वो कदम तेज़ी से उस हरे भरे विशाल मैदान में चल रहे थे| चारों ओर ऊँचे ऊँचे दरख्तों और सुंदर,रंग बिरंगे फूलों से घिरे मैदान में वो क़दम लगातार चले जा रहे थे कि अचानक मैदान खत्म हो गया अब सामने एक खंडर था| वक़्त की इनायत से महरूम एक वीरान खंडर| वहाँ कुछ टूटी दीवारें, उखड़े फर्श के सिवा अब कुछ भी नहीं था| उसने देखा कि इन खंडरों को पार करके ही वो फिर उस पार हरे मैदान तक जा सकता था| उसे खंडर पार करना ही था| अब न वो पीछे लौट सकता था और न आगे बढ़ पा रहा था| अब वह खंडर की एक टूटी दीवार पर खड़ा था,जहाँ चारों ओर अंधकार का साम्राज्य फैला हुआ था| अजीब सी नीरव स्तब्धता छाई थी वहां| उसे उस दीवार को पार करना ही था| उसने देखा कि दीवार के नीचे विशाल सापों का झुण्ड था| इतने काले ,विषैले सापों का झुण्ड कि वो उन्हें गिन भी नहीं सकता था| वो डरा ,सहमा ,घबराया उस दीवार को पार करने लगता है कि सहसा उसका पांव फिसला और वह ह्रदय के उद्गारों से चीख उठा|
अमित ने झट से कमरे की लाईट जला दी|
‘संजीव ,क्या हुआ – तुम ऐसे क्यों चीखे?’
संजीव अपने बिस्तर पर बैठा अभी भी गहरे गहरे उच्छवास छोड़ रहा था मानों मीलों दूर से भाग कर आया हो|
‘लगता है तुम कोई बुरा सपना देख रहे थे – तुम तो एक दम पसीने से नहा गए हो – पानी पी लो कुछ ठीक लगेगा-|’ अमित ने पास की मेज़ पर रखा पानी का गिलास उसकी तरफ बढ़ा दिया|
संजीव एक ही साँस में गिलास खाली कर गया| फिर पसीना पौछते हुए दीवार का टेक लगा कर बैठ गया|
‘तुम शायद कोई सपना देख रहे थे – मैं तो तुम्हारी चीख सुन एक दम से हडबडा बैठा, तुम तो जानते ही हो कि जरा भी आहट हो तो मेरी नीद झट से टूट जाती है|’
संजीव अमित की बात का जवाब देने के बजाए एक पल उसे तो दूसरे पल दीवार घड़ी को देखता है|
घड़ी में रात के ढाई बज रहे थे| संजीव ने कुछ देर बाद फिर सोने की कोशिश तो की लेकिन फिर उसे नींद नहीं आई पर अमित कुछ ही देर में लेटते ही सो गया|
सुबह कब हुई संजीव को पूरी ख़बर थी लेकिन अमित अलसाया सा उठता है| उठते ही मेज़ पर रखा वह अपना चश्मा पहन संजीव की ओर देखता है|
‘अरे संजीव तुम भी उठ गए – आज याद है न वासु सर इतिहास के मॉडल पेपर का टेस्ट लेने वाले है – मुझे तो यार बहुत डर लग रहा है – वैसे तुम्हारी कैसी तैयारी है?’ उठकर अपना बिस्तर ठीक करता हुआ कहता है|
‘हूँ याद है – टेस्ट तो अच्छा करना ही होगा क्योंकि यही टेस्ट तो तय करेगा कि मुख्य पेपर के लिए हमारी तैयारी कैसी है|’ बेहद शुष्क तरीके के कहता हुआ संजीव बगल में रखी किताब उठाकर उसे पढ़ने की स्थिति में बैठ जाता है|
संजीव की सुबह इसी तरह किताबों से शुरू होकर रात किताबों में ही ख़त्म होती थी| पढ़ना और सिर्फ पढ़ना यही उसके जीवन के आयाम थे| वो इस शहर के मुख्य इलाके से कुछ दूर पतली गलियों में सिमटे इस सुकड़े व शुष्क इलाके में एक कमरा किराये में ले कर रह रहा था| किराया इतना था जो अकेले संजीव के लिए अधिक था इसलिए उसे दो लोगों के साथ ये कमरा बांटना पड़ा| अमित और दयाराम|
अमित एक मध्यम वर्ग का मेधावी छात्र था| जो इस शहर में कम्पीटीशन की तैयारी करने के उद्देश से आया था| वहीँ दयाराम देहात से आया एक शादी शुदा व्यक्ति था, जो सिर्फ प्रमाण पत्र के लिए यहाँ के विश्वविद्यालय में अध्यनरत था| रुपयों की तंगी के कारण इनके साथ वह कमरा बाँट कर रह रहा था| वैसे भी महीने के बीस दिन वो अपने गॉव में ही बिताता था|
अमित और संजीव सिविल सर्विस की प्रतियोगिता की तैयारी कर रहे थे| दोनों का लक्ष्य व विषय एक होने से दोनों साथ रहते लेकिन वे एक दूसरे के साथ तो थे लेकिन सानिध्य में नहीं थे जहाँ संजीव बेहद संजीदा युवक था वहीँ अमित हंसमुख और जुझारू युवक था|
* * *
संजीव अपनी साइकिल लिए तेज़ी से आगे बढ़ रहा था| आगे चौराहे तक पहुँचते उसने देखा कि आगे एक भारी जाम लगा है और जल्द ही उसे अंदाज़ा हो गया कि इस जाम के जल्दी खुलने के आसार भी नहीं है| वह साइकिल अपने कंधे में उठाए भीड़ से गुज़रता ,रास्ता ढूढ़ता दूसरी राह की ओर मुड़ गया| जाने कौन कौन सी गलियों को पार करते वह लगातार आगे बढ़ रहा था| तेज़ धूप और जल्दबाज़ी से वह जल्दी ही थक गया| अब वह साइकिल उतार कर उसका हैण्डल पकड़ें धीरे धीरे आगे बढ़ने लगा| संजीव गलियों से घूमते घूमते किसी चौड़ी सड़क पर निकल आया था| रास्ता समझते वह आगे बढ़ा जा रहा था कि संजीव के कदम चलते चलते ठिठक गए| उसकी निगाहें एक बड़े गेट को पार करती एक आलीशान कोठी पर जाकर रुक गई| गर्व से सीना ताने खड़ी कोठी अपने चारों ओर अनेक रंगों के साथ हरियाली समेटे थी पर संजीव की नज़र तो सिर्फ उस कोठी के मुख्य द्वार पर लगे ताले को भेदने को आतुर थी| देखते देखते उसके चेहरे पर उलझन और घबराहट के भाव साफ नज़र आने लगे | उसे अब अपने चारों और असीम शोर सुनाई देने लगा| उस शोर से बेकल संजीव का मन जैसे शरीर के भीतर छटपटा कर रह गया| अपने अन्दर दर्द का एक घूँट भरके उसने अपनी पथराई आँखों को थोड़ा नम किया और फिर साइकिल पर सवार होकर पैडल पर पांव मार आगे बढ़ गया|
वासु सर के आते सभी स्टूडेंट्स खड़े हो जाते है| वे एक एक स्टूडेंट के पेपर का अंक बताने के साथ साथ उसकी समीक्षा भी करते जाते साथ ही छात्र को उस पेपर में की उसकी स्थिति भी बताते जाते| संजीव का नाम आने पर वे कुछ पल रुक जाते है और उसकी तरफ देखते हुए कहते है -
‘संजीव – तुम क्लास के बाद मुझसे मिलना|’ संजीव देखता है कि सभी की नज़रे उसी की तरफ़ उठ गई है| वो चुपचाप बैठ जाता है|
‘सर –|’
अपनी टेबल के सामने संजीव को खड़ा हुआ देख वे उसे बैठने का इशारा करके ध्यान से उसकी तरफ देखते हुए कहते है-
‘जानते हो संजीव किसी पद के लिए कोई विशेष परीक्षा क्यों ली जाती है-|’
‘जी-!’
