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जो दिखाई देता है, वह भी सत्य नहीं

16 जून 2016

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चीन में यह अपनी तरह का अनोखा प्रयोग था। अनेक प्रतिष्ठित व्यक्तियों के साथ सेना के उच्च अधिकारी भी डा० चू-फुत सेन का यह प्रदर्शन देखने के लिये एकत्रित हुये। डा० चू-फूत-सेन चीन के उन योग्य वैज्ञानिकों में सं हैं, जिनकी प्रतिभा पर विश्वास करके सरकार ने अनेक बन्दियों पर प्रयोग करने की उन्हें खुली छुट दे दी थी।

6 व्यक्तियों को जिनमें तीन महिलायें भी थीं, एक सजे सजाये कमरे में लाया गया। उनके सिर के पिछले हिस्से के थोड़े बाल साफ करके उसमें अत्यन्त पतला पेपर क्लिप जैसा तार जोड़ दिया गया। यह साधारण दीखने वाला तार मस्तिष्क की अनेक नाड़ियों से जोड़ा जा सकता था और उसके नियन्त्रण के लिये मस्तिष्क में एक छोटा-सा रेडियो ट्रांजिस्टर रिसीवर लगाकर तार को उससे जोड़ दिया गया था।

इसके बाद उपस्थित लोगों को सम्बोधित करते हुये डा० चू-फूत-सेन ने बताया कि-संसार की जो भी वस्तुएँ हमारे सामने या संपर्क में आती हैं, उनके किसी भी रूप की कल्पना का सम्बन्ध हमारे मस्तिष्क की उन धाराओं से है, जो अपने आप में विलक्षण संवेगों को छिपाये हुये है। मान लीजिये हमारे मस्तिष्क का कोई साहस वाला भाग सक्रिय है तो उस स्थिति में शेर और बाघ तो क्या कोई बम लेकर भी मारने को खड़ा हो तो उसमें भी भय नहीं लगेगा, क्योंकि उस समय भय की कोई कल्पना ही नहीं होगी। उस व्यक्ति के लिये उतने समय के लिये संसार में कहीं भी भय का कोई अस्तित्व ही समझ में नहीं आयेगा। यह जो कुछ दिखाई दे रहा है, वह मन की रेडियो तरंगों के अनुरूप बनता-बिगड़ता दृश्य मात्र है। वस्तुतः जो कुछ भी सामने है, उसमें से सत्य कुछ भी नहीं है।

अपने कथन की पुष्टि के लिये अब उन्होंने प्रयोग दिखाया। एक छोटा-सा 20 दिन का पिल्ला लाकर उन कैदियों के सामने छोड़ दिया गया। जब तक वे सामान्य स्थिति में थे, कुत्ते को उसी तरह देखते और उसके खेल-कूद को देखकर प्रसन्न होते रहे जैसे सभी अन्य दर्शक, पर इसी बीच डा० चू-फुत-सेन ने उस तार का सम्बन्ध मस्तिष्क की भय वाली नाड़ी से जोड़कर ट्रांजिस्टर चालू कर दिया। विद्युत प्रवाह (करेंट) का एक निश्चित आवृत्ति (फ्रीक्वेंसी) पर दौड़ना हुआ ही था कि उस छोटे से कमरे में तूफान खड़ा हो गया। छहों कैदी शेर-शेर करते हुये चिंघाड़ कर भागे कई तो इतने भयभीत हो गये कि उन्हें तत्काल मूर्छा आ गई। पर जैसे ही उस रेडियो ट्रांजिस्टर को बन्द कर दिया गया, कैदी फिर शांत हो गये और उन्हें कुत्ते के पिल्ले से कोई डर न रहा।

