विभूतियों में इन दिनों अग्रिम स्थान धन को मिल गया है, पर वस्तुत: वह उसका स्थान नहीं है। प्रथम स्थान उदात्त भावनाओं का है। वे जिनके पास हैं, वे देव हैं। महामानवों को, ऋषि व तपस्वियों को, त्यागी-बलिदानियों को देव संज्ञा में गिना जाता है, वे दीपक की तरह जलकर सर्वत्र प्रकाश फैलाते हैं। इस संसार में जितना चेतनात्मक वर्चस्व है, उसे उदात्त भावनाओं का वैभव ही कहना चाहिए।
दूसरा स्थान है विद्या का, इसे ब्राह्मणत्व कह सकते हैं। तीसरी विभूति है प्रतिभा, इसे क्षत्रियत्व कहा जा सकता है। इसके बाद चौथी गणना धन की है। मानव जाति का दुर्भाग्य ही है कि आज धन को सर्वप्रथम स्थान और सम्मान मिल गया। इसी का दुष्परिणाम यह हुआ कि व्यक्ति अधिकाधिक धन संग्रह करके बड़े से बड़ा सम्मानीय बनना चाहता है, जबकि धन का उपयोग उसे बिना रोके निरन्तर सत्प्रयोजनों में प्रयुक्त करते रहना ही हो सकता है।
धन एक विभूति है। उसके पीछे दैवी अनुकम्पा की झाँकी है, इसलिए अपने यहाँ दीपावली पर्व पर लक्ष्मी की पूजा होती है। पर वह धन सम्मानित नहीं हो सकता जो लोकहित से अवरुद्ध होकर चन्द व्यक्तियों की विलासिता और अहंता की पूर्ति में लगा हुआ है। ऐसे धन की निन्दा की गई है।