वे सहज कहे जा रहे थे-
‘क्योंकि उस विशेष पद के लिए उसका एक निश्चित माप दंड होता है और उसमें उतीर्ण होने वाले को ही उस पद के लिए उपयुक्त माना जाता है – क्यों हैं न !’
संजीव के चेहरे पर नीरवता छा जाती है| वे उसका चेहरा देखते हुए कहते जा रहे थे| ‘तुम सोच रहे होगे कि ये सब मैं तुम्हे क्यों कह रहा हूँ – देखो संजीव -|’ कहते कहते वे संजीव की तरफ झुक कर उसके कन्धों पर अपना हाथ रखते है –‘तुम यहाँ जिस परीक्षा की तैयारी करने आए हो तुम्हें उसकी उतनी ही तैयारी करनी चाहिए जितनी उसके लिए आवश्यक है – कोई भी अच्छी वस्तु अनावश्यक होने पर उतनी उपयोगी नहीं रहती – तुम्हें इस बात का ख्याल रखना चाहिए – आज मैंने तुम्हें यही समझाने बुलाया था क्योकि तुमने टेस्ट पेपर में सही उत्तर के साथ इतनी अनावश्यक जानकारी डाल दी कि मैं पढ़ते पढ़ते भटक गया – संजीव तुम एक उत्कर्ष छात्र हो इसलिए मैं तुम्हे ज्ञान के समन्दर में भटकने से बचाना चाहता हूँ|’
संजीव वासु सर की बातें दिमाग में मथता हुआ उनके क्लास से निकल रहा था कि सामने अमित को खड़ा पाता है|
‘क्यों बुलाया था वासु सर ने?’
‘कुछ ख़ास नहीं – चलो त्रिवेदी सर की क्लास है|’
‘नहीं – आज वे क्लास नहीं लेंगे – उन्होंने नोट्स दे दिए है – उन्हें रूम में चल कर देखेंगे – तुम चल रहे हो न मेरे साथ -?’ अमित को अपना आखिरी वाक्य प्रश्न की तरह संजीव के सामने रखना पड़ा क्योंकि संजीव की क्लास ख़त्म होने पर भी वह सीधे रूम में नहीं लौटता था, ये बात अमित अच्छे से जानता था|
* * *
पार्क के किसी सुनसान कोने की बैंच पर बैठा संजीव किसी किताब में मग्न रहा तब तक जब तक शाम का धुंधलका रात का हाथ पकड़ कर खींच नहीं लाया|
संजीव साइकिल स्टैंड से साइकिल निकालता है| संजीव देखता है कि उसकी साइकिल पंचर हो गई थी| वह साइकिल का हैण्डल थामे धीरे धीरे पार्क से निकलते लगता है| पार्क बंद होने का समय हो गया था| इक्का दुक्का लोग ही पार्क से बाहर निकल रहे थे| संजीव साइकिल खींचे निस्तेज भाव से आगे चला जा रहा कि एक तेज़ हँसी सुनते ही वह ठिठक गया|
‘लगता है जनाब का पेट्रोल ख़त्म हो गया है|’
संजीव पलट कर देखता है| वह देखता है कि एक गौरांग, लावण्य युक्त चंचल युवती अपनी सहेलियों के झुण्ड में काफी तेज़ी से हँस रही थी| वह संजीव को देख लगातार हँसी जा रही थी| संजीव क्रोध में वापस मुड़ कर बिना कुछ कहे आगे बढ़ गया| पर आगे बढ़ते काफी देर तक वो चंचल हँसी दूर तक उसका पीछा करती रही|
घंटा भर बैठ कर साइकिल का पंचर ठीक कराके संजीव व्यग्रता से आगे बढ़ा जा रहा था| संजीव, साइकिल और पैंडल एक ही वक़्त और एक ही जगह रुक जाते है| संजीव फिर से उसी कोठी के सामने खड़ा था| वैसा ही हताश और व्यग्र| उसकी निगाहें फिर से कोठी के मुख्य फाटक पर लगे ताले को घूर रही थी| मानों आहन को अपनी गर्म लाल आँखों की सलाखों से वह भेद देना चाहता था| उसके हाथ साइकिल के हैण्डल को कस कर थामे थे और आंखें उलझन के साथ अतीत की गहराईयों में गोता खा रही थी कि एकाएक वह सुनता है एक जानी पहचानी आवाज़ जो उसे पहचान गई थी|
‘तुम – तुम संजीव हो न – यकीन नहीं आता कि ये तुम हो!’
वह आश्चर्य में पड़ी नज़रे उसे कुछ सेकण्डो में ही ऊपर से नीचे देख डालती है| संजीव का अस्त व्यस्त चेहरा, बुझी बुझी आंखें, पुराने से दिखते कपड़े, पैरों की हवाई चप्पल और काँपते हाथों में थामे साइकिल के हैण्डल को|
संजीव उन रहस्य तलाशती नज़रों से बचता हुआ अँधेरे की तरफ मुहँ कर लेता है| अब रात के अंधेरों में उसका शरीर किसी छाया की भांति दिख रहा था|
‘इतने समय बाद तुम्हें वो भी इस तरह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ, कहाँ रहते हो आजकल, क्या कर रहे हो और तुम्हारा बड़ा भाई – क्या तुम दोनों साथ रहते हो – तुम कहीं नौकरी करते हो..?’
