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मुण्डकोपनिषद :- अथर्ववेद

8 जून 2023

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इस उपनिषद का सम्बन्ध अथर्ववेद से है। इस उपनिषद के तीन मुण्डक है और हर मुण्डक के दो भाग है। यह मुख्य उपनिषद है जो वेदों के 108 उपनिषदों में से पाँचवे नम्बर पर आता है। मुण्डोपनिषद्  लघु होने के पश्चात भी ज्ञान का अद्भुत भंडार है। मनोविज्ञान के कई रहस्यों का बड़ी हि सरलता से स्पष्ट और अकाट्य व्याख्या प्रस्तुत करता है।

आदि शंकराचार्य जी के गुरू के गुरूजी (दादा गुरु) गौड़पादाचार्य जी ने माण्डूक्य उपनिषद के 12 मंत्रों की व्याख्या करते  हुए जिन 215 श्लोकों की रचना की है उस ग्रन्थ का नाम है -माण्डूक्य कारिका। कारिका कहते हैं , श्लोकबद्ध  व्याख्या  को। इस ग्रन्थ के  चार प्रकरण हैं - पहला आगम प्रकरण , दूसरा है वैतथ्य अर्थात मिथ्यात्व प्रकरण, इसमें युक्ति या तर्क के द्वारा द्वैत के मिथ्यात्व को  दिखलाया गया है। तीसरा है, अद्वैत प्रकरण और अलातशान्ति प्रकरण चौथा प्रकरण है। माण्डूक्य कारिका के उन चारो प्रकरणों पर तथा मूल माण्डूक्य उपनिषद पर शंकराचार्य जी ने  व्याख्या की है , उसका नाम है भाष्य। दोनों ग्रन्थ पर आनन्दगिरि जी ने टीका लिखी है।

जिन दस उपनिषदों पर आदि शंकराचार्य जी ने विचार रखे है उनमे से एक मुण्डकोपनिषद है। यह मन्त्रों के रूप में है लेकिन ये धार्मिक मंत्र नहीं है इनका प्रयोग अध्ययन व ध्यान के लिए किया जाता है।भगवन गौड़पदाचार्य जी ने इस पर कारिकाओं कि रचना की।आदि शंकराचार्य जी ने देखा कि माण्डूक्य उपनिषद  तो आसानी से लोगों को समझ में आयेगा नहीं और  भगवन गौड़पदाचार्य जी की कारिका भी गम्भीर है इसलिए उन्होंने उपनिषद् एवं कारिका दोनों पर व्याख्या लिखी । जिसका अध्ययन कर सामान्य जनमानस को इस गूढ ज्ञान का कुछ प्रकाशमय बोध होता है । परन्तु बिना गुरु से समझे सही अर्थ समझ में नहीं आता । जब व्यक्ति को  आत्मा ब्रह्म की एकता का अनुभव व आनन्द का अनुभव बिना साधनों के हो, तब समझ लेना चाहिए कि उसे प्रकाशमय बोध हो गया ।

मम दरसन फल परम अनूपा

जीव पाव निज सहज स्वरुपा।।

जब  आत्मा के ज्ञान से ब्रह्म के ज्ञान की प्राप्ति ,अपने स्वरुप की प्राप्ति, सतस्वरुप की प्राप्ति, चेतनस्वरुप की प्राप्ति, आनन्दस्वरुप की प्राप्ति हो जाए तो समझ लो यही मुक्ति है और यही समस्त दुखों का अन्त है ।

मुण्डकोपनिषद अथर्ववेद की शौनकीय शाखा से सम्बन्धित है।इसे 'मन्त्रोपनिषद' नाम से भी पुकारा जाता है। इस उपनिषद में महर्षि अंगिरा ने शौनक को 'परा-अपरा' विद्या का ज्ञान कराया है।

भारत के राष्ट्रीय चिन्ह में अंकित शब्द "सत्यमेव जयते "  मुंडकोपनिषद से ही लिया गया है।

इसमें आरम्भ में ग्रंथोक्त विधा की आचार्य परम्परा दी गयी है। इसमें बतलाया गया है की यह विधा ब्रम्हा जी से अथर्वा को प्राप्त हुई और क्रमानुसार से अंगी, भारद्वाज, अङ्गिरा को प्राप्त हुई।उन अङ्गिरा मुनि के पास महृषि शौनक ने पूछा,” भगवन ! ऐसी कौनसी वस्तु है जिस एक के जान लेने पर सब कुछ जान लिया जाता है”।

मुण्डकोपनिषद भाग 1 .2

शौनक नामक प्रसिद्ध महागृहस्थ ने गुरु अङ्गिरा के पास जाकर विधिपूर्वक पूछा

कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति।।

भगवन ! ऐसी कौनसी वस्तु है जिस एक के जान लेने पर सब कुछ जान लिया जाता है”।

गुरु अङ्गिरा ने  शौनक को ज्ञान देते हुए बताया  कि ऐसी दो विद्याऐं है परा अर्थात परमात्मविद्या और अपरा अर्थात धर्म-अधर्म के साधन और उनके फल से सम्बन्ध रखने वाली विद्या और इन्हें जान लेने  पर सब कुछ जान लिया जाता है”।

गुरु अङ्गिरा ने समझाते हुए बतलाया कि:-

अपरा विद्या:- ऋग्वेद,यजुर्वेद,सामवेद,अथर्ववेद, शिक्षा, व्याकरण छंद, ज्योतिष, शब्द आदि विद्याऐं अपरा विद्याऐं कहलाति हैं।

परा विद्या:-  वह अक्षर जिस एक अक्षर से ब्रह्म को या परमात्मा को जान लिया जाता वह परा है। परा, वह जो अदृश्य है, अग्रहाय (इन्द्रिया जिसे वश में नहीं कर सकती), अगोत्र है, अवर्ण है (स्थूल व शुक्ल दृव्य के वर्ण) यह वर्ण उसमे विद्यमान नहीं है। वह जो अचःशुषोत्रम है अर्थात जो बिना नेत्र वाला होकर भी देखता है व बिना कर्ण वाला होकर भी सुनता है। वह जो समस्त कर्मेन्द्रियों से रहित है, अविनाशी है, विभु है अर्थात विविध प्रकार का हो जाता है। वह जो सर्वगत व्यापक है अत्यंत सूक्ष्म और अव्यय अर्थात उसका क्षय नहीं सकता। ऐसा अक्षर जिस विद्या से जाना जाता है वही परा विद्या है।

उदाहरण:-

जिस प्रकार मकड़ी जाले बुनती है और उसे निगल जाती है उसी प्रकार उस अक्षर रूपी ब्रह्म से यह विश्व प्रकट होता है। जिस प्रकार मकड़ी अन्य किसी उपकरण का प्रयोग न कर स्वयं अपने शरीर से ही अभिन्न तंतुओ का निर्माण करती है उन्हें बाहर फैलाती है व फिर उन्ही को ग्रहण कर लेती है उसी प्रकार उन मकड़ी के तंतुओं के सामान ही ब्रह्म से उत्पन्न होने वाला यह जगत है। यही परमात्मा या परा विद्या है।

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माण्डूक्योपनिषद अथर्ववेद का एक उपनिषद है। मात्र बारह मंत्रों का माण्डूक्योपनिषद सबसे छोटा उपनिषद होने पर भी अति महत्वपूर्ण समझा जाता है। इस अथर्ववेदीय उपनिषद में परमेश्वर के प्रतीक ॐ (प्रणवाक्षर) की व्याख्या के साथ-साथ ब्रह्म की चार अवस्थाओं - जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय - का वर्णन है।

परम्परा में “ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा ...” के शांतिपाठ के बाद माण्डूक्योपनिषद का आरम्भ होता है। ॐ अक्षर की महिमा से आरम्भ करके इस उपनिषद के सातवें मंत्र तक आत्मा के चार पादों का वर्णन है। इसके अनुसार, परम अक्षर ॐ त्रिकालातीत, अनादि-अनंत, और सम्पूर्ण जगत का मूल है।

