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 (1) धक-धक, धक-धक ओ मेरे दिल! तुझ में सामर्थ्य रहे जब तक तू ऐसे सदा तड़पता चल! जब ईसा को दे कर सूली जनता न समाती थी फूली, हँसती थी अपने भाई की तिकटी पर देख देह झूली, ताने दे-दे कर कहते थे सैनिक

 (1) मैं भी एक प्रवाह में हूँ लेकिन मेरा रहस्यवाद ईश्वर की ओर उन्मुख नहीं है, मैं उस असीम शक्ति से सम्बन्ध जोडऩा चाहता हूँ अभिभूत होना चाहता हूँ जो मेरे भीतर है। शक्ति असीम है, मैं शक्ति का एक

 मेरे सारे शब्द प्यार के किसी दूर विगता के जूठे : तुम्हें मनाने हाय कहाँ से ले आऊँ मैं भाव अनूठे? तुम देती हो अनुकम्पा से मैं कृतज्ञ हो ले लेता हूँ तुम रूठीं-मैं मन मसोस कर कहता, भाग्य हमारे रूठे!

 आज चिन्तामय हृदय है, प्राण मेरे थक गये हैं बाट तेरी जोहते ये नैन भी तो थक गये हैं; निबल आकुल हृदय में नैराश्य एक समा गया है वेदना का क्षितिज मेरा आँसुओं से छा गया है। आज स्मृतियों की नदी से शब्

 मुझे देख कर नयन तुम्हारे मानो किंचित् खिल जाते हैं, मौन अनुग्रह से भर कर वे अधर तनिक-से हिल जाते हैं। तुम हो बहुत दूर, मेरा तन अपने काम लगा रहता है फिर भी सहसा अनजाने में मन दोनों के मिल जाते हैं,

इस सूखी दुनिया में प्रियतम मुझ को और कहाँ रस होगा? शुभे! तुम्हारी स्मृति के सुख से प्लावित मेरा मानस होगा! दृढ़ डैनों के मार थपेड़े अखिल व्योम को वश में करता, तुझे देखने की आशा से अपने प्राणों में

कर चुका था जब विधाता प्यार के हित सौध स्थापित विरह की विद्युन्मयी प्रतिमा वहाँ कर दी प्रतिष्ठित! बुद्धि से तो क्षुद्र मानव भी चलाता काम अपने- वामता से हीन विधि की शक्ति क्या होती प्रमाणित! भर दि

 पूछ लूँ मैं नाम तेरा मिलन-रजनी हो चुकी विच्छेद का अब है सबेरा। जा रहा हूँ-और कितनी देर अब विश्राम होगा, तू सदय है किन्तु तुझ को और भी तो काम होगा! प्यार का साथी बना था, विघ्न बनने तक रुकूँ क्यो

नीला नभ, छितराये बादल, दूर कहीं निर्झर का मर्मर चीड़ों की ऊध्र्वंग भुजाएँ भटका-सा पड़कुलिया का स्वर, संगी एक पार्वती बाला, आगे पर्वत की पगडंडी : इस अबाध में मैं होऊँ बस बढ़ते ही जाने का बन्दी!

 कर से कर तक, उर से उर तक बढ़ती जा, ओ ज्योति हमारी, छप्पर-तल से महल-शिखर तक चढ़ती जा, ओ ज्योति हमारी! पैंतिस कोटि शिखाएँ जल कर कोना-कोना दीपित कर दें- एक भव्य दीपक-सा भारत जगती को आलोकित कर दे!

 इस विकास-गति के आगे है कोई दुर्दम शक्ति कहीं, जो जग की स्रष्टा है, मुझ को तो ऐसा विश्वास नहीं। फिर भी यदि कोई है जिस में सुनने की सहृदयता है; और साथ ही पूरा करने की कठोर तन्मयता है; तो मैं आज ब

मुझ में यह सामर्थ्य नहीं है मैं कविता कर पाऊँ, या कूँची में रंगों ही का स्वर्ण-वितान बनाऊँ । साधन इतने नहीं कि पत्थर के प्रासाद खड़े कर तेरा, अपना और प्यार का नाम अमर कर जाऊँ। पर वह क्या कम कवि

 तेरी आँखों में पर्वत की झीलों का नि:सीम प्रसार मेरी आँखों बसा नगर की गली-गली का हाहाकार, तेरे उर में वन्य अनिल-सी स्नेह-अलस भोली बातें मेरे उर में जनाकीर्ण मग की सूनी-सूनी रातें!

 निशा के बाद उषा है, किन्तु देख बुझता रवि का आलोक अकारण हो कर जैसे मौन ज्योति को देते विदा सशोक तुम्हारी मीलित आँखें देख किसी स्वप्निल निद्रा में लीन हृदय जाने क्यों सहसा हुआ आद्र्र, कम्पित-सा, कात

मैं वह धनु हूँ, जिसे साधने में प्रत्यंचा टूट गई है। स्खलित हुआ है बाण, यदपि ध्वनि दिग्दिगन्त में फूट गई है प्रलय-स्वर है वह, या है बस मेरी लज्जाजनक पराजय, या कि सफलता ! कौन कहेगा क्या उस में है

 जेठ की सन्ध्या के अवसाद-भरे धूमिल नभ का उर चीर ज्योति की युगल-किरण-सम काँप कौंध कर चले गये दो कीर। भंग कर वह नीरव निर्वेद, सुन पड़ी मुझे एक ही बार, काल को करती-सी ललकार, विहग-युग की संयुक्त पुकार!

पृथ्वी तो पीडि़त थी कब से आज न जाने नभ क्यों रूठा, पीलेपन में लुटा, पिटा-सा मधु-सपना लगता है झूठा! मारुत में उद्देश्य नहीं है धूल छानता वह आता है, हरियाली के प्यासे जग पर शिथिल पांडु-पट छा जाता है।

 तुम्हारा यह उद्धत विद्रोही घिरा हुआ है जग से पर है सदा अलग, निर्मोही! जीवन-सागर हहर-हहर कर उसे लीलने आता दुर्धर पर वह बढ़ता ही जाएगा लहरों पर आरोही! जगती का अविरल कोलाहल कर न सकेगा उस को बेकल

लो यह मेरी ज्योति, दिवाकर! उषा-वधू के अवगुंठन-सा है लालिम गगनाम्बर मैं मिट्टी हूँ, मुझे बिखरने दो मिट्टी में मिल कर! लो यह मेरी ज्योति दिवाकर! मैं पथ-दर्शक बन कर जागा करता रजनी को आलोकित या मैं

 कवि, एक बार फिर गा दो! एक बार इस अन्धकार में फिर आलोक दिखा दो! अब मीलित हैं मेरी आँखें पर मैं सूर्य देख आया हूँ; आज पड़ी हैं कडिय़ाँ पर मैं कभी भुवन भर में छाया हूँ; उस अबाध आतुरता को कवि, फिर

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