तीन दिन से छुट्टी पर चल रही है, काम नहीं करना तो मना कर दे, कोई जोर जबरदस्ती थोड़ी है. रोज कोई ना कोई बहाना लेकर भेज देती है अपनी बेटी को, उससे न सफाई ठीक से होती है और ना ही बर्तन साफ़ होते है. कपड़ों पर भी दाग यूँ के यूँ लगे रहते है .......... और उसमे इस बेचारी का दोष भी क्या है? इसकी उम्र भी तो नहीं है अभी ऐसे काम करने की, न जाने क्या सोच कर भेज देती है इसे काम पर ......... ऐसे अनगिनत विचारों ने मेरे दिल में हल्ला बोल दिया, जैसे ही आज भी
मैंने कान्ता बाई की जगह उसकी
बेटी को काम पर आते देखा. वह भी शायद मेरे अंदर की मनोदशा भांप गई थी, इसीलिए आते ही बिना ही कुछ बोले काम पर लग गई.
आज मैंने भी बुलाकर उससे बोल ही दिया
"क्यों री .... तेरी माँ की जगह तू क्यों चली आती है काम पर, तेरी माँ कहाँ है ?"
" माँ तो तीन दिन से छोटे भाई को स्कूल में दाखिला दिलवाने के लिए चक्कर काट रही है."
" और तुझे नहीं जाना स्कूल, जो रोज यहाँ चली आती है"
" मुझे कोन भेजेगा स्कूल .......... माँ कहती है ................ मै लड़की हूँ ना ."
उसकी आवाज मेरे कानो में गूंज उठी
मुझे कौन भेजेगा स्कूल ........ मै लड़की हूँ ना !