ॐ कि व्याख्या।

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माण्डूक्योपनिषद में प्रणवाक्षर ॐ की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि ऊँकार  देश-काल से परे, कालातीत, आद्यंतहीन और सर्वव्यापी है। अ, उ, तथा म, इन तीन मात्राओं से युक्त ॐ में ब्रह्मनाद है, ईश्वर की आराधना है।

ओंकार रूपी आत्मा का जो स्वरूप उसके चतुष्पाद की दृष्टि से इस प्रकार निष्पन्न होता है उसे ही ऊँकार की मात्राओं के विचार से इस प्रकार व्यक्त किया गया है कि :-

:-ऊँ की अकार मात्रा से वाणी का आरंभ होता है और अकार वाणी में व्याप्त भी है।

:-सुषुप्ति स्थानीय प्राज्ञ ऊँ कार की मकार मात्रा है जिसमें विश्व और तेजस के प्राज्ञ में लय होने की तरह अकार और उकार का लय होता है, एवं

:-ऊँ का उच्चारण दुहराते समय मकार के अकार उकार निकलते से प्रतीत होते है। तात्पर्य यह कि ऊँकार जगत् की उत्पत्ति और लय का कारण है।

वैश्वानर, तेजस और प्राज्ञ अवस्थाओं के सदृश त्रैमात्रिक ओंकार प्रपंच तथा पुनर्जन्म से आबद्ध है किंतु

तुरीय की तरह अ मात्र ऊँ अव्यवहार्य आत्मा है जहाँ जीव, जगत् और आत्मा (ब्रह्म) के भेद का प्रपंच नहीं है और केवल अद्वैत शिव ही शिव रह जाता है।

आइये आरम्भ करते हैं १२ श्लोक और उनके अर्थ को समझने का प्रयास।

॥ अथ माण्डूक्योपनिषद ॥

ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः। स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः॥

स्वस्ति न इन्द्रो वॄद्धश्रवाः

स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।

स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः

स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥

ॐ शांतिः । शांतिः । शांतिः ॥

हे यजमान के रक्षक देवताओं! हम दृढ अंगों वाले शरीर से पुत्र आदि के साथ मिलकर आपकी स्तुति करते हुए कानों से कल्याण की बातें सुनें, नेत्रों से कल्याणमयी वस्तुओं को देखें, देवताओं की उपासना-योग्य आयु को प्राप्त करें।

(OM. May we hear what is auspicious with our ears, O ye Gods; may we see what is auspicious with our eyes, O ye of the sacrifice; giving praise with steady limbs, with motionless bodies, may we enter into that life which is founded in the Gods.)

महती कीर्ति वाले ऐश्वर्यशाली इन्द्र हमारा कल्याण करें, जिसको संसार का विज्ञान और जिसका सब पदार्थों में स्मरण है, सबके पोषणकर्ता वे पूषा (सूर्य) हमारा कल्याण करें। जिनकी चक्रधारा के समान गति को कोई रोक नहीं सकता, वे गरुड़देव हमारा कल्याण करें। वेदवाणी के स्वामी बृहस्पति हमारा कल्याण करें। ॐ शांति शांति शांति।

(Ordain weal unto us Indra of high-heaped glories; ordain weal unto us Pushan, the all-knowing Sun; ordain weal unto us Tarkshya Arishtanemi; Brihaspati ordain weal unto us. OM. Peace! peace! peace!)

प्रथम श्लोक

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ॐ इत्येतदक्षरमिदँ सर्वं तस्योपव्याख्यान

भूतं भवद् भविष्यदिति सर्वमोङ्कार एव।

यच्चान्यत् त्रिकालातीतं तदप्योङ्कार एव ॥1॥

अर्थातः-ॐ यह अक्षर ही सब कुछ है। यह जो कुछ भूत, भविष्यत् और वर्तमान है उसी की व्याख्या है; इसलिये यह सब ओंकार ही है। इसके सिवा जो अन्य त्रिकालातीत वस्तु है वह भी ओंकार ही है।

(OM is this imperishable Word, OM is the Universe, and this is the exposition of OM. The past, the present and the future, all that was, all that is, all that will be, is OM. Likewise all else that may exist beyond the bounds of Time, that too is ओम).

टिप्पड़ी:- अक्षरका अर्थ जिसका कभी क्षरण न हो। ऐसे तीन अक्षरों— अ उ और म से मिलकर बना है ॐ। माना जाता है कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्डसे सदा ॐ की ध्वनी निसृत होती रहती है। हमारी और आपके हर श्वास से ॐ की ही ध्वनि निकलती है। यही हमारे-आपके श्वास की गति को नियंत्रित करता है। माना गया है कि अत्यन्त पवित्र और शक्तिशाली है ॐ।

किसी भी मंत्र से पहले यदि ॐ जोड़ दिया जाए तो वह पूर्णतया शुद्ध और शक्ति-सम्पन्न हो जाता है। किसी देवी-देवता, ग्रह या ईश्वर के मंत्रों के पहले ॐ लगाना आवश्यक होता है, जैसे, श्रीराम का मंत्र — ॐ रामाय नमः, विष्णु का मंत्र — ॐ विष्णवे नमः, शिव का मंत्र — ॐ नमः शिवाय, प्रसिद्ध हैं।

कहा जाता है कि ॐ से रहित कोई मंत्र फलदायी नहीं होता, चाहे उसका कितना भी जाप हो। मंत्र के रूप में मात्र ॐ भी पर्याप्त है। माना जाता है कि एक बार ॐ का जाप हज़ार बार किसी मंत्र के जाप से महत्वपूर्ण है।

ॐ का दूसरा नाम प्रणव (परमेश्वर) है। "तस्य वाचकः प्रणवः" अर्थात् उस परमेश्वर का वाचक प्रणव है। इस तरह प्रणव अथवा ॐ एवं ब्रह्म में कोई भेद नहीं है। ॐ अक्षर है इसका क्षरण अथवा विनाश नहीं होता।

गुरु नानक जी का शब्द "ओम सतनाम कर्ता पुरुष निभौं निर्वेर अकालमूर्त"( यानी ॐ सत्यनाम जपनेवाला पुरुष निर्भय, बैर-रहित एवं "अकाल-पुरुष के" सदृश हो जाता है) बहुत प्रचलित तथा सत्प्रतिशत सत्य है। एक ओंकार ही सत्य नाम है। राम, कृष्ण सब फलदायी नाम ओंकार पर निहित हैं तथा ओंकार के कारण ही इनका महत्व है। बाँकी नामों को तो हमने बनाया है परंतु ओंकार ही है जो स्वयंभू है तथा हर शब्द इससे ही बना है। हर ध्वनि में ओउ्म शब्द होता है।

छान्दोग्योपनिषद् में ऋषियों ने गाया है -

ॐ इत्येतत् अक्षरः (अर्थात् ॐ अविनाशी, अव्यय एवं क्षरण रहित है।)

ॐ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों का प्रदायक है। मात्र ॐ का जप कर कई साधकों ने अपने उद्देश्य की प्राप्ति कर ली। कोशीतकी ऋषि निस्संतान थे, संतान प्राप्तिके लिए उन्होंने सूर्यका ध्यान कर ॐ का जाप किया तो उन्हे पुत्र प्राप्ति हो गई।

ॐ अर्थात् ओउम् तीन अक्षरों से बना है, जो सर्व विदित है। अ उ म्। "अ" का अर्थ है आर्विभाव या उत्पन्न होना, "उ" का तात्पर्य है उठना, उड़ना अर्थात् विकास, "म" का मतलब है मौन हो जाना अर्थात् "ब्रह्मलीन" हो जाना। ॐ सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और पूरी सृष्टि का द्योतक है। ॐ में प्रयुक्त "अ" तो सृष्टि के जन्म की ओर इंगित करता है, वहीं "उ" उड़ने का अर्थ देता है, जिसका मतलब है "ऊर्जा" सम्पन्न होना। किसी ऊर्जावान मंदिर या तीर्थस्थल जाने पर वहाँ की अगाध ऊर्जा ग्रहण करने के बाद व्यक्ति स्वप्न में स्वयं को आकाश में उड़ता हुआ देखता है। मौन का महत्व ज्ञानियों ने बताया ही है। अंग्रजी में एक उक्ति है — "साइलेंस इज़ सिल्वर ऍण्ड ऍब्सल्यूट साइलेंस इज़ गोल्ड"। श्री गीता जी में परमेश्वर श्रीकृष्ण ने मौन के महत्व को प्रतिपादित करते हुए स्वयं को मौनका ही पर्याय बताया है —