छोटा-सा पिल्ला पहले भी वैसा ही था और बाद में भी पर मन के एक दृष्टिकोण को उच्च आवृत्ति (हायर फ्रीक्वेंसी) पर विकसित कर देने पर वही पिल्ला शेर जैसा भयंकर दिखाई देने लगा इससे साफ स्पष्ट है कि हम जो कुछ भी देखते सुनते हैं, वह किन्हीं अदृश्य किरणों और मानसिक तरंगों का बनता-बिगड़ता छायांकन मात्र हैं। उनमें से सच कुछ भी नहीं है। जिस प्रकार पर्दे पर विशेष प्रकार की किरणों-मैजिक लैर्न्टन या सिनेमा के सहारे फोटो गिराने से ऐसा लगता है कि सामने जो ड्रामा हो रहा है, वह बिलकुल सच है उसी प्रकार हमें दिखाई देने वाला संसार भी अज्ञात इच्छा-शक्तियों और प्रकाश-आवर्तनों का छाया चित्र मात्र है और वह थोड़ी देर तक रहता है। पर हमारा दृष्टिकोण अल्प-विकसित होने के कारण वही कई वर्षों का-सा जीवन प्रतीत होता है। और उसमें क्रम-बद्धता होने के कारण नाटक-सा दीखता है पर वस्तुतः उसमें सार और कुछ भी नहीं है, यदि कुछ है तो वह ब्रह्म ही है जिसकी प्रेरणा से प्राण झोंकने से इतना सारा क्रियाशील जगत् दृश्य में आता है।

मनुष्य अपनी प्रकृति जिस दिशा में विकसित कर लेता है, उसे वही भाग सत्य दिखाई देने गलता है और शेष सब उससे निस्सार प्रतीत होने लगता है। उदाहरणार्थ चींटी को संसार में केवल मीठे पदार्थों का ही सबसे बड़ा सुख है और वह उसी खोज में लगी रहती है पर सुअर को मल की बहुत अधिक चाह होती है उसे मीठे व्यंजन भी नीरस दीखते हैं। एक बार अमेरिका के कुछ वैज्ञानिकों ने इच्छा शक्ति पर नियन्त्रण करने का बहुत दिनों तक प्रयोग करने के बाद यह पाया कि किसी एक इच्छा को ही बहुत अधिक बढ़ाकर मनुष्य को ही नहीं उसे मारा तक जा सकता है। उन्होंने चूहों के मस्तिष्क के ‘प्यास वाले भाग को विद्युत शक्ति से बढ़ा दिया फलस्वरूप वे चूहे प्यासे ने होने पर भी इतना पानी पीते गये कि उनका शरीर फूलकर मोटा हो गया। इस स्थिति से उन्हें हटाया नहीं जाता तो चूहे फिर भी पानी बन्द नहीं करते भले ही उनका शरीर फट जाता है। यद्यपि यह स्थिति आने नहीं दी गई। पर वैज्ञानिक विशुद्ध रूप से इस मान्यता पर उतर आये कि मस्तिष्कीय चेतना में होती है, उसके लिये वही अच्छा लगता है वस्तुतः प्रिय-अप्रिय संसार में कुछ है ही नहीं सब अपनी-अपनी इच्छा और वासना का खेल है उसी से संसार का स्वरूप बनता-बिगड़ता और परिवर्तित होता रहता है। चेतनाएँ भी उनके शरीर धारण करने के लिये इसी सिद्धान्त पर काम करती है।

भारतीय दर्शन का आधार ही चेतना की यह सूक्ष्म स्थिति है, उसी पर इतना बड़ आध्यात्मिक इतिहास खड़ा है। एक बार महर्षि वशिष्ठ ने भगवान् राम को इसी तत्त्व का उपदेश देते हुए बताया था-