वे प्रश्न उसके कानों में गर्म पिघले सीसे की भांति बहे जा रहे थे| वह अन्दर ही अन्दर तिलमिला उठा था इन कटाक्ष भरे बाणो से| उस पल उसे लगने लगा मानों अचानक वह काँटों भरी झाड़ी में फंस गया हो| अब उसके चारों ओर सिर्फ कांटे ही कांटे थे| वह छटपटा रहा था वहां से निकलने के लिए| उस पल वह खुद को पसीने से नहीं बल्कि खून से लथपथ महसूस कर रहा था| बेसुध सा संजीव तेज़ी से पैंडल पर पैर मार अंधेरों में आगे बढ़ जाता है| वह लगातार तेज़ी से पैंडल में पैर मार रहा रहा था, मानों वो पैंडल न होकर गुज़रा वक़्त थे जिन्हें वह मार मार कर खुद से दूर करने का प्रयास कर रहा था| पैंडल पर पैर मारते हुए वह तब तक न रुका जब तक वह अपने गंतव्य तक नहीं पहुँच गया|
पसीने से लथपथ ,थका थका सा वह रूम में आया| उसने देखा कि ये क्या कोई संयोग है या भाग्य की कोई साजिश! रूम में वही अनजान युवती अमित के सामने बैठी तेज़ी से हँस रही थी| वह दरवाज़े पर ही ठिठक जाता है| आहट पाकर अमित उसे देखता है|
‘अरे संजीव तुम आ गए – यार वो पेपर्स टेबल पर रखे है|’
संजीव अन्दर आ जाता है| वह जानबूझ कर उस युवती को अनदेखा करता हुआ उसके विपरीत दिशा में मुंह किए बैठ जाता है| वह युवती अभी भी उसी उन्मुक्तता से लगातार हँस रही थी|
कुछ देर बाद दोनों रूम से निकल जाते है, फिर चन्द सेकण्डो में अमित अकेला रूम में प्रवेश करता है, अब वह संजीव के करीब खड़ा हो जाता है|
‘संजीव यार तुम्हे बहुत देर हो गई लौटने में|’
‘हाँ – वो साइकिल पंचर हो गई थी|’ शुष्कता से वह कहता है|
‘नमस्कार बंधुओं -|’
दोनों तेज़ी से आवाज़ की ओर देखते है|
‘अरे दयाराम जी – आइये आइये – अपना ही रूम समझिए इसे|’ कहते हुए अमित हँस देता है|
‘कैसे है आपलोग ?’
‘हम तो ठीक है – वैसे अबकि भाभी जी आपको कितने दिन तक की यहाँ रहने की छूट दी है|’ अमित चुटकी लेता हुआ कहता है|
दयाराम अपना टीन का बक्सा अपने पलंग के नीचे डालते हुए सिर्फ धीरे से मुस्करा देते है|
जब तक दयाराम कमरे में रहता है अमित काफी बातें करता है और काफी बातों में हँसता है| दयाराम की देहात की बातें सुन सुन वह उसकी काफी चुटकी भी लेता है| पर संजीव अलग थलग बैठा बस उनकी बातें सुन धीमे से मुस्करा कर रह जाता है| उसे उनमें जरा भी दिलचस्पी नहीं थी या यों कहे कि उसे पढाई के अलावा किसी चीज़ में दिलचस्पी नहीं थी|
* * *
अब वो अक्सर यहाँ आती| कितनी ही देर तक बैठती, अमित से देर तक बातें करती और उसी उन्मुक्तता के साथ वह हँसती| कभी अमित के लिए खाने की कोई चीज़ ले आती, कभी किसी किताब पर चर्चा करती रहती| वह जितनी देर उस कमरे में रहती उतनी देर संजीव उससे लगातार अपना ध्यान हटाने की कोशिशे करता क्योंकि उसकी वो उन्मुक्त हँसी बरबस ही उसका ध्यान उसकी ओर खींच ले जाती|
आज भी वह आई थी और अमित हमेशा की तरह उसे दरवाज़े तक छोड़ने गया था| दयाराम से दरवाज़े पर ही भेंट हो जाती है| वे अमित को तिरछी निगाह से देखते, बंद होठों के किनारों से मुस्कराते हुए अन्दर आ रहे थे|
‘नमस्कार बंधु और -|’ उसने अपने कहने में इतना लम्बा अंतराल छोड़ दिया ताकि सामने से कोई प्रतिक्रिया जरूर आए|
‘रुकिए जरा – इससे पहले की आप अपनी छोटी सी खोपड़ी से कोई बड़ा सा विचार बाहर निकाले मैं आपका परिचय इनसे कराता हूँ|’ अमित जल्दी से कह उठा|
‘ये है मेरी ममेरी बहिन हंसा|’ कहते हुए अमित चश्मा उतार कर रुमाल से उसके ग्लास पौछने लगता है|
वह फिर से हँस दी और अन्दर बैठे संजीव का ध्यान फिर से उसकी तरफ चला गया| वह बिल्कुल अपने नाम के प्रतिरूप थी|
‘नमस्कार हंसा बहिन जी|’
‘नमस्कार दया-राम-जी|’ वह ऐसे रुक रुक कर बोली कि फिर से तेज़ी से हँस पड़ी और दयाराम के दूसरी ओर मुड़ते उनके गंजे सिर के चंद बालों को देख मूक संवाद में अमित का ध्यान उधर खींचकर वह फिर से हँस दी|
संजीव को हंसा का बार बार हँसना बुरा लग रहा था| क्यों वह हर बात पर हँसती है| न हँसने वाली बात पर भी वह देर तक हँसती है| निश्चित ही वो पागल है या फिर उसके पास दुखी होने की कोई वजह ही न हो और उसे हर बात पर हँसना पड़ता हो| संजीव को फिर से अपना ध्यान जबरन उसकी तरफ से खींच कर अपनी किताब की तरफ लाना पड़ा|
‘अमित -|’ वह हमेशा की तरह बेतक्लुफ़ी से कमरे में आती है|
कमरे में अमित नहीं था| वहाँ सिर्फ संजीव था जो हमेशा की तरह किसी किताब में अध्यनरत था|
‘संजीव – अमित कहाँ है?’
उसने मेरा नाम इतने सहज ढंग से लिया मानों वह मेरी परिचिता हो? संजीव उसकी पुकार पर उसकी ओर एक टक देखता रह गया| उसके मन के उभरे शब्द उसके मन में ही घुमड़ कर रह गए|
‘अमित कब आएगा - ओहो – लगता है आप बेवज़ह बोलना शब्दों की तौहीन समझते है -|’ वह फिर तेज़ी से हँस दी और संजीव उससे नज़र बचाता हुआ झेंप गया|
‘आप कुछ जवाब भी देंगें या मैं प्रश्नों का पहाड़ आपके सामने यूँही खड़ी करती रहूँ|’
शायद इसी डर से वह बोल उठा|
‘मुझे नहीं पता -|’ वह अपनी अव्यवस्थित किताबें ठीक करने उठ गया| वह तय नहीं कर पाया कि वह अपनी अव्यवस्थित किताबें ठीक कर रहा था या मन !
