गज़ल चाँद बोला चाँदनी, चौथा पहर होने को है. चल समेटें बिस्तरे वक्ते सहर होने को है. चल यहाँ से दूर चलते हैं सनम माहे-जबीं. इस जमीं पर अब न अपना तो गुजर होने को है. है रिजर्वेशन अजल, हर सम्त जिसकी चाह है. ऐसा लगता है कि किस्सा मुख़्तसर होने को है. गर सियासत ने न समझा दर्द जनता का तो फिर. हा