मौनं चैवास्मि गुह्यानां

"ध्यान बिन्दुपनिषद्" के अनुसार ॐ मन्त्र की विशेषता यह है कि पवित्र या अपवित्र सभी स्थितियों में जो इसका जप करता है, उसे लक्ष्य की प्राप्ति अवश्य होती है। जिस तरह कमल-पत्र पर जल नहीं ठहरता है, ठीक उसी तरह जप-कर्ता पर कोई कलुष नहीं लगता।

तैत्तिरीयोपनिषद शिक्षावल्ली अष्टमोऽनुवाकः में ॐ के विषय में कहा गया हैः-

ओमिति ब्रह्म । ओमितीदँसर्वम् । ओमित्येतदनुकृतिर्हस्म वा अप्यो श्रावयेत्याश्रावयन्ति । ओमिति सामानि गायन्ति ।

ओँशोमिति शस्त्राणि शँसन्ति । ओमित्यध्वर्युः प्रतिगरं प्रतिगृणाति । ओमिति ब्रह्मा प्रसौति । ओमित्यग्निहोत्रमनुजानाति ।

ओमिति ब्राह्मणः प्रवक्ष्यन्नाह ब्रह्मोपाप्नवानीति ब्रह्मैवोपाप्नोति ॥ १ ॥

अर्थातः- ॐ ही ब्रह्म है। ॐ ही यह प्रत्यक्ष जगत् है। ॐ ही इसकी (जगत की) अनुकृति है। हे आचार्य! ॐ के विषय में और भी सुनाएँ। आचार्य सुनाते हैं। ॐ से प्रारम्भ करके साम गायक सामगान करते हैं। ॐ-ॐ कहते हुए ही शस्त्र रूप मन्त्र पढ़े जाते हैं। ॐ से ही अध्वर्यु प्रतिगर मन्त्रों का उच्चारण करता है। ॐ कहकर ही अग्निहोत्र प्रारम्भ किया जाता है। अध्ययन के समय ब्राह्मण ॐ कहकर ही ब्रह्म को प्राप्त करने की बात करता है। ॐ के द्वारा ही वह ब्रह्म को प्राप्त करता है।

सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति

तपाँसि सर्वाणि च यद्वदन्ति ।

यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति

तत्ते पदँ संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत् ॥ १५ ॥ --

(कठोपनिषद, अध्याय १, वल्ली २),

अर्थातः- सारे वेद जिस पद का वर्णन करते हैं, समस्त तपों को जिसकी प्राप्ति के साधक कहते हैं, जिसकी इक्षा से (मुमुक्षुजन) ब्रह्मचर्य का पालन करते है, उस पद को मैं तुमसे संक्षेप में कहता हूँ। ॐ यही वह पद है।

महात्मा कबीर र्निगुण सन्त एवं कवि थे। उन्होंने भी ॐ के महत्व को स्वीकारा और इस पर "साखियाँ" भी लिखीं —

ओ ओंकार आदि मैं जाना।

लिखि औ मेटें ताहि ना माना ॥

ओ ओंकार लिखे जो कोई।

सोई लिखि मेटणा न होई ॥

बाइबिल में भी एक आयत आती है जिसे ईसाई समुदाय अनभिज्ञ होने के कारण उसे समझ नहीं पाता वो निम्न प्रकार है:-

"In the beginning was the word and the word was with God and the word was God".

द्रितिय श्लोक

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सर्वं ह्येतद् ब्रह्मायमात्मा ब्रह्म सोऽयमात्मा चतुष्पात् ॥2॥

यह सम्पूर्ण 'विश्व' 'शाश्वत-ब्रह्म' ही है यह 'आत्मा' 'ब्रह्म' हैं एवं 'आत्मा' चतुर्विध है, इसके चार पाद हैं।

(All this Universe is the Eternal Brahman, this Self is the Eternal, and the Self is fourfold.)

विश्व ब्रह्म से आच्छादित है और यह ब्रह्म चतुष्पद है। ब्रह्म के चार पदों की विशेषताएँ निम्न हैं:

:-प्रथम पाद, यानि जाग्रत अवस्था में ब्रह्म वैश्वानर कहलाता है और वह सात लोक तथा 19 मुखों से स्थूल विषयों का भोक्ता है।

:-द्वितीय पाद में स्वप्नमय निद्रा जैसे सूक्ष्मजगत में ब्रह्म तेजस कहलाता है।

:-ब्रह्म की स्वप्नहीन प्रगाढ़ निद्रा जैसी ज्ञानमय, आनंदमय, प्रलय अवस्था सुषुप्ति कहलाती है।

:-आत्मा का चौथा वास्तविक स्वरूप उसकी तुरीय अवस्था है जिसकी अभिव्यक्ति सरल नहीं क्योंकि यह तुरीयावस्था अन्तःप्रज्ञ, बहिष्प्रज्ञ, उभयप्रज्ञ, प्रज्ञानघन, प्रज्ञ, अप्रज्ञ कुछ भी नहीं, बल्कि शांत, शिव और अद्वैत रूप है। वही आत्मा है और वही साक्षात ब्रह्म का चौथा पद है।

तृतीय श्लोक

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जागरितस्थानो बहिःप्रज्ञः सप्ताङ्ग एकोनविंशतिमुखः

स्थूलभुग्वैश्वानरः प्रथमः पादः ॥3॥

जाग्रत्-अवस्था जिसका स्थान है, जो बहिर्गत जगत् का ज्ञाता है, जो सात अगोंवाला है, जिसके लिए उन्निस द्वार हैं, जो स्थूल पदार्थों की रसानुभूति करता है, 'वैश्वानर' अर्थात् 'विश्व-पुरुष', 'वह' है प्रथम पाद।

(He whose place is the wakefulness, who is wise of the outward, who has seven limbs, to whom there are nineteen doors, who feels and enjoys gross objects, Vaishwanara, the Universal Male, He is the first.)

आध्यात्म उपाधि युक्त कार्य-करण संघात रूप ये जो हमारा स्थूल -शरीर है, यह कार्य -शरीर है। कार्य कहा जाता है स्थूल शरीर को , और करण कहा जाता है -सूक्ष्म शरीर को। सूक्ष्म शरीर के अंतर्गत हैं

5 ज्ञानेन्द्रियाँ ( आँख, कान, नाक, त्वचा व जीभ)

5 कर्मेन्द्रियाँ, (हाथ, पैर, मुँह, निकास और जनेन्द्रिय)

5 प्राण          ( व्यान, समान, अपान, उदान और प्राण) तथा

मन -बुद्धि , चित्त और अहंकार इन १९ तत्वों के समूह या संघात को कहा जाता है -सूक्ष्मशरीर। सूक्ष्मशरीर का दूसरा नाम लिंगशरीर भी है। उपरयुक्त् हि वैश्वानर के १९ द्वार हैं:-

वैश्वानर के सात अंग बताए गए हैं।

आकाश उसका शीश है।

सूर्य उसके नेत्र हैं।

अग्नि उसका ह्रदय है।

वायु उसका श्वांस है।

जल उसका पेट है।

पृथ्वी उसके पैर हैं और

अन्तरीक्ष उसकी देह है।

अभी यह आलेख पढ़ रहे हो तो जागृत अवस्था में ही पढ़ रहे हो? ठीक-ठीक वर्तमान में रहना ही चेतना की जागृत अवस्था है लेकिन अधिकतर लोग ठीक-ठीक वर्तमान में भी नहीं रहते। जागते हुए कल्पना और विचार में खोए रहना ही तो स्वप्न की अवस्था है।

जब हम भविष्य की कोई योजना बना रहे होते हैं, तो वर्तमान में नहीं रहकर कल्पना-लोक में चले जाते हैं। कल्पना का यह लोक यथार्थ नहीं एक प्रकार का स्वप्न-लोक होता है। जब हम अतीत की किसी याद में खो जाते हैं, तो हम स्मृति-लोक में चले जाते हैं। यह भी एक-दूसरे प्रकार का स्वप्न-लोक ही है।