स्वप्न संकल्प पुरयोनस्प्यिनुभवस्थयोः।

मनागपि यथा रुपं सर्गादो जगस्तथा।

-6।2146।22,

जगत्संविदि जातायामपि जातं न किच्चन।

-3।13।48,

परमाकाशमाशुन्य मच्छमेव व्यवस्थितम्

-3।13।49,

पिंडग्रहो जगत्यस्मिन्विज्ञानाकाशरुपिणि।

मरुनद्याँ जलमिव न सम्भंवति कुत्रचित्॥

-3।15।7,

जाग्रत्स्वप्नसुधु प्सदि परमार्थविदाँ विदाम्।

न विद्यते किचिदपि यथास्थितमवस्थितम्॥

-3।2।146।21,

तस्माद्राम जगत्रासीत्र चास्ति न भविष्यति।

चेतनाकाशमेवाशु कचतीत्थमिवात्मानि॥

-4।2।8,

हे राम! स्वप्न देखते समय और विचार संकल्प करते समय जो चित्र बनते हैं, थोड़ी देर में वह असत्य सिद्ध हो जाते है, उसी प्रकार यह दृश्य जगत् भी असत्य है। जगत् का दृश्य दिखाई देने पर भी कुछ भी उत्पन्न नहीं हुआ है। परम आकाश ही शुद्ध रूप से स्थिति है। स्वप्न और संकल्प में अनुभव होने पर भी पृथ्वी आदि पिण्ड नहीं होते, वैसे ही अनुभव में आने वाला संसार भी शून्य ही है। स्थूलता उसमें कहीं नहीं है केवल मरुस्थल में जल का-सा भ्रम हो रहा है। राम! जगत् न उत्पन्न हुआ है और न होगा चेतना का प्रकाश अपने आप में ही प्रकाशित हो रहा है।

प्रकाश तत्त्व के ज्ञाता वैज्ञानिक भी अब यही बात मानने लगे है। इंग्लैण्ड के प्रसिद्ध वैज्ञानिक जान डाल्टन एक बार एक सार्वजनिक उत्सव में सम्मिलित हुए। अपने लिये उन्होंने गहरे नीले रंग का सूट चुना और उसे ही पहनकर वे उत्सव में सम्मिलित हुये पर वहाँ जब लोगों ने बताया कि आज तो आप गहरे लाल रंग का सूट पहने है तो वे बड़े हैरान हुये। आखिर इतने आदमी झूठ नहीं बोल सकते थे, इसलिये उन्होंने अपनी आँखों की डाक्टरी जाँच कराई। डाक्टरों ने बताया कि दृष्टि-दोष के कारण उनकी रंग पहचानने की क्षमता भी दोषपूर्ण हो गई हैं, अर्थात् उन्हें रंग कुछ के कुछ दिखाई देते है।

बाद में वैज्ञानिकों ने और भी खोजें की ओर बताया कि पशु-पक्षी वस्तुओं को उसी रंग रूप का नहीं देखते जैसे कि मनुष्य देखते हैं, उदाहरणार्थ कुत्ते और बिल्ली की आंखें संसार का रंगहीन देखती है। उन्हें संसार को सभी वस्तुएँ काली, भूरी या सफेद लगती है, भले ही उन्हें लाल, पीले या गहरे हरे रंग के सामने ले जाकर खड़ा कर दो। बन्दर केवल गहरे लाल, हरे और आसमानी रंग को पहचान सकता है। मेंढक किसी भी रंग को नहीं पहचान सकता। मधु-मक्खियों को संसार के सभी रंग एक से ही दिखाई देते हैं। यह सब मस्तिष्क की बनावट का परिणाम है, वस्तुतः इस संसार में जो कुछ है वह सब भ्रम है, माया है-संसार स्वप्न त्यज मोहनिद्रा’ संसार स्वप्न हैं, मोह निद्रा का परित्याग करने वाली रात अक्षरशः सत्य है।

हम दिन में कुल एक सूर्योदय और सूर्यास्त देखते है पर यूरी गागरिन ने अन्तरिक्ष यात्रा से लौटकर बताया कि उन्होंने एक दिन में अठारह सूर्योदय और सूर्यास्त देखे। पृथ्वी को हम किसी भी रंग का नहीं पाते पर बोरमैन एर्ण्डस और लावेल जब पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से आगे बढ़े तो उन्होंने बताया पृथ्वी हरी-भरी नखलिस्तान-सी लगती है। वहीं अन्तरिक्ष यात्री जब चन्द्रमा के समीप पहुँच गये तो यही पृथ्वी उनके लिये पीले प्रकाश की एक ऐसी चमकदार वस्तु जैसा पृथ्वीवासियों को चन्द्रमा दिखाई देता हैं। रात के अन्धकार में पृथ्वी का निवासी कुछ देख नहीं सकता पर अंतरिक्षवासी को पृथ्वी में इतना प्रकाश दिखाई देता है, जिससे वह सबसे छोटा टाइप अक्षर को मजे से पढ़ सकता है। यह सब दृष्टि-दोष और अनेक स्थितियों का अलग-अलग अन्तर है। उसमें से सत्य कुछ भी नहीं है। सत्य की पहचान तो ब्राह्मी स्थिति पर पहुँचकर ही यथार्थ रूप में हो सकती है। उस अन्तिम सत्य को प्राप्त किये बिना मनुष्य मिथ्यात्व में ही परिभ्रमण किया करता है।