‘आपको नहीं पता कि अमित कहाँ गया है तो ये भी नहीं पता होगा कि कब आएगा – तो ठीक है मैं यहीं रुक कर उसका यहाँ आने तक इंतज़ार करती हूँ|’
वह कहते कहते एक कुर्सी खींच कर धमक कर संजीव की तरफ मुँह करके बैठ गई|
ये देख संजीव हडबडाहट में सारी किताबें मेज़ से गिरा बैठता है| इस पर वह फिर से हँस पड़ती है| संजीव बेकली में इधर उधर देखने लगता है ,इस पर हंसा फिर अपनी शरारती मुस्कान के साथ कहती है –
‘अरे मैं यहाँ हूँ, आप कहाँ ढूंढ रहे है मुझे|’
वह मुस्करा रही थी पर संजीव अपने चिरपरिचित क्रोध के साथ था|
‘बहिन जी नमस्ते|’
‘नमस्ते दया – राम – जी|’ वह कमरे में प्रवेश करते दयाराम को देखती हुई पुनः हँसती हुई कहती है|
‘अमित जी तो नहीं है वे शाम तक यहाँ लौटेंगे|’ वह धीरे से कहता है|
‘चलिए – किसी को तो अपने रूम पाट्नर का अता पता है|’ वह उठकर खड़ी हो जाती है|
‘क्यों – संजीव जी ने बताया नहीं आपको – इन्हीं की साइकिल मांग कर तो वे मार्किट गए है|’
‘इन्हें क्या मालूम – इनका तो कोई दिल भी ले जाए तो भी इन्हें कोई ख़बर नहीं होगी|’
अबकि दयाराम और हंसा साथ साथ तेज़ी से हँसते है| देर तक उसकी हँसी उसने वहां महसूस की जिससे उसका क्रोध दुगना हो गया|
* * *
क्लास में संजीव और अमित साथ साथ बैठे थे , फिर क्लास ख़त्म होते वे साथ साथ सीढ़िया उतर रहे थे|
‘यार संजीव – मुझे आज मामा जी के यहाँ जाना है – हो सकता है मुझे आने में देर हो जाए तो रात मैं वहीँ रूक जाऊंगा|’
‘ठीक है -|’ संजीव सीढियाँ उतर चुका था|
संजीव रूम में अकेला था क्योंकि दोपहर को ही दयाराम भी अपने गाँव की ओर रवाना हो चुका था| अभी तक ऐसा नहीं हुआ था कि संजीव रूम में अकेला रहा हो| कभी दयाराम तो कभी अमित उस रूम में कभी न कभी उपस्थित रहते ही थे| ये बात अलग थी कि उनकी उपस्थिति उसके लिए नगण्य ही रहती पर उसे सहज बनाए रखने के लिए काफी होती थी|
वो पढ़ते पढ़ते एक पल रूक कर कभी दरवाज़े की ओर देखता, कभी छत की ओर ,कभी अधखुली खिड़की की ओर तो कभी मेज़ पर रखी घड़ी की बढ़ती सूई की ओर देखता| अचानक वहाँ अँधेरा हो गया शायद लाइट चली गई थी| संजीव जबरन आँखें फाड़े उस अँधेरे में देखने की कोशिश कर रहा था पर अचानक रौशनी के बाद का अँधेरा सबसे घना और विकराल होता है| कुछ ही पलो में वह टटोलता हुआ लालटेन जला लेता है|
लालटेन मेज़ पर रख कर वह फिर पढ़ने की कोशिश करने लगता है| पढ़ते पढ़ते यकायक उसकी नज़र अपनी बगल की दीवार पर लालटेन की रौशनी से बनती परछाई पर पड़ती है| लालटेन की नाचती लौ से हिलती दुलती परछाईयां आपस में कोई न कोई आकार ले रही थी, संजीव की नज़र उन पर पड़ते ही उसकी नज़र एक टक उस पर स्थिर हो जाती है| लगातार उस ओर देखते रहने से उसे वे चित्र चलचित्र की भांति चलते शोर करते जान पड़ने लगते है| वो शोर लगातार तेज़ होता गया, संजीव घबरा कर फैली आँखों से उस ओर देखता है जिससे वो चित्र के चेहरे साफ होते नज़र आने लगे| वो ध्यान से उन्हें पहचानने की कोशिश करने लगता है| शायद एक साया उसके बड़े भाई का था, जो अपनी पत्नी और बच्चों के साथ किसी कतार में खड़ा था, वो और गौर से देखता है शायद किसी राशन की दुकान के बाहर खड़े उसके भाई के हाथ में एक थैला था ,वे हताश और मुरझाए से खड़े थे| फिर गड मड होते चलचित्रों में वो देखता है एक लम्बा सा साया फर्श पर चित लेता था| उस साए को कफ़न ओढ़ाते आस पास लोगो की भीड़ सी जमा थी| वो गौर से देखता है शायद वे उसके पिता थे| उस पल उसकी आंखें नम हो उठती है| ऐसे एक एक करके वो हर साए को पहचानने की कोशिशे करता है| इसी के साथ उसके चेहरे के भावों में तेज़ी से उतार चढ़ाव आता रहता है| तभी चारों ओर उजाला फ़ैल जाता है| लाइट आ गई थी|
अगले क्षण संजीव को अहसास हो जाता है कि वे साए अँधेरे में मेज़ पर रखे सामानों के साए थे| क्योंकि वे लोग कभी वापस लौट ही नहीं सकते थे, वे कायर थे जो अपनी परीस्थितियो से हार कर चले गए लेकिन वह कायर नहीं है| अपनी परीस्थितियो से नहीं भागा, न ही उसने वो शहर ही छोड़ा|
वह कलम की नोक मेज़ पर कस कर टिकाए उस कलम की जगह उस कोठी को महसूस करने लगता है| उस विशाल कोठी के प्रांगन में खड़ा संजीव चारों ओर आंखें भर भर के उस कोठी की हर दरो दीवार को अपने ह्रदय के रोम रोम में संहित कर रहा था| वो बेचैनी में गहरी गहरी सांसे भरने लगता है जैसे क्षण भर में ही वो मीलों का रास्ता तय कर आया हो|
* * *
अमित रूम में वापस नहीं आया बल्कि वह सुबह के निश्चित समय पर कोचिंग सेंटर पहुँच गया| संजीव वहाँ पहले से ही उपस्थित था|
‘गुड मार्निग संजीव -|’
वह चौंका| संजीव वह आवाज़ सुन सकपका गया| वह पलट कर देखता है|
‘देखो अब मैं आपका यहाँ भी पीछा नहीं छोडूंगी|’ वह अपनी चिर परिचित हँसी से हँस रही थी|
अमित ने बीच में आकर हंसा को इशारे से चुप रहने का संकेत किया| अब हंसा होठों के अन्दर से मुस्करा रही थी|
‘ओके मैं चली – शाम को किताब लेने आउंगी|’
