जमीन है न बोलती, न आसमान बोलता..
जहान देखकर मुझे, नहीं जबान खोलता..
नहीं जगह कहीं जहां, न अजनबी गिना गया..
कहां-कहां न फिर चुका, दिमाग-दिल टटोलता..
कहां मनुष्य है कि जो, उमीद छोड़कर जिया..
इसीलिए खड़ा रहा, कि तुम मुझे पुकार लो..
इसीलिए खड़ा रहा, कि तुम मुझे पुकार लो..!
तिमिर-समुद्र कर सकी, न पार नेत्र की तरी..
विनष्ट स्वप्न से लदी, विषाद याद से भरी..
न कूल भूमि का मिला, न कोर भोर की मिली..
न कट सकी, न घट सकी, विरह-घिरी विभावरी..
कहां मनुष्य है जिसे, कमी खली न प्यार की..
इसीलिए खड़ा रहा कि, तुम मुझे दुलार लो..!
इसीलिए खड़ा रहा कि, तुम मुझे पुकार लो..!
उजाड़ से लगा चुका, उमीद मैं बहार की..
निदाघ से उमीद की, बसंत के बयार की..
मरुस्थली मरीचिका, सुधामयी मुझे लगी..
अंगार से लगा चुका, उमीद मैं तुषार की..
कहां मनुष्य है जिसे, न भूल शूल-सी गड़ी..
इसीलिए खड़ा रहा कि, भूल तुम सुधार लो..!
इसीलिए खड़ा रहा कि, तुम मुझे पुकार लो..!
पुकार कर दुलार लो, दुलार कर सुधार लो..!