रावण तेरे अंदर है तू किस रावण को जला रहा।
यह सोच गलत तेरी है मानव तू अंहकार में घूम रहा।।
तू समझ रहा खुद को सच्चा फिर मानव से क्यों जलता है।
काम, क्रोध,मद ,लोभ,मोह में अंधा हो तू चलता है।।
तेरे रिपू तेरे अंदर तू किस रावण को खोज रहा।
जो राम बसा दिल के अंदर , मंदिर मस्जिद में खोज रहा।
जो जन्म देकर दुनिया में,तेरे लिए वे राम नहीं।
तू उनसे घृणा करता है क्या तुझ रावण के काम नहीं।।
मन का मैल मिटा नहीं मन से,इधर-उधर क्यों भटक रहा।
कुछ तेरी सोच में कर परिवर्तन, क्यों हीन सोच पर अटक रहा।।
ना रावण नीच ना कंश नीच,नीच है अवगुण उनके।
तू चला गया जलाने रावण,रावण,कंश के गुण भरके।।
नई सोच को दे ज्योति, दिमाग के तम का नाश करों।
जो द्वेष दंभ भरने है मन में,हे मानव दिल से दूर करो।
विचार भिन्न नहीं होते यहां,जाति, धर्म वर्ण में जन नहीं बंटता।
मानव ,मानवता पर चलता सदा, मानवता धर्म से नहीं हटता।।
नई गति देकर दुनिया में ,मानव को यह समझाना है।
तू राम नाम होगा भक्ति पूजा से, तुम्हें द्वेष दंभ मिटाना है।
रावण से तू अभी कम नहीं,जब विषय विकार तेरे अंदर।
अहंकार में गुणहीन हुआ, दुनिया का श्रेष्ठ पंडित दशकंधर।।