दुनियाँ में लक्ष्मी, विद्या, प्रतिष्ठा, बल, पद, मैत्री, कीर्ति, भोग, ऐश्वर्य आदि को बड़ा फल माना जाता है। यह सब -ज्ञान-रूपी वृक्ष के फल हैं। ज्ञान के अभाव में इनमें से एक भी वस्तु प्राप्त नहीं हो सकती।
इस लोक के सारे सुख ज्ञान के ऊपर निर्भर हैं, परलोक का सुख भी ज्ञान द्वारा ही सम्पादित होता हैं। विवेक और विचार पूर्वक किये हुए जप, तप, व्रत, तीर्थ दान आदि सफल होते हैं, अविवेक द्वारा करने पर यह उत्तम कार्य भी निष्फल जाते हैं और कभी कभी तो उलटे हानिकारक हो जाते हैं। विवेक द्वारा ही मनुष्य आत्म ज्ञान, संयम, भक्ति, परमार्थ आदि की साधना करके जीवन मुक्त हो सकता हैं, परमात्मा को प्राप्त कर सकता हैं। आत्म कल्याण के लिए, ज्ञान की सब से अधिक आवश्यकता हैं।
परमार्थ के लिए ज्ञान से बड़ी और कोई वस्तु नहीं है। भूखे को दो रोज भोजन करा देने से सदा के लिए उसका भला नहीं होगा। उसे कोई ऐसी राह दिखानी होगी, जिस पर चलकर वह स्वयं जीविका-उपार्जन कर सके। बीमारी दवा से अच्छी भी हो जाए तो भी नीरोगता के लिए स्वास्थ्य-संबंधी -ज्ञान आवश्यक है। दवा के आधार पर सदा के लिए किसी का रोग नहीं जा सकता, पर -ज्ञान के आधार पर बिना दवा के भी रोग अच्छा हो सकता है और सुंदर स्वास्थ्य तथा दीर्घ जीवन प्राप्त हो सकता है। चिंता, तृष्णा, लोलुपता, कामुकता, उद्वेग, क्रोध, शोक, घबराहट, निराशा सरीखी भयंकर मानसिक अशांतियाँ जो जीवन को भाररूप और नारकीय बनाए रहती हैं, ज्ञान द्वारा ही शांत हो सकती हैं। तीनों लोकों की संपदा मिलने से भी उपरोक्त अग्नियाँ बुझ नहीं सकतीं, बल्कि और उलटी बढ़ती हैं। उन्हें बुझाने वाला एकमात्र पदार्थ ज्ञान ही है। सांसारिक और पारलौकिक शांति की कुंजी ज्ञान ही है। तुच्छ मनुष्य इसी के बल से महापुरुष और महात्मा बनते हैं। दूसरों की सेवा-सहायता करने वाली इससे बड़ी और कोई वस्तु नहीं।