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सहम कर थम से गए हैं बोल बुलबुल के, मुग्ध, अनझिप रह गए हैं नेत्र पाटल के, उमस में बेकल, अचल हैं पात चलदल के, नियति मानों बँध गई है व्यास में पल के ।           लास्य कर कौंधी तड़ित् उर पार बादल के

चार का गजर कहीं खड़का रात में उचट गयी नींद मेरी सहसा  छोटे-छोटे, बिखरे से, शुभ्र अभ्र-खंडों बीच द्रुत-पद भागा जा रहा है चाँद जगा हूँ मैं एक स्वप्न देखता जाने कौन स्थान है, मैं खड़ा एक मंच पर एक

 जैसे तुझे स्वीकार हो! डोलती डाली, प्रकम्पित पात, पाटल-स्तम्भ विलुलित, खिल गया है सुमन मृदु-दल, बिखरते किंजल्क प्रमुदित, स्नात मधु से अंग, रंजित-राग केशर-अंजली से स्तब्ध-सौरभ है निवेदित: मलय मार

जब-जब पीड़ा मन में उमँगी तुमने मेरा स्वर छीन लिया मेरी नि:शब्द विवशता में झरता आँसू-कन बीन लिया। प्रतिभा दी थी जीवन-प्रसून से सौरभ-संचय करने की क्यों सार निवेदन का मेरे कहने से पहले छीन लिया?

 मैं ने सुना : और मैं ने बार-बार स्वीकृति से, अनुमोदन से और गहरे आग्रह से आवृत्ति की : 'मिट्टी से निरीह' और फिर अवज्ञा से उन्हें रौंदता चला जिन्हें कि मैं मिट्टी-सा निरीह मानता था। किन्तु वसन्त के

प्रात होते सबल पंखों की अकेली एक मीठी चोट से अनुगता मुझ को बना कर बावली जान कर मैं अनुगता हूँ उस बिदा के विरह के विच्छेद के तीखे निमिष में भी युता हूँ उड़ गया वह बावला पंछी सुनहला कर प्रहर्षित

 शिशिर ने पहन लिया वसन्त का दुकूल, गन्धवह उड़ रहा पराग-धूल झूल, काँटों का किरीट धारे बने देवदूत पीत-वसन दमक उठे तिरस्कृत बबूल। अरे, ऋतुराज आ गया। पूछते हैं मेघ, 'क्या वसन्त आ गया?' हँस रहा समी

अवतंसों का वर्ग हमारा : खड्ïगधार भी, न्यायकार भी। हम ने क्षुद्र, तुच्छतम जन से अनायास ही बाँट लिया श्रम-भार भी, सुख-भार भी। बल्कि गये हम आगे भी-हम निश्चल ही हैं उदार भी। टीका-(यद्यपि भाष्यकार है

वंचना है चाँदनी सित, झूठ वह आकाश का निरवधि, गहन विस्तार शिशिर की राका-निशा की शान्ति है निस्सार! दूर वह सब शान्ति, वह सित भव्यता, वह शून्यता के अवलेप का प्रस्तार- इधर-केवल झलमलाते चेतहर, दुर्ध

क्षण-भर सम्मोहन छा जावे! क्षण-भर स्तम्भित हो जावे यह अधुनातन जीवन का संकुल- ज्ञान-रूढि़ की अनमिट लीकें, ह्रत्पट से पल-भर जावें धुल, मेरा यह आन्दोलित मानस, एक निमिष निश्चल हो जावे! मेरा ध्यान अकम

निरालोक यह मेरा घर रहने दो! सीमित स्नेह, विकम्पित बाती इन दीपों में नहीं समाएगी मेरी यह जीवन-थाती; पंच-प्राण की अनझिप लौ से ही वे चरण मुझे गहने दो निरालोक यह मेरा घर रहने दो! घर है उस की आँचल-छ

उष:काल की भव्य शान्ति निविडाऽन्धकार को मूर्त रूप दे देने वाली एक अकिंचन, निष्प्रभ, अनाहूत, अज्ञात द्युति-किरण आसन्न-पतन, बिन जमी ओस की अन्तिम ईषत्करण, स्निग्ध, कातर शीतलता अस्पृष्ट किन्तु अनुभू

 (1) घिर गया नभ, उमड़ आये मेघ काले, भूमि के कम्पित उरोजों पर झुका-सा, विशद, श्वासाहत, चिरातुर छा गया इन्द्र का नील वक्ष-वज्र-सा, यदपि तडि़त् से झुलसा हुआ-सा। आह, मेरा श्वास है उत्तप्त धमनियों में

रजनीगन्धा मेरा मानस! पा इन्दु-किरण का नेह-परस, छलकाता अन्तस् में स्मृति-रस| उत्फुल्ल, खिले इह से बरबस, जागा पराग, तन्द्रिल, सालस, मधु से बस गयीं दिशाएँ दस, हर्षित मेरा जीवन-सुमनस् लो, पुलक उठी म

उड़ चल हारिल लिये हाथ में यही अकेला ओछा तिनका उषा जाग उठी प्राची में कैसी बाट, भरोसा किन का! शक्ति रहे तेरे हाथों में छूट न जाय यह चाह सृजन की शक्ति रहे तेरे हाथों में रुक न जाय यह गति जीवन क

दूरवासी मीत मेरे! पहुँच क्या तुझ तक सकेंगे काँपते ये गीत मेरे? आज कारावास में उर तड़प उठा है पिघल कर बद्ध सब अरमान मेरे फूट निकले हैं उबल कर याद तेरी को कुचलने के लिए जो थी बनायी- वह सुदृढ़ प्र

 ठहर, ठहर, आततायी! जरा सुन ले! मेरे क्रुद्ध वीर्य की पुकार आज सुन जा! रागातीत, दर्पस्फीत, अतल, अतुलनीय, मेरी अवहेलना की टक्कर सहार ले क्षण-भर स्थिर खड़ा रह ले-मेरे दृढ़ पौरुष की एक चोट सह ले! नू

 उजड़ा सुनसान पार्क, उदास गीली बेंचें दूर-दूर के घरों के झरोखों से निश्चल, उदास परदों की ओट से झरे हुए आलोक को -वत्सल गोदियों से मोद-भरे बालक मचल मानो गये हों बेंच पर टेहुनी-सा टिका मैं आँख भर देख

मैं ने कहा, कंठ सूखा है दे दे मुझे सुरा का प्याला। मैं भी पी कर आज देख लूँ यह मेरी अंगूरी हाला। -एक हाथ में सुरापात्र ले एक हाथ से घूँघट थामे नीरव पग धरती, कम्पित-सी बढ़ी चली आयी मधुबाला। मैंने

 मैं जो अपने जीवन के क्षण-क्षण के लिए लड़ा हूँ, अपने हक के लिए विधाता से भी उलझ पड़ा हूँ, सहसा शिथिल पड़ गया है आक्रोश हृदय का मेरे- आज शान्त हो तेरे आगे छाती खोल खड़ा हूँ। मुझे घेरता ही आया है

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