जब से आंख खुली हम सबने कीचड़ में ही कमल की सुंदरता को हमेशा से ही दूर से निहारा है । कीचड़ में रहकर भी उसकी सुंदरता की चमक कोहिनूर कहलाती हैं। और हम सब का मन मोह लेती हैं। लेकिन उसे कीचड़ में जाकर छू पाना हमारे वश के बाहर है । यह बात कहीं न कहीं हम सबको खटकती है । कि काश हम कमल को भी दूसरों फूलों की तरह ही अपने हाथों से भी तोड़ सकते । उसके करीब जाकर उसकी खुशबू का आनंद ले पाते। लेकिन हम इंतजार करते है क्योंकि हम उस कीचड़ में पाव नही देना चाहते । लेकिन फिर भी यह कमल देर सबेर ही सही हम तक पहुंचती हैं क्योंकि हममें से ही कोई इंसान ऐसा होता है जो कीचड़ में जाकर उस कमल को हम तक पहुंचाता है और हम उस कमल को मंदिर या घर के मंदिर में या अपने घर की शोभा बढ़ाने के लिए घर में सजाते है। लेकिन उस इंसान को धन्यवाद देना भूल जाते है जो हम तक इस कमल को पहुंचाता है।
लेकिन क्या चिराग और रोशनी के साथ भी यही होगा ? क्या चिराग की रोशनी से रोशनी उस चिराग को भूल जायेगी जिसकी वजह से उसने इस दुनिया को रोशनी से जगजमाते देखा है? किसी की रोशनी बन कहीं यह चिराग न बुझ जाए? इन दोनों के बीच क्या प्यार का रिश्ता पनप पाएगा ? इनकी किस्मत क्या रंग दिखाती हैं...... यह तो धीरे धीरे पता चल ही जाएगा आप सभी को।
यह कहानी है चिराग और रोशनी की । जी हां यहां कमल की बात करे तो यह रोशनी है । अपनी गरीबी की दरिद्रता के कीचड़ में वो खिलती कमल है जो शायद दुनिया की शानो शौकत से दूर अपनी हुनूर की प्रतिभा रखते हुए भी उसकी इस हुनुर से यह दुनिया अनजान हैं। क्योंकि जिस गरीबी की हालत में वो जी रही हैं , वहां कोई भी साधारण व्यक्ति उस तक पहुंचने की जरूरत नहीं समझता ।
लेकिन इस कमल को भी एक सहारा मिला जो उसे कीचड़ से उठाकर इस दुनिया की चमक से परिचय करवाने वाला है । शायद इसलिए दोनो के नाम भी एक दूसरे के पूरक है।
चिराग जलता है तो रोशनी बिखेरता है
तिल तिल खुद को जला महफिल सजाता है
रोशनी बन तू क्या इतराती है
एक झोंका ही काफी हैं तुझे बुझाने के लिए
तेरे साथ मेरे भी वजूद मिटाने के लिए
उजालों में चिराग का दामन न थामे कोई
जलते चिराग को पकड़ो तो हाथ जलाए सभी
तुम मेरे साथ हमेशा बनाए रखना
हकीकत यहीं तेरे बिन अब गुजारा न होगा
प्यार से पुकार लो हमें जहां तेरा साया होगा
जलते देख हमें एक साथ दूसरों को जलते देना
चिराग की लौ में तुम मेरे साथ ही भस्म होना
यह इश्क हमारा गहरा रिश्ता निभाता है
जब तलक हम साथ है घोर अंधेरे में भी किसी की आस जगाता है।
शहर पश्चिम बंगाल , स्टेशन दमदम
यहां की अधिकतर लोगों के जीवन का अधिकांश समय ट्रेन में ही गुजर जाता हैं। सब अपने अपने नियमित समय में अपने ट्रेन को पकड़ने के लिए दौड़ते रहते हैं। सुबह से रात तक बस सब चहल पहल । कभी ट्रेन के आने का समय लाऊड स्पीकर से सुनने को मिलती हैं तो कभी फेरीवाले चाय से लेकर किताबे तक चिल्ला चिल्ला कर अपनी सामानों को बिक्री करने में लगे रहते। आधी शॉपिंग तो आजकल ट्रेन में ही हो जाती है । दुप्पटा से सलवार सूट या फिर यह कहिए इयरिंग्स से हाथों के बैग । सब यहीं इस सफर से ही पूरी हो जाती हैं । हर कुछ देर में ट्रेन अपनी हॉर्न बजाते हुए अपनी अपनी निर्धारित समय पर अपनी अपनी प्लेटफार्म में सजी रहती हैं। कुछ यात्री उतरते हैं तो कुछ चढ़ते हैं। हर कोई कहीं न कहीं जाने में व्यस्त है , हर कोई अपनी दुनिया में अपनी मंजिल को पाने के लिए मग्न है । मतलब शोरगुल ज्यादा ही सुनने को मिलती है यहां । लेकिन इस शोरगुल में भी एक इंसान ऐसा है जो बाहर के शोरगुल से ज्यादा अपने भीतर चल रही परेशानी और कुछ असामान्य परिस्थिति की वजह से खुद के भीतर चल रही शोरों से व्याकुल था । जब रात को होने को आई और सुबह की छूटती प्लेटफार्म अब शांत होकर खुद से ही शांति की सांस लेना चाहती थी। लेकिन उनका भी सांस लेना उन्हे नसीब नहीं होता। फिर भी सुबह की अपेक्षा थोड़ी देर आराम कर अपनी थकान जरूर दूर कर लेती है । आज भी जब यह प्लेटफार्म अपनी थकान दूर करने की कोशिश में लगी थी, तो एक इंसान शायद अपनी जिंदगी की थकान को दूर करने का सोच रहा था।
वैसे ही एक रात , जिसके इंतजार में शायद एक लड़का बड़ी बेसर्बी से ट्रेन की प्रतीक्षा कर रहा था।