अधिकतर लोग स्वप्‍न लोक में जीकर ही मर जाते हैं, वे वर्तमान में अपने जीवन का सिर्फ 10 प्रतिशत ही जी पाते हैं, तो ठीक-ठीक वर्तमान में रहना ही चेतना की जागृत अवस्था है।

स्वप्नस्थानोऽन्तःप्रज्ञः सप्ताङ्ग एकोनविंशतिमुखः

प्रविविक्तभुक्तैजसो द्वितीयः पादः ॥4॥

चतुर्थ श्लोक

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स्वप्नावस्था जिसका स्थान है, जो अन्तर्जगत् का ज्ञाता है, जो सात अगोंवाला है, जिसके लिए उत्रीस द्वार हैं, जो सूक्ष्म पदार्थों की रसानुभूति करता है, 'तेजस' अर्थात् 'तेजोमय मन' में 'निवास करने वाला', 'वह' द्वितीय पाद है।

(He whose place is the dream, who is wise of the inward, who has seven limbs, to whom there are nineteen doors, who feels and enjoys subtle objects, Taijasa, the Inhabitant in Luminous Mind, He is the second.)

भगवद गीता में प्रभु कहते हैं:- अध्याय २

श्रीभगवानुवाच प्रजहाति यदा कामान्‌ सर्वान्पार्थ मनोगतान्‌।

आत्मयेवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते॥ 55 ॥

श्री भगवान्‌ बोले- हे अर्जुन! जिस काल में यह पुरुष मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं को भलीभाँति त्याग देता है और आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता है, उस काल में वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है ॥ 5

प्रभु पुन: उपदेश देते हैं:- अध्याय २

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।

रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्टवा निवर्तते॥ 59 ॥

इन्द्रियों द्वारा विषयों को ग्रहण न करने वाले पुरुष के भी केवल विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, परन्तु उनमें रहने वाली आसक्ति निवृत्त नहीं होती। इस स्थितप्रज्ञ पुरुष की तो आसक्ति भी परमात्मा का साक्षात्कार करके निवृत्त हो जाती है ॥ 59 ॥

स्वप्न का विज्ञान - हम रात भर स्वप्न देखते हैं। दिवा स्वप्न भी अक्सर लोग देखते रहते हैं, दिवा स्वप्न कल्पना कहलाते हैं। नीद में देखा गया स्वप्न ही स्वप्न होता है। कभी कभी कुछ कम अवधि के स्वप्न याद रहते हैं। श्रुति में स्वप्न के विषय में जगह जगह चर्चा हुयी है। वृहदारण्यक उपनिषद् में स्वप्न के विषय में प्रसंग है, जिस प्रकार एक राजा अपने सेवक और प्रजा के साथ देश का भ्रमण करता है उसी प्रकार जीव स्वप्नावस्था में प्राण, शब्द, वाणी आदि को लेकर इस शरीर में इच्छानुसार विचरता है। वृहदारण्यक उपनिषद् में वर्णन है स्वप्नावस्था में जीव लोक–परलोक दोनों देखता है और दुःख सुख दोनों का अनुभव करता है। इस स्थूल शरीर को अचेत करके जीव वासनामय शरीर की रचना करता है फिर लोक परलोक देखता है। इस अवस्था में देश-विदेश, नदी, तालाब, सागर, पर्वत मैदान. वृक्ष, मल, मूत्र, स्त्री, पुरुष, सेक्स, क्रोध, भय आदि नाना प्रकार के संसार की रचना कर लेता है। जीव द्वारा स्वप्न में भी सृष्टि-सांसारिक पदार्थों की रचना होती है। यह रचना अत्यंत रहस्यमय और अति विचित्र होती है। मांडूक्योपनिषद् में गूढ़ रूप से स्वप्न को स्पष्ट किया है।

स्वप्न भांति सम व्याप्त जग ज्ञान ब्रह्म पर ब्रह्म सात अंग उन्नीस मुख तैजस दूसर पाद.

विशेष – सात अंग सात लोक हैं। मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा, सहत्रधार चक्र. उन्नीस मुख पांच कर्मेन्द्रियाँ, पांच ज्ञानेन्द्रियाँ.पांच प्राण- प्राण, अपान, समान,’व्यान, उदान तथा मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार.

उकार मात्रा दूसरी और श्रेष्ठ अकार उभय भाव है स्वप्नवत तैजस दूसर पाद

स्वप्न में जीवात्मा अपनी सभी उपाधियों के समूह साथ एक होता है, इस समय अन्तःकरण तेजोमय होने के कारण इस अवस्था में आत्मा को तैजस कहा है। तैजस ब्रह्म की ऊपर से नीचे तीसरी अवस्था है। स्वप्नावस्था में दोनों जीवात्मा और आत्मा का तैजस स्वरूप मनोवृत्ति से शब्द स्पर्श रूप रस गंध का अनुभव करते हैं। तैजस सूक्ष्म विषयों का भोक्ता है। जीवात्मा और आत्मा का तैजस स्वरूप दोनों अभेद हैं जैसे जल की बूंद में और जलाशय मैं पडने वाला आकाश का प्रतिविम्ब. कठोपनिषद कहता है- ‘य एष सुप्तेषु जागर्ति कामं कामं पुरुषो निर्मिमाणः’ यह पुरुष जो नाना भोगों की रचना करता है सबके सो जाने पर स्वयं जागता है। यहाँ पुरुष को कामनाओं का निर्माता बतलाया है। अतः सिद्ध है स्वप्न में भी सृष्टि होती है, क्या स्वप्न में हुई सृष्टि वास्तविक है।-तात्कालिक रूप से स्वप्न में हुई सृष्टि का कोई अस्तित्व नहीं दिखायी देता परन्तु इस विषय में मेरा निश्चित विचार है कि स्वप्न में जो भी देखा सुना जाता है उसे सृष्टि में किसी न किसी जगह किसी न किसी जीव अथवा पदार्थ के रूप में होना निश्चित है। स्वप्न और सृष्टि के विकास का गहरा सम्बन्ध है स्वप्न है तो सृष्टि है और सृष्टि है तो स्वप्न हैं।

स्वप्न के शुभ–अशुभ परिणाम- श्रुति का इस विषय में निश्चत मत है कि स्वप्न भविष्य में होने वाले शुभ–अशुभ परिणाम के सूचक हैं। एतरेय आरण्यक के अनुसार स्वप्न में दांत वाले पुरुष को देखना मृत्यु का सूचक है।

छान्दग्योपनिषद में कहा है जब कामना की पूर्ति के लिए स्वप्न में स्त्री को देखना समृद्धि का सूचक है। आदि

सुसुप्ति का रहस्य- सुषुप्ति काले सकले विलीने तमोऽभिभूतः सुखरूपमेति – केवल्य

प्रत्येक प्राणी के लिए नीद आवश्यक है नीद की दो अवस्थाएँ है। स्वप्नावास्था और सुषुप्ति. सुषुप्ति वह अवस्था है जब कोई स्वप्न भी नहीं रहता. प्रश्नोपनिषद बताता है जब उदान वायु द्वारा CNS (स्नायुतंत्र पर) पूर्ण रूप से अधिकार कर लिया जाता है तब सुषुप्ति अवस्था होती है। वेदान्त बताता है सुषुप्ति काल में इन्द्रियों और उनके विषय नहीं रहते. इस अवस्था में कोई आसक्ति न होने से यहाँ जीव आनन्द का अनुभव करता है। सुषुप्ति काल में स्थूल और सूक्ष्म दोनों विलीन हो जाते हैं। व्यावहारिकसत्ता और स्वप्न प्रपंच अपने कारण अज्ञान में लीन हो जाते हैं। केवल शुद्ध चेतन्य अंश उपस्थित रहता है। इस अवस्था में ईश्वर और जीव आनन्द का अनभव करते हैं परन्तु इस समय वृत्ति अज्ञानमय होती है मांडूक्योपनिषद् सुषुप्ति को स्पष्ट करता है।

नहीं स्वप्न नहिं दृश्य सुप्त सम है ज्ञान घन मुख चैतन्य परब्रह्म आनन्द भोग का भोक्ता तीसर पाद पर ब्रह्म.

