आतंकवाद की गोली, हमारा खुदका बोया भ्रष्टाचार, घोटालों और बेईमानी का बीज जिस भारत में पनप रहा है, क्या आम आदमी ने ऐसा ही लोकतंत्र चाहा था? क्या जिन लक्ष्यों, उम्मीदों व सपनों को आजादी के नाम पर संजोया था उसका कुछ हिस्सा भी आम आदमी तक पहुँच पाया है?
यहां साहूकार, जमीदार, और बड़े व्यापारी जरूर फले फूले हैं, गाँवो और शहरों में नेताओं की फ़ौज भी और बढ़ी है, लेकिन इनसे कहीं अधिक मज़दूर की बेबसी बढ़ी है, भूख बढ़ी है, मजदूरी कम और मजबूरी ज़्यादा बढ़ी है. लूटखसोट, ठगी, बेईमानी, घूसखोरी, गुटबंदी और न जाने ऐसा क्या क्या बढ़ा है. आज भी मुठ्ठी भर उद्योगपतियों, नेताओं और अफ़सरों को छोड़ दें तो अधिक भारतीय गरीबी रेखा के नीचे घिसटते नज़र आते हैं जिनके पास न पर्याप्त भोजन है, न कपड़े और न मकान....... फिर क्या मायने है इस आजादी के? यदि यही हालात रहे तो जनता के दिलों में आक्रोश पनपने लगेगा और ये आक्रोश एक नयी क्रांति को जन्म देगा और जो क्रांति आयेगी उसे सम्भालना मुश्किल हो जायेगा. इस क्रांति से बचने के लिए हमारे सामने कई चुनौतियाँ है. शक्ति और साहस के साथ हमे मिलकर इसका सामना करना होगा. सबको एक होकर, भेदभाव मिटाकर आगे बढ़ना होगा, नहीं तो हम पिछड़ जाएंगे. याद रखो इस मिट्टी को कितने ही शहीदों ने मिलकर सींचा है, अब इस मिट्टी पर ही हमे अपना स्वर्ग खड़ा करना है, और ये सब तभी संभव होगा जब हम सत्य, आत्म नियंत्रण और त्याग के मार्ग पर चलेगें.