शब्द के आकाश पर उड़ता रहा,
पद-चिह्न पंखों पर मिलेंगे।
एक दिन भोली किरण की लालिमा ने
क्यों मुझे फुसला लिया था,
एक दिन घन-मुसकराती चंचला ने
क्यों मुझे बहका दिया था,
एक राका ने सितारों से इशारे
क्यों मुझे सौ-सौ किए थे,
एक दिन मैंने गगन की नीलिमा को
किसलिए जी भर पीया था?
आज डैनों की पकी रोमावली में
वे उड़ानें धुँधली याद-सी हैं;
शब्द के आकाश पर उड़ता रहा,
पद-चिह्न पंखों पर मिलेंगे।
याद आते हैं गरूड़-दिग्गज धनों को
चीरने वाले झपटकर,
और गौरव-गृद्ध सूरज से मिलाते
आँख जो धँसते निरंतर
गए अंबर में न जलकर पंख जब तक
हो गए बेकार उनके, क्षार उनके,
हंस, जो चुगने गए नभ-मोतियों को
और न लौटे न भू पर,
चातकी, जो प्यास की सीमा बताना,
जल न पीना, चाहती थी,
उस लगन, आदर्श, जीवट, आन के
साथी मुझे क्या फिर मिलेंगे।
शब्द के आकाश पर उड़ता रहा,
पद-चिह्न पंखों पर मिलेंगे।
और मेरे देखते ही देखते अब
वक्त ऐसा आ गया है,
शब्द की धरती हुई जंतु-संकुल,
जो यहाँ है, सब नया है,
जो यहाँ रेंगा उसी ने लीक अपनी
डाल दी, सीमा लगा दी,
और पिछलगुआ बने, अगुआ न बनकर,
कौन ऐसा बेहाया है;
गगन की उन्मुक्तता में राह अंतर
की हुमासे औ' उठानें हैं बनातीं,
धरणि की संकीर्णता में रूढि़ के,
आवर्त ही अक्सर मिलेंगे।
आज भी सीमा-रहित आकाश
आकर्षण-निमंत्रण से भरा है,
आज पहले के युगों से सौ गुनी
मानव-मनीषा उर्वरा है,
आज अद्भुत स्वप्न के अभिनव क्षितिज
हर प्रात खुलते जा रहे हैं,
मानदंड भविष्य का सितारों
की हथेली पर धारा है;
कल्पना के पुत्र अगुआई सदा करते
रहे हैं, और आगे भी करेंगे,
है मुझे विश्वास मेरे वंशजों के
पंख फिर पड़कें-हिलेंगे,
फिर गगन-कंथन करेंगे!
शब्द के आकाश पर उड़ता रहा,
पद-चिह्न पंखों पर मिलेंगे।