वह चली गई तो संजीव ने राहत की साँस ली| कम से कम उसका यहाँ का एक डर तो वही समाप्त हो गया| लेकिन संजीव को याद रहा कि शाम को वह रूम में जरूर आएगी, तो वह देर रात रूम में पहुंचेगा|
साइकिल खड़ी कर वह एक एक सम्भलते क़दमों से रूम में कदम रखता है कि कहीं हंसा तो नहीं वहाँ! वह रूम को एक नज़र में ही खंगाल डालता है और राहत भरी साँस लेता है|
अब अक्सर ही हंसा कहीं न कहीं उसे मिल जाती थी| कभी पार्क के बाहर, कभी रास्ते पर, कभी कहीं भी| वह तंग आ चुका था| उसे लगने लगा था कि अचानक से ये शहर इतना छोटा क्यों हो गया कि हंसा हर जगह उसे दिख जाती थी| और वो भी हमेशा उसे इस तरह देखकर क्यों हँसती रहती है| उसकी चंचल हँसी उसे दिल पर बरछी सी लगती है| वह सोचना भी नहीं चाहता था उसे फिर भी वह उसके विचारों में समाती जाती थी| क्यों? वह उससे शरारते करती, उसे देखकर मुस्काती है|
एक दिन तंग आकर उसने उस एकांत में उसका बाजू पकड़ कर झिंझोड़ा|
‘देखो हंसा – ये जो हो रहा है बिल्कुल ठीक नहीं है|’
‘अच्छा -|’ हंसा से होठों पर फिर चिरपरिचित शरारती मुस्कान खिल गई|
‘हंसा – तुम आखिर मेरे साथ क्यों मज़ाक करती हो – चाहती क्या हो तुम – तुम्हें – तुम्हें भय नहीं की कहीं -|’ कहते कहते संजीव चुप हो गया| इतने पास से वह उसकी आँखों की अनकहीं देख रहा था ,कितनी गहराई ,कितनी स्वछंदतता थी उसकी आँखों की गहराई में जिसमे उसके शब्द खो गए थे| वह अभी भी युही मुस्करा रही थी|
‘कहीं प्रेम न हो जाए|’ कह कर वो और जोर से हँस दी|
संजीव ने घबरा कर उसके बाजू छोड़ दिए| उसने कहा और फिर युही हँसती हुई चली गई पर संजीव वहीँ खड़ा सोचता रहा| ‘ऐसा क्यों कहा उसने? अगर कहा भी तो फिर उसे हँसना नहीं चाहिए था! अगर हँसी भी तो उसे यही बात ख़त्म करनी चाहिए थी,पर रूम में आने की बात क्यों कही उसने? वह अमित से मिले वह उसका भाई है, उससे हँसे बोले पर मैं क्यों? अनबुझे प्रश्नों के साथ वह रूम में वापस आता है और खुद से ही बातें करता हुआ मेज़ की ओर बढ़ जाता है|
‘मुझे पढ़ना है – मुझे सिर्फ पढ़ना है|’
वह अपनी मेज़ पर की किताबें उथल पुथल करता रहा|
अमित उसके पास आता है|
‘संजीव|’
वह बिना कुछ कहे अमित की तरफ देखने लगता है|
‘यार – सॉरी तुम रूम में थे नहीं तब मैंने तुम्हारी एक किताब हंसा को दे दी|’
अमित की आवाज़ सुन संजीव पलटता है, और गौर से उसका चेहरा देखने लगता है|
‘उसे अपने स्नातक के विषय के लिए वह किताब चाहिए थी,कल सुबह तक वह तुम्हारी किताब जरूर लौटा देगी|’
अमित ने अपनी बात ख़त्म की और चन्द क्षणों तक वह भी संजीव का चेहरा गौर से देखने लगा कि शायद संजीव कुछ कहे पर संजीव चुप रहा| वैसे भी किताबों को लेकर उनके बीच एक समझौता पहले भी हो चुका था| कम्पीटीशन की सारी महंगी किताबें खरीदना उन दोनों के लिए एक मुश्किल समस्या थी, इसलिए दोनों ने तय किया था कि कुछ किताबें संजीव ख़रीदे और कुछ किताबें अमित खरीद लेगा फिर आपस में बाँट कर वे पढाई कर लेंगे| संजीव अपनी छात्रवृत्ति से प्राप्त एक निश्चित धनराशी से अपना सारा खर्च चलाता था, इसलिए अमित जानता था कि संजीव के लिए उसकी किताबें कितनी मायने रखती है|
उस पूरी रात संजीव पढ़ता रहा क्योंकि परीक्षा का फार्म भरा जा चुका था और परीक्षा निकट थी| पूरी रात में शायद ही संजीव ने एक झपकी ली हो| लेकिन सुबह होते होते नींद और थकान की बदहाली ने उसे दबोच लिया और वह मेज़ में सिर रखे गिर पड़ा था या सो गया था| सुबह अमित उसे उठाता है|
‘उठो संजीव – सात बज रहे है|’
अमित बिल्कुल तैयार था| अमित सब निश्चित समय पर करता था| उसके लिए जितना पढ़ना जरूरी था,उतना ही सोना भी जरूरी था, खाना भी जरूरी था तो थोड़ा घूमना भी जरूरी था| वह किसी भी वक़्त किसी भी चीज़ को अपने ऊपर हावी नहीं होने देता था| वह रात में पढ़ कर और सुबह तक सो कर रिलैक्स उठा था और तैयार होकर संजीव को उठा रहा था|
‘संजीव – उठो|’
‘हूँ – हाँ -|’ बोझिल, लाल आँखों से वह अमित को देखता है|
‘नौ बज रहे है – कोचिंग जाना है – और ये लो किताब – हंसा आई थी – तुम्हारी किताब वापिस कर गई|’
वह सब सुनता है पर जवाब कुछ नहीं देता अब वह जबरन अपने अन्दर फुर्ती भर कर उठता है और मुँह धोने चल पड़ता है| जल्दी ही मुँह धोकर वो वापस आते ही मेज़ पर रखी वही किताब उठा लेता है जिसे हंसा वापस कर गई थी| एक नज़र में पूरी किताब पलट कर वह वापस उसे मेज़ पर रखता है कि सहसा एक लिफाफा उसमे से निकल कर नीचे गिर पड़ता है| संजीव आंखें फैलाए ज़मीन में सोते उस लिफाफे को देखता रहता है| उस को लगा जैसे वह रंगीन लिफाफा कोई सोता हुआ दैत्य है जिसे वह ज्यों ही हाथ लगाएगा वह उसे काट लेगा| अचानक वह चिल्लाया –
‘अमित -|’
अमित आवाज़ सुन संजीव की ओर देखता है|
‘अमित – अमित ये देखो – ये लिफाफा – देखो – मै सही था – तुम्हारी बहिन को बिल्कुल तमीज नहीं – उसने मुझे पत्र लिखा है – देखो -|’
संजीव अज़ीब ढंग से बौखलाया वहीँ खड़ा खड़ा चिल्ला रहा था| अमित को संजीव का यह व्यवहार अच्छा नहीं लगा| वह तेज़ी से उस ओर आता है|
‘ये क्या कह रहे हो संजीव?’
