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ब्रह्माण्ड_विज्ञान और ब्रह्मांड की उत्पत्ति

8 जून 2023

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नासदीय_सूक्त ऋग्वेद के 10 वें मंडल का 129 वां सूक्त है। इसका सम्बन्ध ब्रह्माण्ड_विज्ञान और ब्रह्मांड की उत्पत्ति के साथ है। ये सूक्त ब्रह्माण्ड के निर्माण के बारे में अत्यधिक स्पष्ट और सत्य तथ्यों को दर्शाते हैं। इसी कारण  ये दुनिया में काफी प्रसिद्ध हुआ हैं।

नासदीय सूक्त में ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति का दार्शनिक वर्णन अत्यन्त उत्कृष्ट रूप मे किया गया है ऋषियों के अद्भुत् इस ज्ञान से सिद्ध होता है कि समस्त संसार मे सभ्यता की पराकाष्ठा भारत मे देखी जा सकती थी और यह अतिशयोक्ति नही होगी ।

नासदीय सूक्त के रचयिता ऋषि प्रजापति परमेष्ठी हैं। इस सूक्त के देवता भाववृत्त है। यह सूक्त मुख्य रूप से इस तथ्य पर आधारित है कि ब्रह्मांड की रचना कैसे हुई होगी।

एकादशेऽनुवाके त्रयोवीशतिसंख्याकानि सूक्तानि । तत्र ’नासदासीत्’ इति सप्तर्चं प्रथमं सूक्तं त्रैष्टुभम् । प्रमेष्ठी नाम प्रजपतिर्ऋषिः । वियदादिभावानां सृष्टिस्थितिप्रलयादीनामत्र प्रतिपाद्यत्वात् तेषां कर्ता परमात्मा देवता । तथा चानुक्रान्तं – ’नासत्सप्त प्रजापतिः परमेष्ठी भाववृत्तं तु ’ इति । गतो विनियोगः ।

This is one of the most well known hymns of the Ṛgveda and is generally known as the नासदीयसूक्तम् (from the first two words of the hymn).  It is a speculation about the mystic origin of the universe.  If we define the universe as all that exists (सत्), then it is a paradox of sorts to talk about what was there “before” the universe came about, which is why the hymn starts with stating that at that time we cannot say that something existed, or no-thing existed.

प्रथम मन्त्र।

नास॑दासी॒न्नो सदा॑सीत्त॒दानीं॒ नासी॒द्रजो॒ नो व्यो॑मा प॒रो यत् । किमाव॑रीव॒: कुह॒ कस्य॒ शर्म॒न्नम्भ॒: किमा॑सी॒द्गह॑नं गभी॒रम् ॥

पद पाठ

न । अस॑त् । आ॒सी॒त् । नो इति॑ । सत् । आ॒सी॒त् । त॒दानी॑म् । न । आ॒सी॒त् । रजः॑ । नो इति॑ । विऽओ॑म । प॒रः । यत् । किम् । आ । अ॒व॒री॒व॒रिति॑ । कुह॑ । कस्य॑ । शर्म॑न् । अम्भः॑ । किम् । आ॒सी॒त् । गह॑नम् । ग॒भी॒रम् ॥ १०.१२९.१

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:129» मन्त्र:1 | अष्टक:8» अध्याय:7» वर्ग:17» मन्त्र:1 | मण्डल:10» अनुवाक:11» मन्त्र:1उपलब्ध भाष्य

भावार्थभाषाः -सृष्टि से पूर्व न शून्यमात्र अत्यन्त अभाव था, परन्तु वह जो था, प्रकटरूप भी न था, न रञ्जनात्मक कणमय गगन था, न परवर्ती सीमावर्ती आवर्त घेरा था, जब आवरणीय पदार्थ या जगत् न था, तो आवर्त भी क्या हो, वह भी न था, कहाँ फिर सुख शरण किसके लिये हो एवं भोग्य भोक्ता की वर्तमानता भी न थी, सूक्ष्मजलपरमाणुप्रवाह या परमाणुसमुद्र भी न था, कहने योग्य कुछ न था, पर था, कुछ अप्रकटरूप था ॥१॥

At that time (i.e. the beginning of the universe) (तदानीम्), there was (आसीत्) neither non-existence (न असत्) nor existence (नो सत्). There was no world (रजः न आसीत्), no sky (नो व्योम), and nothing beyond (परः यत्).  What covered it completely (किम् आवरीवः)? Where was whose abode (कुह कस्य शर्मन्)?  Were there (किम् आसीत्) a unfathomable deep waters (गहनम् गभीरम् अम्भः)?