सूर्य-प्रकाश सफेद रंग का है, किन्तु उसे जब वर्णक्रम (स्पेक्ट्रम) में देखते हैं तो वह सात विभिन्न रंगों से बना प्रतीत होती है। यह सभी रंग ही दृश्य प्रकृति को आच्छादित किये हैं, पृथ्वी भी सूर्य की ही एक स्थूल दृश्य प्रकृति है, ऋतु परिवर्तन की क्रिया को हम पृथ्वीवासी बहुत धीरे-धीरे देखते हैं, ज्यादा कड़े पदार्थ जैसे भूमि-खण्ड लोहा, सोना आदि धातुओं के परमाणुओं की हलचल तो दिखाई भी नहीं देती पर यदि हम पृथ्वी में न होकर सूर्य में हो तो पृथ्वी सूर्य से या सूर्य पृथ्वी से अलग नहीं दिखाई देंगे यहाँ को प्रत्येक वस्तु का एक-एक पल का बनता-बिगड़ता स्वरूप सूर्य से बड़े मजे से देखा जा सकता हैं। पृथ्वी में हमारा मस्तिष्क काम करता है और सूर्य में हमारी चेतना इसीलिये यह भारी अन्तर दिखाई देता है। इस सम्बन्ध में हेल्स हाल्टस और मैक्सवेल के अनुसन्धान बड़े उपयोगी और उल्लेखनीय है। इनके अनुसार नेत्र व मस्तिष्क तीन प्रकार के शिरातन्तुओं से जुड़े है, यह शिरातन्तु क्रमशः लाल, हरे और बैगनी रंग की अनुभूति पैदा करते है, इन शिरातन्तुओं की स्थूलता समाप्त करके एक शुभ ज्योति मस्तिष्क से आने दी जाये तो अब जो वस्तु सामने दिखाई पड़ रही है, वह न केवल रंग से अपितु आकृति से भी कुछ और ही दिखाई पड़ रही है, वह न केवल रंग से अपितु आकृति से भी कुछ और ही दिखाई देने लगे। उन्होंने लाल, हरे और बैगनी रंग को प्रक्षेपित लालटेन (मैजिक लैनटर्प) की मदद से सफेद पर्दे पर घटा-बढ़ाकर डालकर दिखाया कि उनको कम या ज्यादा करने से पर्दे की आकृतियाँ कैसी विचित्र-विचित्र बनती-बिगड़ती है।

स्वाद और गन्ध सम्बन्धी पूर्णपेक्षायें भी नितान्त भ्रामक है। 1918 में ए॰ एफ॰ ब्लैक सली नामक एक वैज्ञानिक ने एक प्रयोग किया उसने वरवीना जाति के कुछ खुशबूदार और गंधहीन गुलाबी फूल रखे। 42 व्यक्तियों को उन्हें सुँघाया गया। इनमें से 6 पुरुष और 4 स्त्रियाँ ही एकमत से फूलों की गन्ध बता सकें, शेष ने कुछ और ही बताया। ब्लैकसली ने बताया दरअसल किसी वस्तु में गन्ध है ही नहीं यह सब उस वस्तु और मनुष्य की शारीरिक स्थिति का तालमेल मात्र हैं, वह कभी एक जैसा ही हो नहीं सकता।

मनुष्य के अनेक योनियाँ में भ्रमण और विकास की मान्यता ऐसी विचित्रताएँ ही करेंगी भले ही उसमें कुछ और समय लगे।,