‘देखो – तुम खुद देखो – मेरी किताब तुम्हारी बहिन क्यों ले गई थी|’ संजीव अभी भी बदहवास चिल्लाए जा रहा था|
अमित को संजीव का प्रतिउत्तर करने का मन हुआ लेकिन जबरन वह अपने हिलते होंठ को बंद कर झटके के साथ जमीन में पड़ा वह लिफाफा उठा लेता है और जल्दी ही उसे खोलकर संजीव को दिखाते हुए कहता है|
‘ये देखो – ये खाली लिफाफा है – संजीव होश में तो हो – माना मेरी बहिन चंचल है और हँसी मजाक में कुछ भी कह जाती है पर उसे तहजीब है – पता नहीं तुमने ऐसा क्यों सोचा लेकिन मैं तुम्हें एक बात बता दूँ कि कुछ दिनों में वह यहाँ आना बिलकुल बंद कर देगी क्योंकि उस दिन मैं उसकी मंगनी में गया था और आज से आठ दिन बाद उसकी शादी है|’ अमित एक साँस में ही सब कह गया|
संजीव अचरज भरी नज़रों से उस लिफाफे को अभी भी देख रहा था जिसे मोड़ कर अमित कमरे के कोने के हवाले कर चुका था|
अमित अभी भी कह रहा था –
‘मैं मानता हूँ कि हंसा कभी कभी अपनी चंचलता में हँसी की सीमा पार कर जाती है पर उसका दिल साफ़ है और हाँ – वो कोई पूर्वाग्रह में नहीं जीती – मेरी हमउम्र होने के कारण वो बेतल्लुफ़ी से यहाँ आती जाती थी लेकिन मुझे नहीं पता था कि उसका यहाँ आना तुम्हें इतना नागवारा गुज़रता है|’ जल्दी से अपनी बात खत्म कर अमित दूसरी तरफ़ मुड़ जाता है|
संजीव की कही बात सच्ची थी या झूठी ये बात न कोई तय कर पाया न ही कोई समझ पाया ,हाँ आगे काफी समय तक दोनों के बीच संवाद जरूर कम हो गए| सिर्फ जरुरत पर कुछ कहना और कुछ जरूरी हो तो सुनना बस| हंसा भी नहीं आई फिर| पर संजीव आठ दिनों तक लगातार एक एक दिन गिनता रहा कि हंसा आए ताकि वह उसे देखकर भी अनदेखा कर उसकी उपेक्षा कर सके| वह उसे अहसास कराना चाहता था कि वह उसकी तरफ आकर्षित हो सकती है पर वह उसे अपने जींवन के उदेश्य के सामने एक बाधा ही समझता है| उसकी उपेक्षा करने के इंतज़ार में वह घुट घुट कर आठ दिन गुज़रता है फिर कुछ दिन अमित नहीं आया| वह समझ गया कि हंसा की शादी हो गई| उसने खुद को समझाया कि हंसा उसके पास आना चाहती थी पर लोगों ने उसे उसके पास नहीं आने दिया होगा| उसकी शादी जरूर जबरदस्ती की गई होगी| ठीक ही हुआ जो लोगों ने उसकी बात हंसा तक पहुँचा दी| संजीव सिर्फ पढाई के लिए बना है, उसके जीवन का उद्देश्य बहुत बड़ा है इसके लिए बहुत से लोगों को समझौता करना पड़ेगा|
* * *
दिन गुज़रे| जल्दी ही दोनों ने एक साथ आई ए एस की परीक्षा का फॉर्म भरा| प्री की परीक्षा दोनों पास कर चुके थे अब उन्हें मुख्य परीक्षा के कठिन समंदर को पार करना था| कोचिंग भी अब ख़त्म हो चुकी थी| फिर समयानुसार परीक्षा हुई अब दोनों को परिणाम का इंतज़ार था| संजीव परिणाम देख जोश से भर उठा| अब इन्टरव्यू की आखिरी बाधा को उसे पार करना था| लेकिन संजीव एक नंबर से वहां रह गया| ऐसा पहली बार नहीं हुआ था बल्कि दूसरी बार ऐसा फिर हुआ की संजीव इन्टरव्यू के आखिरी पड़ाव में चित हो गया| कई बार कभी प्री से कभी मुख्य परीक्षा के विशाल दानव से संघर्ष करता वह इन्टरव्यू के पड़ाव तक पहुंचा था| संजीव के लिए उसका सपना टूटना बिल्कुल ऐसा था जैसे बारिश की उम्मीद में काले बादल तो आए पर बिना बारिश किए वापस चले गए| संजीव निराशा के गहन समन्दर में डूब गया| अमित ने सिविल सर्विस की परीक्षा के साथ साथ इसके समकक्ष और भी परीक्षाओं को दिया था, उन्हीं में से किसी में वह आ गया| अमित सिर्फ एक अच्छी नौकरी चाहता था| पर संजीव तो आई ए एस बनने को अपना जूनून मान बैठा था| वह दिन रात सिर्फ इसी का सपना देखा करता था|
आज अमित के लिए उस रूम में उसकी आखिरी रात थी| दयाराम तो पहले ही अपनी परीक्षा पास करके जा चुका था| अमित ने आज जाते वक़्त आखिरी बार पुरानी दोस्ती या शायद जान पहचान के कारण संजीव से बात की|
संजीव अपने में ही खोया अपनी स्टडी टेबल पर बैठा किसी किताब में झुका हुआ था|
‘संजीव -|’ अमित उसकी टेबल के सामने खड़ा था – ‘कल सुबह मैं जा रहा हूँ – मैं अपनी कुछ किताबें तुम्हारे लिए छोड़े जा रहा हूँ – शायद तुम्हारे काम आ जाए – मैं उन्हें फिर कभी बाद में ले जाऊंगा|’ संजीव ने कोई प्रतिक्रिया नहीं की| वह अभी भी किताब के पन्ने को घूर रहा| एक टक उसकी आंखें जैसे स्थिर हो गई थी|
‘देखो संजीव – जीवन की घटनाएँ बड़ी अनिश्चित और संयोग से भरी हुई है – हम अपने अपने सपनों से जीवन की शुरुआत करते है लेकिन जीवन में सब कुछ हमारे अनुसार घटित नहीं होता – मैंने भी तुम्हारी तरह अपने जीवन में एक बड़ा लक्ष्य बनाया था – लेकिन संजीव जीवन को जीने के लिए कुछ समझौते भी करने पड़ते है – मैं तुमसे भी यही कहूँगा कि सपने और हक़ीकत को अलग अलग रखो और -|’ अमित की बात अचानक से बीच में ही अवरुद्ध हो गई क्योंकि अब संजीव किताब झटके से बंद कर उसकी तरफ अपनी शून्य आँखों से देखता हुआ आक्रोश में भरा कह रहा था – ‘नहीं करूँगा समझौता – कभी नहीं – मैं इस संकरे कमरे में इसलिए घुट घुट कर नहीं जी रहा हूँ कि एक दिन ज़िन्दगी समझौते की आग में झौंक दूँ – मुझे किसी भी कीमत में अपना लक्ष्य पाना है – समझौता नहीं करना |’ वह बोलते बोलते चीखने लगा था |उसकी विक्षिप्त हालत देख अमित के शब्द जड़ हो गए थे|
