरते थे। उन्हें ईश्वर का डर था लोगों का डर था लोगों से तात्पर्य समाज का डर था कि, समाज में उनकी प्रतिष्ठा कम हो जाएगी।
दूसरी सबसे बड़ी बात यह थी की माता पिता और गुरु बच्चों को शुरू से ही नैतिकता का पाठ पढ़ाते थे। इसका सबसे बड़ा उदाहरण भरत और लक्ष्मण जी हैं जिन्हें अच्छी शिक्षा और नैतिकता का पाठ पढ़ाया गया था।
दूसरी तरफ दुर्योधन था जिसको शुरू से ही उसके मामा और माता-पिता ने गलत शिक्षा दी जिसका परिणाम सभी को पता है।
कहने का तात्पर्य यह है कि हम अपने बच्चों के मन में शुरू से जिन विचारों का बीजारोपण करते हैं बडे़ होकर वह बच्चा वैसा ही व्यवहार करेगा।
इसलिए प्राचीन भारत में नैतिक मूल्यों और आदर्शों पर विशेष ध्यान दिया जाता था।
जिससे बच्चों में धर्म, कर्म और परंपराओं को मानने की प्रवृत्ति जागृत होती थी।
जब ऐसे व्यक्तियों से समाज का निर्माण होगा तो हमारा सामाजिक ढांचा उच्च कोटि का होगा इसमें कोई संदेह नहीं है।
आज इतना ही कल अपनी डायरी के पन्नों पर आगे के विचारों को व्यक्त करूंगी।
डॉ कंचन शुक्ला
स्वरचित मौलिक
2/4/2022