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पुस्तक लेखन प्रतियोगिता

hindi articles, stories and books related to Pustak lekhan pratiyogita


 शीर्षक -खोमोशीयाँखामोशियाँ भी अब तो बातें करने लगी है,वो तो अब चुप रहने लगे हैं।महफिल में छाई है तन्हाईयाँ,अब तो उनकी ख़ामोशीयाँ भीबातें करने लगी।कैसे पूछूँ कैसे बताऊँ अपनी मज़बूरीयाँ,अब तो खामोशि

कितनी मुहब्बत है,तुमसे,मैं सोच न पाऊं ।    शब्दों में कैसे बयां करुं ?मैं बयां कर न पाऊ ।    दिल की धड़कनें,बढ़ जाती है ।होशो-हवास खो जाता है ।     कोई पूछता कुछ और

सत्य पर, झूठ भारी पड़ गया ।          सत्य लड़खड़ाता रहा ।झूठ सरपट दौड़ लगाता रहा ।         कलयुग में, झूठ जीत गया ।सत्य अपने आप में रुठ गया ।&nbs

जिनके लिए हम हरदम, कांधा सजाये रखते थे             आज वो हमें क्यूं,पहचानने से इन्कार करते हैं ।जरुरतें पूरी हुई, वस्तुओं की कद्र न रही ।       

रंग-बिरंगे रंगों की तरह, खुशियां आ जाये जीवन में ।           प्रेम -रंग छा जाये,सबके जीवन में ।प्रेम-रंग ऐसा,  खुशहाल कर दे ।           

जो बो रहे हैं, आज हम,    वहीं, तो काट पायेंगे ।नफरतों के बीज बोकर,     प्रेम कहां से पायेंगे ?आज पैसों की कमाई करने में, इंसान जुटा है ।         पर वो

सरस्वती मां के चरणों में,       नमन कर, मैं लेख लिख रहा हूं ।नहीं है, मुझमें क्षमता कोई,        मैं मां का, संदेश लिख रहा हूं ।आज मेरी लेखनी में,    &

वो कितना सुन्दर संसार है ?             जिनके घरों में,बरसता प्यार है ।जिन घरों में ,प्यार की धुन बजती है ।               वहां

मैं सह्रदय हूं,       कैसे, निर्मम हो जाऊं ?जब भी, देखूं दीन-दुखी को,        नयनों में नीर मैं,भर लाऊं ।सोच नहीं पाऊं,          कितना य

क्यों  न, ईर्ष्या-द्वेष को,         होलिका की, अग्नि में जला दें ।क्यों न, नफ़रत को,         अपने‌ दिलों से मिटा दें ।क्यूं,न आज ,    &

मैं शून्य हूं,       फिर भी है, अस्तित्व मेरा ।दुनिया की तो, सोच अलग है,        उसने, मुझे नकार दिया ।मैं शून्य हूं,        फिर भी है, अस्ति

वास्तविक आस्था का, समुद्र घट गया,        अपनी लहरों से, धर्म व आडम्बर के कंकड़ फेंक गया ।लोग दान देकर, फोटो खिंचा रहे,         मंदिरों के पंडित, देखो, माला

इतनी सुन्दर चितवन,      जो मेरे दिल में, उतर ही गयी ।प्यार करने का, कोई इरादा न था,      फिर भी मेरी नजरें ,भटक ही गयी ।      इस सुंदर रचना के, रचयिता को,क

मैं महापुरुष नहीं,     फिर भी, पुरुष कहलाता हूं ।दुनिया में हूं, विख्यात नहीं ,      फिर भी, पहचाना जाता हूं ।मैं सच्चा नहीं,       फिर भी सच को,अपनात

कलयुग की महिमा अपार ।        फल -फूल रहे हैं, होशियार ।जो झूठ बोलने का, रुख करें अखित्यार ।         वो जग में समझा जाये, सच्चा यार ।पापी,अत्याचारी फलते-फूल

जिन्दगी की राहों में,       रंजो-गम के मेले हैं ।इस भरी दुनिया में,       हम आज भी, अकेले हैं ।जिसे समझते थे,        अपने दिल का टुकड़ा ।वो

दुनिया की रीति, बहुत अनोखी है ।         किसी का मूल्यांकन, गुणों से नहीं ,दोषों से किया जाता है ।           अंत समय में उसे,कंठ से लगाया जाता है

इतना कोमल मन मेरा,    फिर भी सौ-सौ वार सहे ।मुरझाए,अकुलाये मन से,    फिर भी विमल -विचार बुने ।ह्रदय दृवित हो, नीर बहाता,     मैं असहायों को, देख न पाता ।इतना सह्रदय

जरा सा उरुज पाकर, इतराया न करो ।        जरा सा प्यार पाकर,छलकाया न करो ।किसी की अपनी दौलत, उरूज़ नहीं है ।       ‌ फिर गुरूर अपना,दिखलाया न करो ।दस -शीश, रावण क

प्यार में बलिदान ,जो करने को तैयार हो गया ।                वो प्यार का इज़हार, करने को मनुहार हो गया ।यूं तो प्यार का दावा, हजार करते हैं ।     

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