मकार तीसरी मात्रा माप जान विलीन सुसुप्ति स्थान सम देह है प्रज्ञा तीसर पाद जान माप सर्वस्व को सब लय होत स्वभाव.

चैतन्य से दीप्त अज्ञान वृत्ति से मुक्त होकर आनन्द को भोगता है। इसी कारण सोकर उठा हुआ मनुष्य कहता है मैं सुख पूर्वक सोया, बढ़े चैन से सोया, इन शब्दों से सुषुप्ति में आनन्द के अस्तित्व का पता चलता है। मुझे कुछ याद नहीं है, इससे अज्ञान के अस्तित्व का भी पता चलता है।

स्वप्न के विषय में सबसे महत्व की खोजें डाक्टर सिगमंड फ्रायड ने की हैं। इन्होंने अपने अध्ययन से यह निर्धारित किया कि मनुष्य के भीतरी मन को जानने के लिए उसके स्वप्नों को जानना नितांत आवश्यक है। "इंटरप्रिटेशन ऑव ड्रीम्स ऑव ड्रीम्स" नामक अपने ग्रंथ में इन्होंने यह बताने की चेष्टा की है कि जिन स्वप्नों को हम निरर्थक समझते हैं उनके विशेष अर्थ होते हैं। इन्होंने स्वप्नों के संकेतों के अर्थ बताने और उनकी रचना को स्पष्ट करने की चेष्टा की है। इनके कथनानुसार स्वप्न हमारी उन इच्छाओं को सामान्य रूप से अथवा प्रतीक रूप से व्यक्त करता है जिसकी तृप्ति जाग्रत अवस्था में नहीं होती। पिता की डाँट के डर से जब बालक मिठाई और खिलौने खरीदने की अपनी इच्छा को प्रकट नहीं करता तो उसकी दमित इच्छा स्वप्न के द्वारा अपनी तृप्ति पा लेती है। जैसे जैसे मनुष्य की उम्र बढ़ती जात है उसका समाज का भय जटिल होता जाता है। इस भय के कारण वह अपनी अनुचित इच्छाओं को न केवल दूसरों से छिपाने की चेष्टा करता है वरन् वह स्वयं से भी छिपाता है। डाक्टर फ्रायड के अनुसार मनुष्य के मन के तीन भाग हैं। पहला भाग वह है जिसमें सभी इच्छाएँ आकर अपनी तृप्ति पाती हैं। इनकी तृप्ति के लिए मनुष्य को अपनी इच्छाशक्ति से काम लेना पड़ता है। मन का यह भाग चेतन मन कहलाता है। यह भाग बाहरी जगत् से व्यक्ति का समन्वय स्थापित करता है। मनुष्य के मन का दूसरा भाग अचेतन मन कहलाता है। यह भाग उसकी सभी प्रकार की भोगेच्छाओं का आश्रय है। इसी में उसकी सभी दमित इच्छाएँ रहती हैं। उसके मन का तीसरा भाग अवचेतन मन कहलाता है। इस भाग में मनुष्य का नैतिक स्वत्व रहता है। डाक्टर फ्रायड ने नैतिक स्वत्व को राज्य के सेन्सर विभाग की उपमा दी है। जिस प्रकार राज्य का सेन्सर विभाग किसी नए समाचार के प्रकाशित होने के पूर्व उसकी छानबीन कर लेता है। उसी प्रकार मनुष्य के अवचेतन मन में उपस्थित सेन्सर अर्थात् नैतिक स्वत्व किसी भी वासना के स्वप्नचेतना में प्रकाशित होने के पूर्व काँट छाँट कर देता है। अत्यंत अप्रिय अथवा अनैतिक स्वप्न देखने के पश्चात् मनुष्य को आत्मभत्र्सना होती है। स्वप्नद्रष्टा को इस आत्मभत्र्सना से बचाने के लिए उसके मन का सेन्सर विभाग स्वप्नों में अनेक प्रकार की तोड़मरोड़ करके दबी इच्छा को प्रकाशित करता है। फिर जाग्रत होने पर यही सेन्सर हमें स्वप्न के उस भाग को भुलवा देता है। जिससे आत्मभत्र्सना हो। इसी कारण हम पूरे स्वप्नों को ही भूल जाते हैं।

डाक्टर फ्रायड ने स्वप्नरचना के पाँच-सात प्रकार बताए हैं। उनमें से प्रधान हैं - संक्षेपण, विस्तारीकरण, भावांतरकरण तथा नाटकीकरण। संक्षेपण के अनुसार कोई बहुत बड़ा प्रसंग छोटा कर दिया जाता है। विस्तारीकरण में ठीक इसका उल्टा होता है। इसमें स्वप्नचेतना एक थोड़े से अनुभव को लंबे स्वप्न में व्यक्त करती है। मान लीजिए किसी व्यक्ति ने किसी पार्टी में हमारा अपमान कर दिया और इसका हम बदला लेना चाहते हैं। परंतु हमारा नैतिक स्वप्न इसका विरोधी है, तो हम अपने स्वप्न में देखेंगे कि जिस व्यक्ति ने हमारा अपमान किया है वह अनेक प्रकार दुर्घटनाओं में पड़ा हुआ है। हम उसकी सहायता करना चाहते हैं, परंतु परिस्थितियों ऐसी हैं जिनके कारण हम उसकी सहायता नहीं कर पाते। भावांतरीकरण की अवस्था में हम अपने अनैतिक भाव को ऐसे व्यक्ति के प्रति प्रकाशित होते नहीं देखते जिसके प्रति उन भावों का प्रकाशन होना आत्मग्लानि पैदा करता है। कभी-कभी किशोर बालक भयानक स्वप्न देखते हैं। उनमें वे किसी राक्षस से लड़ते हुए अपने को पाते हैं। मनोविश्लेषण से पीछे पता चलता है कि यह राक्षस उनका पिता, चाचा, बड़ा भाई, अध्यापक अथवा कोई अनुशासक ही रहता है।

नाटकीकरण के अनुसार जब कोई विचार इच्छा अथवा स्वप्न में प्रकाशित होता है तो वह अधिकतर दृष्टि प्रतिमाओं का सहारा लेता है। स्वप्नचेतना अनेक मार्मिक बातों को एक पूरी परिस्थिति चित्रित करके दिखाती है। स्वप्न किसी शिक्षा को सीधे रूप से नहीं देता। स्वप्न में जो अनेक चित्रों और घटनाओं के सहारे कोई भाव व्यक्त होता है उसका अर्थ तुरंत लगाना संभव नहीं होता। मान लीजिए, हम अकेले में हैं और हमें डर लगता है कि हमारे ऊपर कोई आक्रमण न कर कर दे। यह छोटा सा भाव अनेक स्वप्नों को उत्पन्न करता है। हम ऐसी परिस्थिति में पड़ जाते हैं जहाँ हम अपने को सुरक्षित समझते हैं परंतु हमें बाद को भारी धोखा होता है।

डाक्टर फ्रायड का कथन है कि स्वप्न के दो रूप होते हैं - एक प्रकाशित और दूसरा अप्रकाशित। जो स्वप्न हमें याद आता है वह प्रकाशित रूप है। यह रूप उपर्युक्त अनेक प्रकार की तोड़ मोड़ की रचनाओं और प्रतीकों के साथ हमारी चेतना के समक्ष आता है। स्वप्न का वास्तविक रूप यह है जिसे गूढ़ मनोवैज्ञानिक खोज के द्वारा प्राप्त किया जाता है। स्वप्न का जो अर्थ सामान्य लोग लगाते हैं वह उसके वास्तविक अर्थ से बहुत दूर होता है। यह वास्तविक अर्थ स्वप्ननिर्माण कला के जाने बिना नहीं लगाया जा सकता।