अन्वय- तदानीम् असत् न आसीत् सत् नो आसीत्; रजः न आसीत्; व्योम नोयत् परः अवरीवः, कुह कस्य शर्मन् गहनं गभीरम्।

अर्थ- उस समय अर्थात् सृष्टि की उत्पत्ति से पहले प्रलय दशा में असत् अर्थात् अभावात्मक तत्त्व नहीं था। सत्= भाव तत्त्व भी नहीं था, रजः=स्वर्गलोक मृत्युलोक और पाताल लोक नहीं थे, अन्तरिक्ष नहीं था और उससे परे जो कुछ है वह भी नहीं था, वह आवरण करने वाला तत्त्व कहाँ था और किसके संरक्षण में था। उस समय गहन= कठिनाई से प्रवेश करने योग्य गहरा क्या था, अर्थात् वे सब नहीं थे।

दूसरा मन्त्र!

न मृ॒त्युरा॑सीद॒मृतं॒ न तर्हि॒ न रात्र्या॒ अह्न॑ आसीत्प्रके॒तः । आनी॑दवा॒तं स्व॒धया॒ तदेकं॒ तस्मा॑द्धा॒न्यन्न प॒रः किं च॒नास॑ ॥

पद पाठ

न । मृ॒त्युः । आ॒सी॒त् । अ॒मृत॑म् । न । तर्हि॑ । न । रात्र्याः॑ । अह्नः॑ । आ॒सी॒त् । प्र॒ऽके॒तः । आनी॑त् । अ॒वा॒तम् । स्व॒धया॑ । तत् । एक॑म् । तस्मा॑त् । ह॒ । अ॒न्यत् । न । प॒रः । किम् । च॒न । आ॒स॒ ॥ १०.१२९.२

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:129» मन्त्र:2 | अष्टक:8» अध्याय:7» वर्ग:17» मन्त्र:2 | मण्डल:10» अनुवाक:11» मन्त्र:2उपलब्ध भाष्य

भावार्थभाषाः -सृष्टि से पूर्व मृत्यु नहीं था, क्योंकि मरने योग्य कोई था नहीं, तो मृत्यु कैसे हो ? मृत्यु के अभाव में अमृत हो, सो अमृत भी नहीं, क्योंकि मृत्यु की अपेक्षा से अमृत की कल्पना होती है, अतः अमृत के होने की कल्पना भी नहीं, दिन रात्रि का पूर्वरूप भी न था, क्योंकि सृष्टि होने पर दिन रात्रि का व्यवहार होता है, हाँ एक तत्त्व वायु द्वारा जीवन लेनेवाला नहीं, किन्तु स्वधारणशक्ति से स्वसत्तारूप जीवन धारण करता हुआ जीता जागता ब्रह्म था, उससे अतिरिक्त और कुछ न था ॥२॥

At that time (तर्हि), there was no death (न मृत्य्य्ः आसीत्), no immortality (न अमृतम्), no nights (न रात्र्याः), no days (न अह्नः) and no cognition (प्रकेतः). That One being (तत् एकम्) breathed as it were (आनीत्), without the movement of air (अवातम्), by its own power (स्वधया), there was nothing (किम् चन न आस) other than that (तस्मात् ह अन्यत्), or beyond that (न परः).

अन्वय-तर्हि मृत्युः नासीत् न अमृतम्, रात्र्याः अह्नः प्रकेतः नासीत् तत् अनीत अवातम, स्वधया एकम् ह तस्मात् अन्यत् किंचन न आस न परः।

'अर्थ – उस प्रलय कालिक समय में मृत्यु नहीं थी और अमृत = मृत्यु का अभाव भी नहीं था। रात्री और दिन का ज्ञान भी नहीं था उस समय वह ब्रह्म तत्व ही केवल प्राण युक्त, क्रिया से शून्य और माया के साथ जुड़ा हुआ एक रूप में विद्यमान था, उस माया सहित ब्रह्म से कुछ भी नहीं था और उस से परे भी कुछ नहीं था।

तृतीय मन्त्र!

तम॑ आसी॒त्तम॑सा गू॒ळ्हमग्रे॑ऽप्रके॒तं स॑लि॒लं सर्व॑मा इ॒दम् । तु॒च्छ्येना॒भ्वपि॑हितं॒ यदासी॒त्तप॑स॒स्तन्म॑हि॒नाजा॑य॒तैक॑म् ॥

पद पाठ

तमः॑ । आ॒सी॒त् । तम॑सा । गू॒ळ्हम् । अग्रे॑ । अ॒प्र॒ऽके॒तम् । स॒लि॒लम् । सर्व॑म् । आः॒ । इ॒दम् । तु॒च्छ्येन॑ । आ॒भु । अपि॑ऽहितम् । यत् । आसी॑त् । तप॑सः । तत् । म॒हि॒ना । अ॒जा॒य॒त॒ । एक॑म् ॥ १०.१२९.३

