मेरी डायरी आज मैं कुछ पहले ही आ गई तुमसे मिलने कल देर से आई थी पर तुम्हें प्रकाशित नहीं कर सकी कल मैं बहुत खुश थी मेरी आंखों से खुशी के आंसू बह रहे थे मुझे खुश देखकर शायद कल इंद्रदेव भी प्रसन्न होकर बरस पड़े थे कल बहुत बारिश हुई कल मैंने तुम्हें बताया कि मेरे बेटे की मेहनत रंग लाई और उसने अपना मुकाम हासिल कर लिया।
आज शतरंज पर कुछ लिखने के लिए सोचा।
इस दुनिया में जहां देखो शतरंज की बिसात बिछाई गई है। चाहे घर हो या बाहर यहां हर व्यक्ति शतरंज लेख रहा है और आश्चर्य की बात यह है कि जब वह शतरंज खेलता है तो उसे अपने ऊपर विश्वास होता है कि मुझे ही शह मिलेगी क्योंकि अपनी कुटिल चाल को वह समझता है कि सामने वाला तो सरल है इसे बेवकूफ बनाया जा सकता है। कुछ समय के लिए वह अपनी शतरंजी चालों में कामयाब भी होता है और स्वयं को बुद्धिमान भी बहुत समझता है पर वह यह नहीं जानता कि, जिसे उसने बेवकूफ बनाया है क्या वाकई में वह उतना बेवकूफ है जितना वह समझ रहा है या उसने स्वयं ही तुम्हें यह अवसर दिया है।
उसने तुम्हें तुम्हारे छल कपट के लिए क्षमा कर दिया और निर्णय ईश्वर पर छोड़ दिया।
अब इस बात का निर्णय तो सबसे बड़ा शतरंज का खिलाड़ी ईश्वर ही करेगा की जीवन में किसे शह देनी है और किसे मात, जो ईश्वर और धर्म में आस्था और विश्वास रखता है वह दुनिया की बिछाएं शतरंजी चालों में भले ही हार जाए पर उसकी सच्चाई और ईमानदारी ईश्वर की अदालत के दस्तावेज पर लिख दी जाती है अब वह फैसला कब आएगा इसमें थोड़ी देर हो सकती पर जब उसका फैसला आएगा तो कपट की चाल चलने वालों की मात निश्चित है।
यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव है इस लिए हमें कभी भी छल का प्रयोग करके सामने वाले को मात नहीं देनी चाहिए। हां अगर वह स्वयं अपने कारण से मात खा रहा है तो उसमें किसी का दोष नहीं है वह उसके कर्म हैं।
अगर व्यक्ति को उसके कर्मों के कारण शह और मात मिलेगी तो उसे उससे बहुत कुछ सीखने को मिलेगा।
जिंदगी भी शतरंज की बाजी ही है व्यक्ति अगर अपने मन मस्तिष्क को नियंत्रित करने में सफल हो जाता है तो वह किसी भी चाल को मात दे सकता है, और यदि व्यक्ति अपने मन-मस्तिष्क पर नियंत्रण नहीं कर सकता तो उसे जीवन में कठिनाइयों का सामना करना ही पड़ेगा इसलिए इंद्रियों पर विजय प्राप्त करना जरूरी है यह इतना आसान भी नहीं है पर कोशिश तो की जा सकती है अपने जीवन को खुशहाल बनाने के लिए हर कोई परिश्रम करता ही है तो हमें भी करना चाहिए।आज इतना ही कल फिर मिलती हूं।
डॉ कंचन शुक्ला
स्वरचित मौलिक