आज मैं अपनी डायरी में कुछ इतिहास और कुछ अपने मन की बात करूंगी।आज प्रतिलिपि ने वृद्धाश्रम विषय पर कुछ लिखने को कहा है मैंने आज 12 बजे जब इस विषय को देखा तो मेरे मन में द्वंद शुरू हो गया। क्या वृद्धाश्रम की शुरुआत भारत में अभी हुई है।या प्राचीन काल से ही हमारे समाज में वृद्धाश्रम की व्यवस्था विद्यमान थी??
यह प्रश्न मन में उठना स्वाभाविक है आज मैं इसी विषय पर कुछ मन की बात करूंगी।
प्राचीन काल में वानप्रस्थाश्रम व्यवस्था विद्यमान थी इस आश्रम व्यवस्था का पालन हर व्यक्ति करता था।
अब प्रश्न यह है कि वृद्धाश्रम और वानप्रस्थाश्रम क्या है और इसमें अंतर क्या है??
वानप्रस्थाश्रम प्राचीन काल की वह व्यवस्था थी जिसमें व्यक्ति अपने गृहस्थ आश्रम का पालन करने के बाद प्रवेश करता था। कहने का तात्पर्य यह है कि जब व्यक्ति अपने जीवन की सभी जिम्मेदारियों को पूरा कर लेता था तो स्वेच्छा से वह लोग यानि कि माता-पिता वन में चले जाते थे और अपने आगे का जीवन ईश्वर की आराधना में व्यतीत करते थे। प्राचीन काल में वानप्रस्थाश्रम व्यवस्था का बहुत सम्मान था। इस व्यवस्था के कारण परिवार में प्रेम और सौहार्द बना रहता था। क्योंकि दो पीढ़ियों के विचारों में भिन्नता होती है और मतभेद भी उत्पन्न होते हैं जिससे घरेलू कलह उत्पन्न होने लगती है। इसलिए लिए प्राचीन काल में वानप्रस्थाश्रम व्यवस्था का विशेष महत्व था। प्राचीन काल में वानप्रस्थाश्रम व्यवस्था व्यक्ति के मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करने में भी सहायक थी।उस समय लोग स्वेच्छा से इस व्यवस्था को अपनाते थे।
आज आधुनिक युग में वही वानप्रस्थाश्रम व्यवस्था का रूप बदल गया है अब वह वृद्धाश्रम में परिवर्तित हो गया।
आज आधुनिक युग में लोग वानप्रस्थाश्रम का पालन नहीं कर सकते पर यदि घर में रहकर ही वानप्रस्थ आश्रम के नियमों का पालन करें तो शायद आज के युग में वृद्धाश्रम रहें ही नहीं क्योंकि जब दोनों पीढ़ियों के विचारों में भिन्नता होगी तो मतभेद भी उत्पन्न होगे यदि यह मतभेद टकराव का कारण न बने तो मन में दूरियां नहीं उत्पन्न होगी।तब दोनों पक्ष एक-दूसरे की भावनाओं को आहत नहीं करें।
गलती एक पक्ष से ही नहीं होती इसमें दोनों पक्षों की गलती होती है बच्चे माता-पिता की भावनाएं नहीं समझते और माता-पिता बच्चों की जब माता-पिता अपने बच्चों पर अपने विचारों को थोपने लगते हैं तो बच्चे इसे बर्दाश्त नहीं करते और टकराव उत्पन्न हो जाता है।
इसलिए प्राचीन काल में वानप्रस्थाश्रम व्यवस्था विद्यमान थी माता-पिता बच्चों की शादी करके उन्हें उनके हाल पर छोड़ कर ईश्वर की शरण में चले जाते थे।जब उनके बच्चे उनसे सलाह मांगते थे तभी वह देते हैं वरना उनके जीवन में दखलंदाजी नहीं करते थे।
आज कल के माता-पिता साथ रहते हैं माता-पिता अपने समय की बात करते हैं उन्हें वैसे रहने के लिए कहते हैं।बहू नौकरी करती है तब भी उसे सभी काम करने पड़ते हैं सास कहती हम भी तो अपने समय में करते थे।पर वह शायद भूल जाती है कि वह घर पर रहती थी जबकि बहू बाहर नौकरी करती है।
बहू के पहनावे पर प्रश्न चिह्न उठाया जाता है यही छोटी छोटी बातें टकराव का कारण बनती हैं।
यदि हर औरत यह ठान लें कि उसे अपने सास ससुर को वृद्धाश्रम नहीं भेजना है तो कोई भी माता-पिता वृद्धाश्रम नहीं जाएंगे क्योंकि औरत ही हर रिश्ते में है वही बेटी है वही मां है वही सास है वही बहू है और वही पत्नी है। अगर हर औरत अपने फ़र्ज़ को ईमानदारी से निभाए तो कोई वृद्धाश्रम में जाए ही नहीं। जैसे बहू जब अपने सास ससुर को वृद्धाश्रम नहीं भेजेगी तो जब वह सास बनेगी तब उसकी बहू उसे नहीं भेजेगी।
इसमें संस्कार अपनी अहम भूमिका निभा सकते हैं जब मां अपनी बेटी को अच्छे संस्कार देगी तो वह बहू बनकर उन्हें अच्छे से निभाएंगी।
यदि हर बेटी यह संकल्प लें कि उसे अपने माता-पिता और सास ससुर को पूरा सम्मान देना है तो वृद्धाश्रम की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। क्योंकि हर रिश्ते में एक औरत ही है।वही बेटी है वही मां है वही सास है वही बहू है देवरानी जेठानी और ननद भी वही है। कहने तात्पर्य यह है कि यदि औरत संस्कार और परम्पराओं को महत्व देगी तो घर परिवार और समाज सभी जगहों पर शांति और सौहार्द पूर्ण वातावरण बना रहेगा।सास बहू के विचारों में टकराव उत्पन्न ही नहीं होगा। कोई किसी के जीवन में बेवजह दख़ल नहीं देगा तो घर परिवार खुशियों से भरा रहेगा।
यह मेरे व्यक्तिगत विचार हैं आज इतना ही कल कुछ और बातें होंगी।
डॉ कंचन शुक्ला
स्वरचित मौलिक