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:129» मन्त्र:3 | अष्टक:8» अध्याय:7» वर्ग:17» मन्त्र:3 | मण्डल:10» अनुवाक:11» मन्त्र:3उपलब्ध भाष्य

भावार्थभाषाः -सृष्टि से पूर्व अन्धकार से आच्छादित अन्धकारमय था, जलसमान अवयवरहित न जानने योग्य “आभु” नाम से परमात्मा के सम्मुख तुच्छरूप में एकदेशी अव्यक्त प्रकृतिरूप उपादान कारण था, जिससे सृष्टि आविर्भूत होती है, उसके ज्ञानमय तप से प्रथम महत्तत्त्व उत्पन्न हुआ ॥३॥

At the beginning (अग्रे) there was darkness (तमः आसीत्), enveloped by darkness (तमसा गूळ्हम्).  All that existed (सर्वम् इदम्) was (आः) like an indiscernible (अप्रकेतम्) (expanse of) water (सलिलम्).  All being (आभु) was shrouded by void (तुच्छ्येन  अपिहितम् यत् आसीत्), then the One (तत् एकम्) arose (अजायत) by its own energy (तपसः) and grandeur (तत् महिना).

अन्वय -अग्रे तमसा गूढम् तमः आसीत्, अप्रकेतम् इदम् सर्वम् सलिलम्, आःयत्आभु तुच्छेन अपिहितम आसीत् तत् एकम् तपस महिना अजायत।

अर्थ –सृष्टिके उत्पन्नहोनेसे पहले अर्थात् प्रलय अवस्था में यह जगत् अन्धकार से आच्छादित था और यह जगत् तमस रूप मूल कारण में विद्यमान था,अज्ञात यह सम्पूर्ण जगत् सलिल=जल रूप में था। अर्थात् उस समय कार्य और कारण दोंनों मिले हुए थे यह जगत् है वह व्यापक एवं निम्न स्तरीय अभाव रूप अज्ञान से आच्छादित था इसीलिए कारण के साथ कार्य एकरूप होकर यह जगत् ईश्वर के संकल्प और तप की महिमा से उत्पन्न हुआ।

चतुर्थ मन्त्र!

काम॒स्तदग्रे॒ सम॑वर्त॒ताधि॒ मन॑सो॒ रेत॑: प्रथ॒मं यदासी॑त् । स॒तो बन्धु॒मस॑ति॒ निर॑विन्दन्हृ॒दि प्र॒तीष्या॑ क॒वयो॑ मनी॒षा ॥

पद पाठ

कामः॑ । तत् । अग्रे॑ । सम् । अ॒व॒र्त॒त॒ । अधि॑ । मन॑सः । रेतः॑ । प्र॒थ॒मम् । यत् । आसी॑त् । स॒तः । बन्धु॑म् । अस॑ति । निः । अ॒वि॒न्द॒न् । हृ॒दि । प्र॒तीष्या॑ । क॒वयः॑ । म॒नी॒षा ॥ १०.१२९.४

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:129» मन्त्र:4 | अष्टक:8» अध्याय:7» वर्ग:17» मन्त्र:4 | मण्डल:10» अनुवाक:11» मन्त्र:4उपलब्ध भाष्य

भावार्थभाषाः -आरम्भ सृष्टि में भोगों के लिए कामभाव वर्त्तमान होता है, जो मानव की बीजशक्तिरूप में प्रकट होता है, क्रान्तदर्शी विद्वान् आत्मा के अन्दर शरीर का बाँधनेवाला है, उसे समझ कर वैराग्य को प्राप्त होते हैं ॥४॥

That seed (of creation) in the mind (अधि मनसः रेतः) that existed at the beginning (यत् प्रथमम् आसीत्) first rose (तत् अग्रे समवर्तत) as desire (कामः). The sages (कवयः), by investigation (प्रतीष्या) and intelligence (मनीषा), discovered in their hearts (हृदि निरविन्दन्) the connection (बन्धुम्) between existence (सतः) and non-existence (असति).