चार्ल्स युंग ने स्वप्न के विषय में कुछ बातें डाक्टर फ्रायड से भिन्न कही हैं। उनके कथनानुसार स्वप्न के प्रतीक सभी समय एक ही अर्थ नहीं रखते। स्वप्नों के वास्तविक अर्थ जानने के लिए स्वप्नद्रष्टा के व्यक्तित्व को जानना, उसकी विशेष समस्याओं को समझना और उस समय देश, काल और परिस्थितियों को ध्यान में रखना नितांत आवश्यक है। एक ही स्वप्न भिन्न-भिन्न स्वप्नद्रष्टा के लिए भिन्न-भिन्न अर्थ रखता है और एक ही द्रष्टा के लिए भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में भी उसके भिन्न-भिन्न अर्थ होते हैं। अतएव जब तक स्वयं स्वप्नद्रष्टा किसी अर्थ को स्वीकार न कर ले तब तक हमें यह नहीं जानना चाहिए कि स्वप्न का वास्तविक अर्थ प्राप्त होगा। डॉक्टर फ्रायड की मान्यता के अनुसार अधिक स्वप्न हमारी काम वासना से ही संबंध रखते हैं। युंग के कथनानुसार स्वप्नों का कारण मनुष्य के केवल वैयक्तिक अनुभव अथवा उसकी स्वार्थमयी इच्छाओं का ही दमन मात्र नहीं होता वरन् उसके गंभीरतम मन की आध्यात्मिक अनुभूतियाँ भी होती हैं। इसी के कारण मनुष्य अपने स्वप्नों के द्वारा जीवनोपयोगी शिक्षा भी प्राप्त कर लेता है।

चार्ल्स युंग के मतानुसार स्वप्न केवल पुराने अनुभवों की प्रतिक्रिया मात्र नहीं हैं वरन् वे मनुष्य के भावी जीवन से संबंध रखते हैं। डॉक्टर फ्रायड सामान्य प्राकृतिक जड़वादी कारणकार्य प्रणाली के अनुसार मनुष्य के मन की सभी प्रतिक्रियाओं को समझने की चेष्टा करते हैं। इनके प्रतिकूल डॉक्टर युंग मानसिक प्रतिक्रियाओं को मुख्यत: लक्ष्यपूर्ण सिद्ध करते हैं। जो वैज्ञानिक प्रणाली जड़ पदार्थों के व्यवहारों को समझने के लिए उपयुक्त होती है वही प्रणाली चेतन क्रियाओं को समझाने में नहीं लगाई जा सकती। चेतना के सभी कार्य लक्ष्यपूर्ण होते हैं। स्वप्न भी इसी प्रकार का एक लक्ष्यपूर्ण कार्य है जिसका उद्देश्य रोगी के भावी जीवन को नीरोग अथवा सफल बनाना है। युंग के कथनानुसार मनुष्य स्वप्न द्वारा ऐसी बातें जान सकता है जिनके अनुसार चलने से वह अपने आपको अनेक प्रकार की दुर्घटनाओं और दु:खों से बचा सकता है। इस तथ्य को उन्होंने अनेक दृष्टांतों के द्वारा समझाया है।

पंचम श्लोक

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यत्र  सुप्तो न कञ्चन कामं कामयते

न कञ्चन स्वप्नं पश्यति तत् सुषुप्तम् ।

सुषुप्तस्थान एकीभूतः प्रज्ञानघन एवानन्दमयो

ह्यानन्दभुक् चेतोमुखः प्राज्ञस्तृतीयः पादः ॥5॥

जब कोई सोता है तथा किसी भी कामना की अभिलाषा नहीं करता, न किसी स्वप्न को देखता है, वह है पूर्ण सुषुप्तावस्था। सुषुप्ति जिसका स्थान है, जो 'एकीभूत' हो गया है, जो प्रज्ञानघन अर्थात् स्वयं में घनीभूत प्रज्ञा है जो केवल आनन्दमय है, जो निरपेक्ष आनन्द का रसास्वाद करता है, सचेतन मन जिसके लिए द्वार है 'प्राज्ञ' 'प्रज्ञा का ईश', 'वह' तृतीय पाद है।

(When one sleeps and yearns not with any desire, nor sees any dream, that is the perfect slumber. He whose place is the perfect slumber, who is become Oneness, who is wisdom gathered into itself, who is made of mere delight, who enjoys delight unrelated, to whom conscious mind is the door, Prajna, the Lord of Wisdom, He is the third.)

सुषुप्ति अवस्था : गहरी नींद को सु‍षुप्ति कहते हैं। इस अवस्था में पांच ज्ञानेंद्रियां और पांच कर्मेंद्रियां सहित चेतना (हम स्वयं) विश्राम करते हैं। पांच ज्ञानेंद्रियां- चक्षु, श्रोत्र, रसना, घ्राण और त्वचा। पांच कर्मेंन्द्रियां- वाक्, हस्त, पैर, उपस्थ और पायु।

सुषुप्ति की अवस्था चेतना की निष्क्रिय अवस्था है। यह अवस्था सुख-दुःख के अनुभवों से मुक्त होती है। इस अवस्था में किसी प्रकार के कष्ट या किसी प्रकार की पीड़ा का अनुभव नहीं होता। इस अवस्था में न तो क्रिया होती है, न क्रिया की संभावना। मृत्यु काल में अधिकतर लोग इससे और गहरी अवस्था में चले जाते हैं।

षष्ठी श्लोक

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एष सर्वेश्वर एष सर्वज्ञ एषोऽन्तर्याम्येष योनिः

सर्वस्य प्रभवाप्ययौ हि भूतानाम् ॥6॥

यह 'सर्वेश्वर' है, यह 'सर्वज्ञ' है, यह है 'अन्तरात्मा'-अन्तर्यामी, यह समस्त विश्व की 'योनि' अर्थात् जन्म देने वाला 'गर्भ' है, यह समस्त प्राणियों की 'उत्पत्ति' एवं उनका 'प्रलय' है।

(This is the Almighty, this is the Omniscient, this is the Inner Soul, this is the Womb of the Universe, this is the Birth and Destruction of creatures.)

तुरीय अवस्था : चेतना की चौथी अवस्था को तुरीय चेतना कहते हैं। यह अवस्था व्यक्ति के प्रयासों से प्राप्त होती है। चेतना की इस अवस्था का न तो कोई गुण है, न ही कोई रूप। यह निर्गुण है, निराकार है। इसमें न जागृति है, न स्वप्न और न सुषुप्ति। यह निर्विचार और अतीत व भविष्य की कल्पना से परे पूर्ण जागृति है।

यह उस साफ और शांत जल की तरह है जिसका तल दिखाई देता है। तुरीय का अर्थ होता है चौथी। इसके बारे में कुछ कहने की सुविधा के लिए इसे संख्या से संबोधित करते हैं। यह पारदर्शी कांच या सिनेमा के सफेद पर्दे की तरह है जिसके ऊपर कुछ भी प्रोजेक्ट नहीं हो रहा।

जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति आदि चेतनाएं तुरीय के पर्दे पर ही घटित होती हैं और जैसी घटित होती हैं, तुरीय चेतना उन्हें हू-ब-हू हमारे अनुभव को प्रक्षेपित कर देती है। यह आधार-चेतना है। यहीं से शुरू होती है आध्यात्मिक यात्रा, क्योंकि तुरीय के इस पार संसार के दुःख तो उस पार मोक्ष का आनंद होता है। बस, छलांग लगाने की जरूरत है।

तुरीय शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में भी मिलता है।

यत्त्वा तुरीयमृतुभिर्द्रविणोदो यजामहे ।अध स्मा नो ददिर्भव ॥ (ऋग्वेद १/१५/१०)

तुरीय अनुभव की एक अवस्था है, जिसमें मन और मस्तिष्क में कुछ भी नहीं चलता है - यह भी नहीं कि कुछ नहीं है। यह ध्यान की चौथी (चतुरीय )अवस्था है, इससे पहले की तीन अवस्थाओं में इंद्रियों द्वारा महसूस की गई बात (कोई रूप, कोई गन्ध, कोई ख़याल), कल्पना की गई बात और शून्य महसूस किया जाता है। इसका सबसे पहला संदर्भ माण्डूक्योपनिषद में हुआ है

सप्तमी श्लोक

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नान्तःप्रज्ञं न बहिष्प्रज्ञं नोभयतःप्रज्ञं

