बात जब उसकी नसलामती की होती है
तब दूरियाँ सबसे ज़्यादा ज़हर लगती है...
आये दिन नई उलझनों का सिलसिला कुछ नया तो नहीं है पर
तब हालातों की मनमानी हद से ज़्यादा लगती है ...
मैंने कोशिश की है लिखकर कुछ मन हल्का करने की पर
उसकी फ़िक्र में कलम, रोशनाई सब नासाज़ लगती हैं ...
एक ही अज़ीज़ चाहत है ज़िन्दगी की जो पूरी ज़िन्दगी मिलने से रही
और नसीब ऐसा कि उस ही पर सौ पाबन्दियां लगती हैं ...
कुछ भी तो नहीं है आज शहर में
न जुलूस न जश्न न जमात न काफ़िला कोई
फिर ये कैसी आवाज़ें हैं जो कानों को लगती हैं ...
उसे काम और भी है इधर-उधर के ज़िन्दगी के ज़द्दोज़हद के मगर
तबियत की रजामंदी तो हर जगह लगती है ...
और मिलने की कौन कहे यहाँ फासले भी सलामत नहीं हैं
जब एक-एक कर हर ज़रिया लुटे तो तकलीफ़ बहुत होती है ...