अन्वय-अग्रे तत् कामः समवर्तत;यत्मनसःअधिप्रथमं रेतःआसीत्, सतः बन्धुं कवयःमनीषाहृदि प्रतीष्या असति निरविन्दन

अर्थ – सृष्टि की उत्पत्ति होने के समय सब से पहले काम=अर्थात् सृष्टि रचना करने की इच्छा शक्ति उत्पन्न हुयी, जो परमेश्वर के मन मे सबसे पहला बीज रूप कारण हुआ; भौतिक रूप से विद्यमान जगत् के बन्धन-कामरूप कारण को क्रान्तदर्शी ऋषियो ने अपने ज्ञान द्वारा भाव से विलक्षण अभाव मे खोज डाला।

पाँचवां मन्त्र।

ति॒र॒श्चीनो॒ वित॑तो र॒श्मिरे॑षाम॒धः स्वि॑दा॒सी३दु॒परि॑ स्विदासी३त् । रे॒तो॒धा आ॑सन्महि॒मान॑ आसन्त्स्व॒धा अ॒वस्ता॒त्प्रय॑तिः प॒रस्ता॑त् ॥

पद पाठ

ति॒र॒श्चीनः॑ । विऽत॑तः । र॒श्मिः । ए॒षा॒म् । अ॒धः । स्वि॑त् । आ॒सी॒३त् । उ॒परि॑ । स्वित् । आ॒सी॒३त् । रे॒तः॒ऽधाः । आ॒स॒न् । म॒हि॒मानः॑ । आ॒स॒न् । स्व॒धा । अ॒वस्ता॑त् । प्रऽय॑तिः । प॒रस्ता॑त् ॥ १०.१२९.५

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:129» मन्त्र:5 | अष्टक:8» अध्याय:7» वर्ग:17» मन्त्र:5 | मण्डल:10» अनुवाक:11» मन्त्र:5उपलब्ध भाष्य

भावार्थभाषाः -भोगों की कामनारूप मानवबीजशक्ति को धारण करनेवाले आत्मा सृष्टि से पहले थे और वे असंख्यात थे, इनका पूर्वकर्मकृत संस्कार डोरी या लगाम के समान शरीर में खींच कर लाता है, वह निकृष्टयोनिसम्बन्धी और उत्कृष्टयोनिसम्बन्धी होता है, शरीर के अवरभाग में जन्म है और परभाग में प्रयाण मृत्यु है ॥५॥

The spread out (विततः) rays (रश्मिः) of these forces (एषाम्) (representing creative energies) – were they (स्वित् आसीत्) moving inclined (तिरश्चीनः), upwards (अधः), or downwards (उपरि)?  They became (आसन्) germinators (रेतोधाः),  majestic (महिमानः), dividing themselves as the lower (अवस्तात्) (the insentient), the experienced (स्वधा), and as the higher (परस्तात्) (the sentient), the experiencer (प्रयतिः).

अन्वय-एषाम् रश्मिःविततः तिरश्चीन अधःस्वित् आसीत्, उपरिस्वित् आसीत्रेतोधाः आसन् महिमानःआसन् स्वधाअवस्तात प्रयति पुरस्तात्।

अर्थ-पूर्वोक्त मन्त्रों में नासदासीत् कामस्तदग्रे मनसारेतः में अविद्या, काम-संकल्प और सृष्टि बीज-कारण को सूर्य-किरणों के समान बहुत व्यापकता उनमें विद्यमान थी। यह सबसे पहले तिरछा था या मध्य में या अन्त में? क्या वह तत्त्व नीचे विद्यमान था या ऊपर विद्यमान था? वह सर्वत्र समान भाव से भाव उत्पन्न था इस प्रकार इस उत्पन्न जगत् में कुछ पदार्थ बीज रूप कर्म को धारण करने वाले जीव रूप में थे और कुछ तत्त्व आकाशादि महान रूप में प्रकृति रूप थे; स्वधा=भोग्य पदार्थ निम्नस्तर के होते हैं और भोक्ता पदार्थ उत्कृष्टता से परिपूर्ण होते हैं।

षष्टम् मन्त्र!

को अ॒द्धा वे॑द॒ क इ॒ह प्र वो॑च॒त्कुत॒ आजा॑ता॒ कुत॑ इ॒यं विसृ॑ष्टिः । अ॒र्वाग्दे॒वा अ॒स्य वि॒सर्ज॑ने॒नाथा॒ को वे॑द॒ यत॑ आब॒भूव॑ ॥

पद पाठ

कः । अ॒द्धा । वे॒द॒ । कः । इ॒ह । प्र । वो॒च॒त् । कुतः॑ । आऽजा॑ता । कुतः॑ । इ॒यम् । विऽसृ॑ष्टिः । अ॒र्वाक् । दे॒वाः । अ॒स्य । वि॒ऽसर्ज॑नेन । अथ॑ । कः । वे॒द॒ । यतः॑ । आ॒ऽब॒भूव॑ ॥ १०.१२९.६

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:129» मन्त्र:6 | अष्टक:8» अध्याय:7» वर्ग:17» मन्त्र:6 | मण्डल:10» अनुवाक:11» मन्त्र:6उपलब्ध भाष्य

भावार्थभाषाः -यह विविध सृष्टि किस निमित्तकारण से और किस उपादानकारण से उत्पन्न होती है, इस बात को कोई बिरला विद्वान् ही यथार्थरूप में जान सकता है, क्योंकि सभी विद्वान् सृष्टि उत्पन्न होने के पश्चात् होते हैं-अर्थात् कोई तत्त्ववेत्ता योगी ही इसको समझ सकता है और कह सकता है ॥६॥

Who (कः) really (अद्धा) knows (वेद)? Who (कः) can really declare here (इह प्रवोचत्) the origin (material cause) (कुतः) of this creation (इयं विसृष्टिः), and from where (efficient cause) (कुतः) it was born (आजाता)? The Gods (देवः) came into being after creation (अस्य विसर्जनेन अर्वाक्) (i.e. even they cannot say), then (अथ) who knows (क: वेद) where all this came from (यतः आबभूव)?

