वास्तव में न तो नीत्शे का व्यक्तिवाद ही व्यावहारिक है और न ही मार्क्स का समाजवाद। उनमें से प्रथम व्यक्ति को ही सब कुछ मानता है। द्वितीय समाज को, किन्तु व्यावहारिकता की कसौटी दोनों को ही असफल सिद्ध करती है।
एकमात्र अध्यात्मवादी चिन्तन ही ऐसा है जो इन दोनों के मध्य सुरुचिपूर्ण ढंग से सामंजस्य का संस्थापन करता है, जहाँ वैयक्तिक उन्नति की ऊँचाईयों को आत्मा के शीर्षस्थल पर ले जाता है, वहीं यह भी उपदिष्ट करता है कि व्यक्ति और कुछ नहीं समष्टि का एक अभिन्न अंश है।