न प्रज्ञानघनं न प्रज्ञं नाप्रज्ञम् ।

अदृष्टमव्यवहार्यमग्राह्यमलक्षणं

अचिन्त्यमव्यपदेश्यमेकात्मप्रत्ययासारं प्रपञ्चोपशमं

शान्तं शिवमद्वैतं चतुर्थं मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः ॥7॥

वह न अन्तःप्रज्ञ है न बहिष्प्रज्ञ है, न उभय-प्रज्ञ अर्थात् अन्तः एवं बहिष्प्रज्ञ एक साथ है, न वह प्रज्ञान-घन है, न प्रज्ञ (ज्ञाता) है, न अप्रज्ञ (अज्ञाता)। वह जो अदृष्ट है, अव्यवहार्य है, अग्राह्य है, अलक्षण है, अचिन्त्य है, अव्यपदेश्य अर्थात् अनिर्देश्य है, 'आत्मा' के ऐकान्तिक अस्तित्व का बोध ही जिसका सार है, 'जिसमें' समस्त प्रपञ्चात्मक जगत् का विलय हो जाता है, जो 'पूर्ण शान्त' है, जो 'शिवम्' है-मंगलकारी है, और जो 'अद्वैत' है, 'उसे' ही चतुर्थ (पाद) माना जाता है; 'वही' है 'आत्मा', एकमात्र 'वही' 'विज्ञेय' (जानने योग्य तत्त्व) है।

(He who is neither inward-wise, nor outward-wise, nor both inward- and outward-wise, nor wisdom self-gathered, nor possessed of wisdom, nor unpossessed of wisdom, He Who is unseen and incommunicable, unseizable, featureless, unthinkable, and unnameable, Whose essentiality is awareness of the Self in its single existence, in Whom all phenomena dissolve, Who is Calm, Who is Good, Who is the One than Whom there is no other, Him they deem the fourth: He is the Self, He is the object of Knowledge.)

आत्मा के सही स्वरूप का ज्ञान किसे और कैसे मिलता है इस बात का उल्लेख  अधःप्रस्तुत तीन मंत्रों में मिलता है:

नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन ।

यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनुं स्वाम् ।।3।।

(मुण्डकोपनिषद्, मुंडक 3, खंड 2)

(न अयम् आत्मा प्रवचनेन लभ्यः न मेधया न बहुना श्रुतेन, यम् एव एषः वृणुते तेन लभ्यः, तस्य एषः आत्मा विवृणुते तनुम् स्वाम् ।)

अर्थ – यह आत्मा प्रवचनों से नहीं मिलती है और न ही बौद्धिक क्षमता से अथवा शास्त्रों के श्रवण-अध्ययन से । जो इसकी ही इच्छा करता है उसेयह प्राप्त होता है, उसी के समक्ष यह आत्मा अपना स्वरूप उद्घाटित करती है ।

यहां आत्मा को पाने का अर्थ है आत्मा के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना । धार्मिक गुरुओं के प्रवचन सुनने से, शास्त्रों के विद्वत्तापूर्ण अध्ययन से, अथवा ढेर सारा शास्त्रीय वचनों को सुनने से यह ज्ञान नहीं मिल सकता है । इस ज्ञान का अधिकारी वह है जो मात्र उसे पाने की आकांक्षा रखता है । तात्पर्य यह है कि जिसने भौतिक इच्छाओं से मुक्ति पा ली हो और जिसके मन में केवल उस परमात्मा के स्वरूप को जानने की लालसा शेष रह गयी हो वही उस ज्ञान का हकदार है । जो एहिक सुख-दुःखों, नाते-रिश्तों, क्रियाकलापों, में उलझा हो उसे वह ज्ञान नहीं प्राप्त हो सकता है । जिस व्यक्ति का भौतिक संसार से मोह समाप्त हो चला हो वस्तुतः वही कर्मफलों से मुक्त हो जाता है और उसका ही परब्रह्म से साक्षात्कार होता है ।

नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो न च प्रमादात्तपसो वाप्यलिंगात् ।

एतैरुपायैर्यतते यस्तु विद्वान्स्तस्यैष आत्मा विशते ब्रह्मधाम ।।4।।

(यथा पूर्वोक्त)

(न अयम् आत्मा बल-हीनेन लभ्यः न च प्रमादात् तपसः वा अपि अलिंगात् एतैः उपायैः यतते यः तु विद्वान् तस्य एषः आत्मा विशते ब्रह्म-धाम ।)

अर्थ – यह आत्मा बलहीन को प्राप्त नहीं होती है, न ही धनसंपदा, परिवार के विषयों में लिप्त रहने वाले को, और न तपस्यारत किंतु संन्यासरहित व्यक्ति को । जो विद्वान एतद्विषयक उपायों को प्रयास में लेता है उसी की आत्मा परब्रह्मधाम में प्रवेश करती है ।

यहां पर बलहीन का अर्थ सामान्य दैहिक अथवा बौद्धिक  बल से नहीं है । जिसके पास आत्मसंयम का सामर्थ्य है वही बलवान है क्योंकि वह विपरीत परिस्थिति में भी अविचलित रह सकता है । किंतु ऐसा व्यक्ति भी मोक्ष्य के योग्य नहीं होता । संन्यास का अर्थ है सांसारिक बंधनों से स्वयं को मुक्त करना । जिस व्यक्ति को कोई लालसा नहीं, जो संभी बंधन तोड़ चुका हो, जिसका न कोई अपना रह गया हो और न पराया वह वीतराग संन्यासी कहलाता है । ऐसा संन्यासी बनना ही परब्रह्म के ज्ञान का उपाय है ।

संप्राप्यैनमृषयो ज्ञानतृप्ताः कृतात्मानो वीतरागः प्रशान्ताः ।

ते सर्वगं सर्वतः प्राप्य धीरा युक्तात्मानः सर्वमेवाविशन्ति ।।5।।

(यथा पूर्वोक्त)

(संप्राप्य एनम् ऋषयः ज्ञान-तृप्ताः कृत-आत्मानः वीत-रागः प्रशान्ताः ते सर्वगं सर्वतः प्राप्य धीराः युक्त-आत्मानः सर्वम् एव आविशन्ति ।)

अर्थ – आत्मा के यथार्थ को पा लेने पर ऋषिगण ज्ञानतृप्त, कृतकृत्य, विरक्त, और परम शान्त हो जाते हैं । वे धीर पुरुष उस सर्वव्यापी परब्रह्म को सर्वत्र प्राप्त करते हुए और उससे युक्तचित्त होकर उसी संपूर्ण ब्रह्म में प्रवेश कर जाते हैं, यानी उससे एकाकार हो जाते हैं ।

इस मंत्र की व्याख्या में कहा गया है कि आत्मा के मूलस्वरूप का ज्ञान पा चुकने वाले ऋषि के लिए उसका शरीर एक अस्थाई सांसारिक बंधन रह जाता है । उसके लिए देहत्याग पर परब्रह्म में लीन होना वैसा ही होता है जैसा किसी घड़े के टूटकर बिखरने पर उसके भीतर के आंशिक आकाश और बाह्य असीमित आकाश के बीच का भेद समाप्त हो जाता है । युक्तचित्त की स्थिति में केवल ब्रह्म का ही भाव उसके मन में रह जाता है और सांसारिक समस्त वस्तुओं में उसी ब्रह्म के दर्शन होने लगते है । उसके लिए कुछ भी सांसारिक बांछनीय नहीं रह जाता है । प्राचीन काल में वैदिक चिंतकों को कदाचित घड़े का दृष्टांत ही उपयुक्त लगा होगा । आज विकल्पतः हवा भरे गुब्बारे का दृष्टांत सोचा जा सकता है जिसके, भीतर का आकाश बाह्य आकाश से पूरी तरह विभक्त रहता है ।

भगवद गीता में योगेश्वर प्रभु श्रीकृष्ण कहते हैं:- अध्याय २

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्‌।

उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते॥ 19 ॥

जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते क्योंकि यह आत्मा वास्तव में न तो किसी को मारता है और न किसी द्वारा मारा जाता है ॥ 19 ॥

देवकीनंदन सुदर्शन चक्र धारी प्रभु पून: कहते हैं:- अध्याय 2

न जायते म्रियते वा कदाचि- न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।

अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो- न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥ 20 ॥

यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है, शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता ॥ 20 ॥

आत्मा के स्वरूप को पून्: व्यक्त करते हुए प्रभु कहते हैं:- अध्याय २

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।

तथा शरीराणि विहाय जीर्णा- न्यन्यानि संयाति नवानि देही॥ 22 ॥

जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त होता है ॥ 22 ॥

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।

न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥ 23 ॥

इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते, इसको आग नहीं जला सकती, इसको जल नहीं गला सकता और वायु नहीं सुखा सकता ॥ 23 ॥

अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।

नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः॥ 24 ॥

क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य है, यह आत्मा अदाह्य, अक्लेद्य और निःसंदेह अशोष्य है तथा यह आत्मा नित्य, सर्वव्यापी, अचल, स्थिर रहने वाला और सनातन है ॥ 24 ॥

अष्टम श्लोक

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सोऽयमात्माध्यक्षरमोङ्करोऽधिमात्रं पादा मात्रा मात्राश्च

पादा अकार उकारो मकार इति ॥8॥

अथ, यह है 'आत्मा', और 'अक्षर-शब्द' है 'ओम्'; और 'उसके' पाद (अंश) हैं उसके वर्णाक्षर, तथा वर्णाक्षर हैं 'उसके' पादांश-'अकार', 'उकार' तथा 'मकार'।

(Now this the Self, as to the imperishable Word, is OM: and as to the letters, His parts are the letters and the letters are His parts, namely, A U M.)

भगवद गीता अध्याय ८ में प्रभु कहते हैं:-

ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्‌।

यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्‌॥ 13 ॥

जो पुरुष 'ॐ' इस एक अक्षर रूप ब्रह्म को उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थस्वरूप मुझ निर्गुण ब्रह्म का चिंतन करता हुआ शरीर को त्यागकर जाता है, वह पुरुष परम गति को प्राप्त होता है ॥ 13 ॥

नवम श्लोक

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जागरितस्थानो वैश्वानरोऽकारः प्रथमा

मात्राऽऽप्तेरादिमत्त्वाद्वाऽऽप्नोति ह वै सर्वान् कामानादिश्च

भवति य एवं वेद ॥9॥

जागरित-अवस्थावाला, 'वैश्वानरः'-वैश्व-पुरुष', अपने 'आदित्व' एवं 'व्यापकता' के कारण 'वह' है 'अकार', प्रथम वर्णाक्षर; जो 'उसे' इस प्रकार जानता है वह सर्वव्याप्त हो जाता है तथा अपनी समस्त कामनाओं को प्राप्त करता है; वह स्वयं 'आदि'-उत्स एवं आरम्भ-बन जाता है।

(The Waker, Vaishwanara, the Universal Male, He is A, the first letter, because of Initiality and Pervasiveness: he that knows Him for such pervades and attains all his desires: he becomes the source and first.)

दशम श्लोक

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स्वप्नस्थानस्तैजस उकारो द्वितीया मात्रोत्कर्षात्

उभयत्वाद्वोत्कर्षति ह वै ज्ञानसन्ततिं समानश्च भवति नास्याऽब्रह्मवित्कुले भवति य एवं वेद ॥10॥

स्वप्न-अवस्थावाला, 'तेजस'--'तेजोमय मन में निवास करने वाला'-अपनी 'श्रेष्ठता' (उत्कर्ष) एवं 'मध्यमावस्था' (उभयत्व) के कारण 'वह' है 'उकार', द्वितीय वर्णाक्षर; जो 'उसे' इस प्रकार जानता है वह अपने ज्ञान की सीमाओं का उत्कर्ष करता (अभी बढ़ाता) है तथा असमानताओं से ऊपर उठ जाता है; ऐसे व्यक्ति के कुल में उसके वीर्य से उत्पन्न सन्तति 'अब्रह्मविद्' (ब्रह्म को न जानने वाली) नहीं होती।

(The Dreamer, Taijasa, the Inhabitant in Luminous Mind, He is U, the second letter, because of Advance and Centrality: he that knows Him for such, advances the bounds of his knowledge and rises above difference: nor of his seed is any born that knows not the Eternal.)

एकदश: श्लोक

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सुषुप्तस्थानः प्राज्ञो मकारस्तृतीया मात्रा

मितेरपीतेर्वा मिनोति ह वा इदं सर्वमपीतिश्च भवति य एवं वेद ॥11॥

सुषुप्त-अवस्थावाला, 'प्राज्ञ'-'प्रज्ञा का ईश्वर' मापने के कारण तथा 'अन्तिमावस्था' के कारण, 'वह' है 'मकार', तृतीय वर्णाक्षर; जो 'उसे' इस प्रकार जानता है वह अपने साथ सम्पूर्ण 'विश्व' को माप लेता है एवं 'ब्रह्म' में लीन हो जाता है।

(The Sleeper, Prajna, the Lord of Wisdom, He is M, the third letter, because of Measure and Finality: he that knows Him for such measures with himself the Universe and becomes the departure into the Eternal.)

अध्याय ८ भगवद गीता में प्रभु कहते हैं:-

अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम्‌।

यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥ 21 ॥

जो अव्यक्त 'अक्षर' इस नाम से कहा गया है, उसी अक्षर नामक अव्यक्त भाव को परमगति कहते हैं तथा जिस सनातन अव्यक्त भाव को प्राप्त होकर मनुष्य वापस नहीं आते, वह मेरा परम धाम है ॥ 21 ॥

द्वादश: श्लोक

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अमात्रश्चतुर्थोऽव्यवहार्यः प्रपञ्चोपशमः

शिवोऽद्वैत एवमोङ्कार आत्मैव

संविशत्यात्मनाऽऽत्मानं य एवं वेद ॥12॥

चतुर्थ है 'अवर्णाक्षर' (अमात्रा), 'अव्यवहार्य', इस (सृष्टि) प्रपञ्च का उपशम अर्थात् अन्त, परम मंगलकारी-'शिव', 'अद्वैत' (अद्वितीय) ऐसा है 'ओम्'। 'आत्मा' ही आत्मा के द्वारा 'आत्मा' में प्रवेश करके 'आत्मा' को जानता है, जो यह जानता है, वही यह जानता है।

(Letterless is the fourth, the Incommunicable, the end of phenomena, the Good, the One than Whom there is no other: thus is OM. He that knows is the Self and enters by his self into the Self, he that knows, he that knows.)

भगवद गीता अध्याय ८ में प्रभु कहते हैं:-

सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।

मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्‌ ॥ 12 ॥

सब इंद्रियों के द्वारों को रोककर तथा मन को हृद्देश में स्थिर करके, फिर उस जीते हुए मन द्वारा प्राण को मस्तक में स्थापित करके, परमात्म संबंधी योगधारणा में स्थित होकर ॥ 12 ॥

ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्‌।

यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्‌॥ 13 ॥

जो पुरुष 'ॐ' इस एक अक्षर रूप ब्रह्म को उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थस्वरूप मुझ निर्गुण ब्रह्म का चिंतन करता हुआ शरीर को त्यागकर जाता है, वह पुरुष परम गति को प्राप्त होता है ॥ 13 ॥

॥ अथर्ववेदीय माण्डूक्योपनिषद समाप्त ॥

नागेंद्र प्रताप सिंह (अधिवक्ता)

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वेद हि विज्ञान माता-पिता।
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आज हम विज्ञान, दर्शन, भौतिक, रसायन, अर्थ, अध्यात्म, समाज, धर्म, न्याय, चिकित्सा, अनुवंशिकी, खगोल, गणित, ज्यामितीय, जीव और वनस्पति इत्यादि शास्त्रों को देख रहे हैँ, सुन रहे हैँ और पढ़ रहे हैँ, उन सभी की उत्पत्ति वेदों से हि हुई है। ऋग्वेद, सामवेद, अथर्ववेद और यजुर्वेद यही चारों मुख्य श्रोत हैँ, इस ब्रह्माण्ड में व्याप्त समस्त ज्ञान और विज्ञान का। इस पुस्तक में हम वेद और विज्ञान के संबंध का परिचर्चात्मक स्वरूप प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।

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