अन्वय-कः अद्धा वेद कः इह प्रवोचत् इयं विसृष्टिः कुतः कुतः आजाता, देवा अस्य विसर्जन अर्वाक् अथ कः वेद यतः आ बभूव।

अर्थ - कौन इस बात को वास्तविक रूप से जानता है और कौन इस लोक में सृष्टि के उत्पन्न होने के विवरण को बता सकता है कि यह विविध प्रकार की सृष्टि किस उपादान कारण से और किस निमित्त कारण से सब ओर से उत्पन्न हुयी। देवता भी इस विविध प्रकार की सृष्टि उत्पन्न होने से बाद के हैं अतः ये देवगण भी अपने से पहले की बात के विषय में नहीं बता सकते इसलिए कौन मनुष्य जानता है जिस कारण यह सारा संसार उत्पन्न हुआ।

सप्तम मन्त्र।

इ॒यं विसृ॑ष्टि॒र्यत॑ आब॒भूव॒ यदि॑ वा द॒धे यदि॑ वा॒ न । यो अ॒स्याध्य॑क्षः पर॒मे व्यो॑म॒न्त्सो अ॒ङ्ग वे॑द॒ यदि॑ वा॒ न वेद॑ ॥

पद पाठ

इ॒यम् । विऽसृ॑ष्टिः । यतः॑ । आ॒ऽब॒भूव॑ । यदि॑ । वा॒ । द॒धे । यदि॑ । वा॒ । न । यः । अ॒स्य॒ । अधि॑ऽअक्षः । प॒र॒मे । विऽओ॑मन् । सः । अ॒ङ्ग । वे॒द॒ । यदि॑ । वा॒ । न । वेद॑ ॥ १०.१२९.७

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:129» मन्त्र:7 | अष्टक:8» अध्याय:7» वर्ग:17» मन्त्र:7 | मण्डल:10» अनुवाक:11» मन्त्र:7उपलब्ध भाष्य

भावार्थभाषाः -यह विविध सृष्टि जिस उपादान-कारण से उत्पन्न होती है, उस उपादान कारण अव्यक्त प्रकृति का वह परमात्मा स्वामी-अध्यक्ष है, वह उससे सृष्टि को उत्पन्न करता है और उसका संहार भी करता है। प्रकृति को जब लक्ष्य करता है, तो उसे सृष्टि के रूप में ले आता है, नहीं लक्ष्य करता है, तो प्रलय बनी रहती है, इस प्रकार सृष्टि और प्रलय परमात्मा के अधीन हैं ॥७॥

From whom this creation (इयम् विसृष्टिः) came (यतः आबभूव), does he support (यदि वा दधॆ) it or does it not (यदि वा न)?  He who (यः) is the well-known (अङ्ग) ruler of all this (अस्य अध्यक्षः), stationed in the highest heaven (परमे व्योमन्), perhaps he knows (सः वद), for if he does not know (यदि वा न वेद) (then no one else can know).

अन्वय- इयं विसृष्टिः यतः आबभूव यदि वा दधे यदि वा न। अस्य यः अध्यक्ष परमे व्यामन् अंग सा वेद यदि न वेद।

अर्थ – यह विविध प्रकार की सृष्टि जिस प्रकार के उपादान और निमित्त कारण से उत्पन्न हुयी इस का मुख्या कारण है ईश्वर के द्वारा इसे धारण करना। इसके अतिरिक्त अन्य कोई धारण नहीं कर सकता। इस सृष्टि का जो स्वामी ईश्वर है, अपने प्रकाश या आनंद स्वरुप में प्रतिष्ठित है। हे प्रिय श्रोताओं ! वह आनंद स्वरुप परमात्मा ही इस विषय को जानता है उस के अतिरिक्त (इस सृष्टि उत्पत्ति तत्व को) कोई नहीं जानता है।

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ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:130

यो य॒ज्ञो वि॒श्वत॒स्तन्तु॑भिस्त॒त एक॑शतं देवक॒र्मेभि॒राय॑तः । इ॒मे व॑यन्ति पि॒तरो॒ य आ॑य॒युः प्र व॒याप॑ व॒येत्या॑सते त॒ते ॥