‘तुम नहीं जानते हो कि मैं कौन हूँ – मैं राज़ घराने से हूँ – ज़िन्दगी में छोटा सोचना सीखा ही नहीं है – और तुम मुझे समझौता करने को कहते हो क्योंकि तुम नहीं जानते कि मैं कौन हूँ - तभी तुम्हारी इतनी तुच्छ सोच है – तुम नहीं जानते मैं कौन हूँ|’
संजीव के उलझे भाव उसके शब्दों में उतर आए थे| अमित चाह कर भी उस पल कुछ नहीं कह पाया और चुपचाप वहाँ से चला गया|
अब दिन रात संजीव उस कमरे में अकेला था| अब वहाँ की निश्ब्द्तता और भी गहरी हो गई थी| वह फिर से पढ़ाई में लग गया| धीरे धीरे उसके पढ़ने का समय बढ़ता गया| उसे अब रात दिन का अंतर भी महसूस नहीं होता था| उसकी चढ़ी आंखे ,सुस्त चेहरा, निस्तेज देह इस बात की सबूत बन गई कि अब उसके जागने का समय बढ़ता और सोने का समय घटता चला गया था| उसने फिर परीक्षा का फॉर्म भरा| वह परीक्षा देने गया| वह परीक्षा दे आया| समयानुसार परीक्षा का परिणाम निकला , उसे विश्वास नहीं आया कि अबकि वह परीक्षा में पास तक नहीं हो पाया|
* * *
वह देर तक आंखें फाड़े अपने कल को देख रहा था| एक तरफ पेड़ की अँधेरी छाव में उसकी साइकिल खड़ी थी| दूसरी तरफ के अँधेरे में संजीव खड़ा था जो दृष्टि भर कर उस कोठी को घूरे जा रहा था जो गुज़रते वक़्त के साथ धूल में सनी खड़ी थी| उसके आस पास के सभी दरख़्त सूख चुके थे| दूर दूर तक हरियाली का नामों निशान नहीं था| अबकि काफी समय बाद संजीव वहां आया था| वह बड़ी बेचारगी से उस कोठी को निहार रहा था उसी उपक्रम में एक असाध्य पीड़ा उसके चेहरे पर उमड़ती जा रही थी| जिसमे उस कोठी की जर्जर हालत पर गहन मातम था| उसकी हर ईट अपनी बदहाली का जीता जगता स्वरुप थी| संजीव बेचैनी में तेज़ी से अपने चारों ओर देखने लगता है| उसे उस गहन अँधेरे की ख़ामोशी में भी तेज़ आवाज़ों का शोर सुनाई देने लगता है| क्षण भर में आवाज़ों के साथ चलते चलचित्र उसे अतीत की गुमनाम गुफा में ले जाते है| जहाँ चारों ओर आवाज़ों के तेज़ शोर गूंज रहे थे| वह शोर को परत दर परत खोलने लगता है| वह सुनता है| एक तरफ कोठी के अन्दर से आती चीख पुकार थी तो दूसरी तरफ आस पास अफरा तफरी मची थी| उन आवाज़ों के शोर में एक स्वर नीलामी की बोली का स्वर था| उसने अपनी आँखों के सामने उस महलनुमा आलीशानकोठी की एक एक दरोदीवार ,सामानों ,की नीलामी होती देखी| लोग ऊँची ऊँची बोनी लगा कर कोठी का एक एक सामान ले जा रहे थे पर उस को लग रहा था जैसे वो सामान नहीं उसके शरीर का एक एक हिस्सा नोच के ले जा रहे हो| संजीव बदहवास सा उनसे बचने चीख रहा था और बेबस सा सब होता हुआ देख रहा था| संजीव के पिता ये सदमा बरदाश्त न कर पाए और जहाँ की जिल्लत पर से हमेशा के लिए आँखें मूंद कर उसी कोठी के फर्श पर सदा के लिए सो गए| उस पल संजीव को लगा कि वो अब हमेशा के लिए अनाथ हो गया इसलिए नहीं कि बचपन में उसकी माँ चल बसी और आज उसका पिता बल्कि इसलिए कि आज से वह उस कोठी की सर जमी से भी महरूम हो गया जिसने सदा उसे संरक्षक की तरह अपने आगोश में पाला था | जहाँ वह हर दुखद विचार से परे सबसे सुखद और सहज महसूस करता था| आज वही कोठी उसके लिए बेगानी हो गई थी|
उसका मन अन्दर ही अन्दर चित्कार उठा कि आखिर ऐसा वक़्त क्यों उसके जीवन में आया? उसे उस बेरहम वक़्त का यह फैसला नामंजूर था| क्यों वक़्त के बेरहम हाथों ने एक ही क्षण में उसे अर्श से फर्श पर गिरा दिया अब वह क्या करे? यही प्रश्न उसके दिमाग को मथने लगा था| वह वक़्त से हार गया था पर वो हार उसे पूरी तरह से अस्वीकार थी| तब उसने तय किया की वह पढ़ेगा और एक सर्वोच्च पद हासिल करेगा ताकि लोग फिर से उसके आगे अदब से झुके और उसकी हाँ-ना के लिए घंटों इंतज़ार करे तब उसके एक एक शब्द उनके लिए फैसले की तरह होंगे| वह राजा की तरह लोगों के बीच रहना चाहता था| वह भीड़ से अलग था| वह भीड़ का कोई गुमनाम चेहरा बिल्कुल नहीं रहना चाहता था|
लेकिन अभी तो उसे लोगों की कर्कश निगाहें अपने ऊपर सहनी थी| हर पल उसे लगता कि हर निगाह उसे चिढ़ा रही है| हर कोई उस पर हँस रहा है| उसे हँसी से चिढ़ सी हो गई| धीरे धीरे वहीँ चिढ़ाती नज़रे उस पर तरस खाने लगी| वह इससे भी तिलमिला उठता था |
वह अपनी वर्तमान परिस्थिति से समझौता करने को बिलकुल तैयार नहीं था लेकिन उसने देखा उसके बड़े भाई ने तो अपने वर्तमान को ही अपना भविष्य मान लिया| उन्होंने इस असहनीय स्थिति से निकल जाने की सोच ली| शायद उसमें इस विपदा को सहने की शक्ति नहीं थी| संजीव ने देखा कि हमेशा गर्व से उठा रहने वाला सर कैसे परिस्थितियों की लपटों से झुलस गया था| उसके भाई ने अपनी पत्नी और बच्चों के साथ हमेशा के लिए ये शहर छोड़ दिया| अब कोई नहीं जानता था खुद संजीव भी नहीं कि वह कहाँ है? पर एक दिन उसने ये जरूर सुना कि वह कहीं क्लर्क की नौकरी पर है|
समृद्धि और सुख में खेलने वाला परिवार वक़्त की मार से अचानक से गर्द में मिल गया| और इसका सबसे गहरा आघात तो संजीव को लगा| उसने कोठी तो छोड़ी लेकिन वह शहर नहीं छोड़ा उसने रास्ता तो बदला पर यादों को आने से नहीं रोका| वह इसी शहर में रहकर अपमान का घूंट लगातार पीता रहा और वक़्त के जख्म को लगातार कुरेद कुरेद कर हरा करता रहा| उन्हीं जख्मों के रिसते खून से लथ फथ वह फिर से वापस रूम में आ गया|
* * *