पद पाठ

यः । य॒ज्ञः । वि॒श्वतः॑ । तन्तु॑ऽभिः । त॒तः । एक॑ऽशतम् । दे॒व॒ऽक॒र्मेभिः॑ । आऽय॑तः । इ॒मे । व॒य॒न्ति॒ । पि॒तरः॑ । ये । आ॒ऽय॒युः । प्र । व॒य॒ । अप॑ । व॒य॒ । इति॑ । आ॒स॒ते॒ । त॒ते ॥ १०.१३०.१

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:130» मन्त्र:1 | अष्टक:8» अध्याय:7» वर्ग:18» मन्त्र:1 | मण्डल:10» अनुवाक:11» मन्त्र:1उपलब्ध भाष्य

ब्रह्ममुनि

इस सूक्त में मुक्तों का ब्राह्मशरीर ब्राह्म सौ वर्षों का होता है, संसार में भौतिक शरीर लोकप्रसिद्ध सौ वर्षों का होता है, इत्यादि विषय कहे हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -(यः-यज्ञः) जो सृष्टियज्ञ या पुरुषयज्ञ (तन्तुभिः) परमाणुओं के द्वारा-या नाड़ी तन्तुओं से (विश्वतः) सर्व ओर से (ततः) फैला हुआ (देवकर्मभिः) परमात्मा के रचना आदि कर्मों द्वारा (एकशतम्) सौ वर्ष की आयुवाला ब्रह्मयज्ञ मोक्ष अवधिवाला मानवजीवन की अपेक्षा रखनेवाला शरीरयज्ञ (आयतः) दीर्घ हुआ (इमे पितरः) ये ऋतुएँ या प्राण (वयन्ति) तानते हैं-निर्माण करते हैं (ये-आययुः) जो सर्वत्र प्राप्त होते हैं (प्र वय-अप वय-इति) प्रतान और अपतान के ताने-बाने के जैसे प्रेरणा करते हुए (तते-आसते) सम्यक्तया बने हुए, ब्राह्मशरीरयज्ञ में या पुरुषशरीरयज्ञ में विराजते हैं, रहते हैं ॥१॥

भावार्थभाषाः -सृष्टियज्ञ और शरीरयज्ञ परमाणुओं द्वारा तथा परमात्मा के रचनाकर्मों द्वारा सौ वर्ष की आयुवाला मुक्तिसम्बन्धी ब्राह्मशरीर तथा भौतिक मनुष्यशरीर होता है, ऋतुएँ या प्राण निर्माण करते हैं, ताने-बाने के समान ये सृष्टि में या शरीर में रहते हैं ॥१॥

That creation (यः यज्ञः) which was extended in all directions (विश्वतः ततः) by the threads (तन्तुभिः) (i.e. elements that constitute the universe) and kept going (आयतः) by the hundred and one works performed for the gods (एकशतं देवकर्मेभिः), these protectors (इमे पितरः), who have arrived (ये आययुः) weave (i.e continue the process) (वयन्ति). And, having stationed themselves (आसते) in the extended universe (तते) they say, “Weave forwards (प्र वय), weave backwards (अप वय)!”.

पुमाँ॑ एनं तनुत॒ उत्कृ॑णत्ति॒ पुमा॒न्वि त॑त्ने॒ अधि॒ नाके॑ अ॒स्मिन् । इ॒मे म॒यूखा॒ उप॑ सेदुरू॒ सद॒: सामा॑नि चक्रु॒स्तस॑रा॒ण्योत॑वे ॥

पद पाठ

पुमा॑न् । ए॒न॒म् । त॒नु॒ते॒ । उत् । कृ॒ण॒त्ति॒ । पुमा॑न् । वि । त॒त्ने॒ । अधि॑ । नाके॑ । अ॒स्मिन् । इ॒मे । म॒यूखाः॑ । उप॑ । से॒दुः॒ । ऊँ॒ इति॑ । सदः॑ । सामा॑नि । च॒क्रुः॒ । तस॑राणि । ओत॑वे ॥ १०.१३०.२

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:130» मन्त्र:2 | अष्टक:8» अध्याय:7» वर्ग:18» मन्त्र:2 | मण्डल:10» अनुवाक:11» मन्त्र:2उपलब्ध भाष्य

ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः -(पुमान्) परमपुरुष परमात्मा (एनम्) इस ब्राह्मयज्ञ या शरीरयज्ञ को (तनुते) तानता है-रचता है (उत् कृणत्ति) पुनः-उद्वेष्टित करता है, लपेटता है (पुमान्-अधि नाके) वह परमात्मा मोक्ष में (अस्मिन्) और इस संसार में शरीरयज्ञ को (वि तत्ने) विस्तृत करता है-रचता है (इमे मयूखाः) ये ज्ञानप्रकाशादि गुण या रश्मियाँ (सदः-उप सेदुः) उसी ब्राह्मयज्ञ या शरीरयज्ञ को प्राप्त होते हैं (सामानि तसराणि) समानता में होनेवाले-सुख देनेवाले बन्धनों को, सूत्रों को (ओतवे चक्रुः) रक्षा के लिए करते-बनाते हैं ॥२॥

भावार्थभाषाः -परमात्मा ब्राह्मयज्ञ और शरीरयज्ञ को रचता है और वही उसको समाप्त कर देता है, मोक्ष में ब्राह्मयज्ञ संसार में शरीरयज्ञ का विस्तार करता है और मोक्ष में परमात्मा के ज्ञान प्रकाशादि गुण से प्रकाशित होता है और संसार में सूर्य की रश्मियों से ये उसका रक्षण करते हैं ॥२॥

The supreme being (पुमान्) extends this (एनं तनुते) (yajña), he sets it going (उत् कृणत्ति), and he (पुमान्) extended it (वि तत्ने) into this (अस्मिन्) (world) and into heaven (अधि नाके). These rays (i.e. powers or gods) (इमे मयूखाः), seat themselves (उप सेदुः) (to perform the yajña) in their assigned places (सदः ऊ) and they made the sāman hymns (सामानि) the warp (तसराणि चक्रुः) for weaving (ओतवे).

कासी॑त्प्र॒मा प्र॑ति॒मा किं नि॒दान॒माज्यं॒ किमा॑सीत्परि॒धिः क आ॑सीत् । छन्द॒: किमा॑सी॒त्प्रउ॑गं॒ किमु॒क्थं यद्दे॒वा दे॒वमय॑जन्त॒ विश्वे॑ ॥

पद पाठ

का । आ॒सी॒त् । प्र॒ऽमा । प्र॒ति॒ऽमा । किम् । नि॒ऽदान॑म् । आज्य॑म् । किम् । आ॒सी॒त् । प॒रि॒ऽधिः । कः । आ॒सी॒त् । छन्दः॑ । किम् । आ॒सी॒त् । प्रउ॑गम् । किम् । उ॒क्थम् । यत् । दे॒वाः । दे॒वम् । अय॑जन्त । विश्वे॑ ॥ १०.१३०.३

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:130» मन्त्र:3 | अष्टक:8» अध्याय:7» वर्ग:18» मन्त्र:3 | मण्डल:10» अनुवाक:11» मन्त्र:3उपलब्ध भाष्य

ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः -(का) क्या (प्रमा) प्रमाणरीति (प्रतिमा) प्रतिकृति-रूपरेखा (आसीत्) थी-है (किं निदानम्) क्या हेतु-क्या लक्ष्य था-है (किम्-आज्यम्-आसीत्) क्या घृत दीप्ति का साधन था या है (कः परिधिः-आसीत्) क्या सब ओर से धारण करनेवाला घेरा था या है (छन्दः-किम्-आसीत्) क्या छन्द था या है (प्र उगम्-उक्थं किम्) क्या प्रउग उक्थ था या है (यत्-विश्वेदेवाः) जब सारे विद्वान् (देवम्-अयजन्त) इष्टदेव का यजन करते थे या करते हैं ॥३॥

भावार्थभाषाः -उक्त ब्राह्मयज्ञ या शरीरयज्ञ की क्या प्रमारीति या रूपरेखा थी, क्या निदानहेतु या लक्ष्य था, क्या दीप्ति का साधन क्या परिधि या आवर्त्त था, छन्द कौन-प्रउग कौन-उक्थ कौन था, जबकि सारे देव इष्टदेव का यजन करते थे ॥३॥

What was the extent (का प्रमा आसीत्), what the model (प्रतिमा), what was the cause (किं निदानम्), what was the ghee (i.e offering) (किम् आज्यम् आसीत्), what the enclosure (परिधिः कः आसीत्), what the meters used (छन्दः किम् आसीत्), what the chant and the praise (किं प्रउगम् उक्थम्) when all the gods performed the yajña (यत् विश्वे देवाः अयजन्त)?

अ॒ग्नेर्गा॑य॒त्र्य॑भवत्स॒युग्वो॒ष्णिह॑या सवि॒ता सं ब॑भूव । अ॒नु॒ष्टुभा॒ सोम॑ उ॒क्थैर्मह॑स्वा॒न्बृह॒स्पते॑र्बृह॒ती वाच॑मावत् ॥

पद पाठ

अ॒ग्नेः । गा॒य॒त्री । अ॒भ॒व॒त् । स॒ऽयुग्वा॑ । उ॒ष्णिह॑या । स॒वि॒ता । सम् । ब॒भू॒व॒ । अ॒नु॒ऽस्तुभा॑ । सोमः॑ । उ॒क्थैः । मह॑स्वान् । बृह॒स्पतेः॑ । बृ॒ह॒ती । वाच॑म् । आ॒व॒त् ॥ १०.१३०.४

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:130» मन्त्र:4 | अष्टक:8» अध्याय:7» वर्ग:18» मन्त्र:4 | मण्डल:10» अनुवाक:11» मन्त्र:4उपलब्ध भाष्य

ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः -देवता छन्दों के विषय में प्रथम कहते हैं (अग्नेः सयुग्वा गायत्री-अभवत्) अग्नि देवता के साथ युक्त गायत्री छन्द है (सविता-उष्णिहया सं बभूव) सविता देवता उष्णिक् छन्द के साथ सङ्गत होता है (महस्वान् सोमः) महान् गुणवान् सोम देवता (अनुष्टुभा-उक्थैः) अनुष्टुप् छन्द और उक्थ मन्त्रों के साथ सङ्गत होता है (बृहस्पतेः-वाचं बृहतीः-आवत्) बृहस्पति देवता की बृहती वाणी प्राप्त होती है। इस प्रकार अग्नि, सविता, सोम, बृहस्पति देवता के गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप्, बृहती छन्द होते हैं ॥४॥

वि॒राण्मि॒त्रावरु॑णयोरभि॒श्रीरिन्द्र॑स्य त्रि॒ष्टुबि॒ह भा॒गो अह्न॑: । विश्वा॑न्दे॒वाञ्जग॒त्या वि॑वेश॒ तेन॑ चाकॢप्र॒ ऋष॑यो मनु॒ष्या॑: ॥

पद पाठ

वि॒राट् । मि॒त्रावरु॑णयोः । अ॒भि॒ऽश्रीः । इन्द्र॑स्य । त्रि॒ऽस्तुप् । इ॒ह । भा॒गः । अह्नः॑ । विश्वा॑न् । दे॒वान् । जग॒ती । आ । वि॒वे॒श॒ । तेन॑ । चा॒कॢ॒प्रे॒ । ऋष॑यः । म॒नु॒ष्याः॑ ॥ १०.१३०.५

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:130» मन्त्र:5 | अष्टक:8» अध्याय:7» वर्ग:18» मन्त्र:5 | मण्डल:10» अनुवाक:11» मन्त्र:5उपलब्ध भाष्य

ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः -(मित्रावरुणयोः-विराट्) मित्र वरुण देवता का विराट् छन्द है (इन्द्रस्य-अभिश्रीः) इन्द्र का अभिश्री छन्द है (अह्नः-इह भागः-त्रिष्टुप्) दिन का यहाँ भाग त्रिष्टुप् छन्द है (विश्वान् देवान् जगती-आ विवेश) विश्वे देव नामक देवताओं को जगती छन्द आविष्ट होता है (तेन च) और उससे (ऋषयः-मनुष्याः-चाक्लृप्रे) मन्त्रद्रष्टा, साधारण मनुष्य समर्थ होते हैं ॥५॥

तो इस प्रकार हम देखते हैं कि ब्रह्माण्ड के निर्माण के विषय में सर्वप्रथम सम्पूर्ण विश्व् को ऋग्वेद के नासदीय सूक्त के माध्यम से हि ज्ञान प्राप्त हुआ।

और प्रकृति जो ब्रह्माण्ड के निर्माण का मूल पदार्थ है उसके १० लक्षण तो सम्पूर्ण सृष्टि के प्रथम वैज्ञानिक देवाधिदेव महादेव ने बताया है

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 जुड़े प्रतिलिपि में आप देख सकते हैं।

धन्यवाद

नागेंद्र प्रताप सिंह (अधिवक्ता)

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वेद हि विज्ञान माता-पिता।
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आज हम विज्ञान, दर्शन, भौतिक, रसायन, अर्थ, अध्यात्म, समाज, धर्म, न्याय, चिकित्सा, अनुवंशिकी, खगोल, गणित, ज्यामितीय, जीव और वनस्पति इत्यादि शास्त्रों को देख रहे हैँ, सुन रहे हैँ और पढ़ रहे हैँ, उन सभी की उत्पत्ति वेदों से हि हुई है। ऋग्वेद, सामवेद, अथर्ववेद और यजुर्वेद यही चारों मुख्य श्रोत हैँ, इस ब्रह्माण्ड में व्याप्त समस्त ज्ञान और विज्ञान का। इस पुस्तक में हम वेद और विज्ञान के संबंध का परिचर्चात्मक स्वरूप प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।

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