वह जाने कितने घंटे से लगातार पढ़ रहा था, इसका उसे खुद ही भान नहीं था| उसे नहीं पता था कि दरवाज़े के पीछे क्या हलचल है|
अमित कार से उतरता है| वह रूम में ज्यों ही दाखिल होने वाला था एक आदमी अचानक उसके सामने आ कर खड़ा हो जाता है|
‘नमस्ते अंकल|’ उसको देख अमित जल्दी से कहता है|
‘नमस्ते बेटा – मैंने ही तुम्हें फ़ोन किया था – संजीव के पास तो मैं जाने की हिम्मत नहीं कर पाता – तुम आ गए हो अब खुद ही देख लेना – उसकी हालत बद से बदतर होती जा रही है – जाने कब से उसने मकान का किराया भी नहीं दिया – ये देखो -|’
एक खुला रजिस्टर उसके आगे कर देता है| अमित एक सरसरी निगाह से उसे देखता है|
‘अब मैं क्या कहूँ – तुम तो मेरी माली हालत से वाकिफ हो बेटा – इस कमरे के किराये से मेरा घर चलता है बाकि मेरी नौकरी तो नाम मात्र की है कई कई महीने बाद तनख्वाह मिलती है|’
वह अपनी बात कहता रहा और अमित अपनी जेब से पर्स निकाल कर नोटों को गिन कर उनकी तरफ बढ़ा देता है|
‘लीजिए|’
‘अरे बेटा ये क्या – मुझे कायदे से तुमसे किराया नहीं लेना चाहिए – पर मेरी भी मजबूरी है – क्या करूँ|’
वे नोट जल्दी से समेट लेते है|
‘मैं संजीव से मिलता हूँ|’
‘हाँ हाँ बिल्कुल बेटा – जाओ और समझाओ उसे -|’
वे एक किनारे खड़े हो जाते है| अमित दरवाज़ा खोल कर धीरे से अन्दर कमरे में प्रवेश करता है| वह एक नज़र में अपनी सरसरी निगाह से कमरे को देख डालता है| इस कदर बदहाली का उसने अंदाज़ा भी नहीं लगाया था| कमरा पूरी तरह से अस्त व्यस्त था| कमरे के कोनों से अजीब सी बदबू आ रही थी| फिर उसकी आंखें संजीव को तलाश लेती है| वो उसी तरह किताब में मग्न था उसे ख्याल भी नहीं था कि कोई कमरे के अन्दर आ गया है| अमित को लग रहा था कि जैसे वह संजीव को जिस जगह छोड़ कर गया था तब से वो वहीँ उसी तरह बैठा है| संजीव की विक्षिप्त हालत देख अमित कुछ पल के लिए सहम गया| बिखरे बाल और रूखे चेहरे पर अजीब सी टंगी टंगी सी आंखें|
‘संजीव -|’ आखिर उसने पुकार लिया लेकिन संजीव ने उसकी तरफ नहीं देखा जैसे उसे उसकी बात सुनाई ही न पड़ी हो|
‘संजीव – मैं अमित -|’ अबकि उसने कुछ पास जा कर पुकारा|
संजीव चौंका मानों चिर निद्रा से जगा हो|
‘संजीव कैसे हो – देखो मैं तुमसे मिलने आया हूँ|’
संजीव चेहरा उठा कर अमित की ओर देखता है मानों उसे पहचानने की कोशिश कर रहा हो|
‘मुझे पहचाना नहीं यार!’ अमित संशय में पड़ा संजीव को देख रहा था|
‘अच्छा – तुम अन्दर कैसे आए – तुम्हें मेरी कोठी में प्रवेश किसने करने दिया – मेरे नौकरों ने तुम्हें रोका नहीं – नहीं जानते कि मुझसे बिना अपोइंटमेंट के कोई नहीं मिल सकता – तुम अन्दर आए कैसे -|’
संजीव के विश्रृंखलित हाव भाव से अमित की आंखें डर से फ़ैल गई|
वह अचानक से उठा|
‘जाओ – मुझे परेशान मत करो – मुझे पता है – सब मेरे खिलाफ साजिश रचते है – मुझे पता है सब मेरी पीठ पीछे मेरे खिलाफ साजिश करते है –जाओ - |’ वह चीखा|
लेकिन अमित के वहीँ खड़े रहने पर अब वह मेज़ पर से एक एक किताब उठाकर अमित की तरफ फेकने लगता है| वह लगातार अमित की तरफ किताबे फेकने लगता है| अमित किसी तरह से बचता जल्दी से बाहर आ जाता है| बाहर आकर अन्दर की घटना और संजीव को ध्यान कर परेशान हो उठता है| उसने देखा था कि संजीव जब खड़ा हुआ था तो वो सीधा भी खड़ा नहीं हो पाया था, शायद कुर्सी पर लगातार बैठे रहने के कारण उसके पैर टेढ़े हो गए थे| अमित विभ्रांत मन से टैक्सी में बैठकर चला गया|
* * *
वह टैक्सी में बैठा सोच रहा था कि वह तो संजीव से मिलने आया था, उसका हाल जानने और अपना हाल देने आया था लेकिन उसकी विपदा देख आज उसे अपने सुखो से घबराहट होने लगी थी| वह सोचने लगा कि वह सिर्फ आज रात भर के लिए इस शहर में है कल सुबह वह चला जाएगा| अभी वह हंसा से मिलने जाएगा| उसके सुखी परिवार को देखेगा पर क्यों वह संजीव को देख कर इतना व्यथित है?
रात घटी तो सुबह हो गई| हंसा उसे स्टेशन तक छोड़ने आई अपनी उसी स्वछंद हँसी के साथ| अमित सुबह का अखबार लेकर जल्दी से अपनी सीट पर बैठ गया और हाथ हिलाते हुए उसने अलविदा कहा – हंसा को, हंसा के परिवार को और शायद उस शहर को भी|
ट्रेन में अमित लगातार बाहर खिड़की की ओर देख रहा था| ट्रेन अपनी रफ़्तार से भागी जा रही थी| अमित के पास बैठे एक सज्जन अमित से अखबार मांग कर पढ़ने लगे| फिर वे अपने दूसरी तरफ बैठे अपने परिचित से अपनी बातों के क्रम में कहने लगे –
‘अरे शुक्ला जी – ये देखिए – शहर की वो कोठी आपको याद है – शहर के रईस परिवार की इति को काफी समय पहले ही हो गई थी पर कल रात उनकी कब्र भी बन गई|’
‘क्या कहते हो भाई -|’
‘हाँ भई – कल रात कोठी पूरी तरह से गिर गई और लिखा है उसमें कोई दब कर मर भी गया|’
‘कौन !’
‘क्या पता – पर लिखा है रात को ही कोई युवक कोठी का ताला तोड़ कर अन्दर आया था – पता नहीं शायद कोई पागल रहा होगा – कोठी की दीवारों पर पथ्थर मार रहा था – और वह जर्जर कोठी धसक गई और वह भी उसी में रात भर दबा पड़ा रहा - सुबह उसकी लाश मिली -|’
मातम के साथ उन्होंने आपस में टिपण्णी की और विषय बदल कर आगे बात करने लगे| पर अमित का चेहरा पीला पड़ गया| एक मन उसे यकीन दिलाता रहा कि वो युवक संजीव नहीं हो सकता वहीँ दूसरा मन कह उठा कि कहीं वह संजीव तो नहीं !