स्वाद के बारे में भी ठीक यही बात है। 1931 में डा० एल॰ एच॰ स्नेडर ने 100 व्यक्तियों को एक वस्तु चखाई 68 व्यक्तियों ने उसे कछुआ बताया देख उसका कुछ भी स्वाद नहीं बता सके। प्राणि-विज्ञान शास्त्रियों का यहाँ भी वही कथन है कि स्वाद शक्ति नस्ल लक्षण है। उनका कहना है आदिवासियों में स्वाद शक्ति के प्रबलता होती है पर गोरी जातियों में बहुत कम होती है। उन्होंने एक ऐसे आदमी का भी उदाहरण दिया, जिसकी किसी दुर्घटना में घ्राण शक्ति नष्ट हो गई थी, इस पर उसकी स्वाद शक्ति ने भी काम करना बन्द कर दिया था। बिना खाये केवल देखकर ही स्वाद और गंध लेने के भी उन्होंने 

प्रयोग करके बताये। यह सब बातें यह बताती हैं कि आत्मा अपनी-अपनी अलग-अलग स्थिति में भिन्नताएँ अनुभव करती हैं, वस्तुतः भिन्नता नाम की कोई वस्तु संसार में है ही नहीं सब एक तार में जुड़े माला में समान हैं।

जीवन के प्रति हमारा दृष्टिकोण अत्यन्त स्थूल हैं, इसलिये मोटी वस्तुएँ ही हमें दिखाई देती हैं और हम उन सूक्ष्म शक्तियों को परखने से वंचित रह जाते हैं, वस्तुतः जिससे यह सारा संसार बनता बिगड़ता है यही हमारा सबसे बड़ा अज्ञान, माया और भ्रम हैं, यदि हम अपना दृष्टिकोण व्यापक, विशाल और अत्यन्त सूक्ष्म बना पाये तो देखें कि सागर कितना सुन्दर, अभाव रहित, शाश्वत और अनश्वर हैं, परिवर्तनशील और नाशवान् तो यह दृश्य और स्थूल जगत् है उससे लिपटे और आसक्त होने के कारण ही संसार भ्रम में हैं, उस भ्रम का निवारण किये बिना मनुष्य जाति का कल्याण नहीं।







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जैसा बीज वैसा फल

17 मार्च 2016
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अफ्रीका के दयार नोवा नगर में जगत प्रसिद्ध हकीम लुकमान का जन्म हुआ था। हब्शी परिवार में जन्म होने के कारण उन्हें गुलामों की तरह जीवन बिताने के लिए बाध्य होना पड़ा। मिश्र देश के एक अमीर ने तीस रुपयों में अपनी गुलामी करने के लिए लुकमान को खरीद लिया ओर उनसे खेती बाड़ी का काम लेने लगा।यह अमीर बड़ा क्रूर

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स्वामी विवेकानन्द का ओजस्वी भाषण

18 मार्च 2016
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थाईजेन्ड ग्रीनलैण्ड पार्क में स्वामी विवेकानन्द का ओजस्वी भाषण हुआ। उन्होंने संसार के नव-निर्माण की आवश्यकता का प्रतिपादन करते हुए कहा- ‘‘यदि मुझे सच्चा आत्म-समर्पण करने वाले बीस लोक-सेवक मिल जायें, तो दुनिया का नक्शा ही बदल दूँ।”भाषण बहुत पसन्द किया गया और उसकी सराहना भी की गई, पर सच्चे आत्म-समर्पण

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आज का सुविचार (शनिवार, चैत्र शुक्ल ११)

19 मार्च 2016
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एक बार स्वामी विवेकानन्द अमेरिका में अध्यात्म पर भाषण दे रहे थे। अमेरिकनों ने सभा में ही पूछा स्वामी जी! क्या भारतवासी पूर्ण अध्यात्मवादी हो गये हैं, जिससे उन्हें उपदेश न देकर आपको अमेरिका आने की आवश्यकता अनुभव हुई? स्वामी जी ने इस प्रश्न का बड़ा अच्छा उत्तर दिया। उन्होंने कहा- आप अमेरिका निवासी रजो

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दृष्टिकोण मे परिवर्तन

22 मार्च 2016
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संसार में हर दुर्जन को सज्जन बनाने की, हर बुराई के भलाई में बदल जाने की आशा करना वैसी ही आशा करना है जैसी सब रास्तों पर से काँटे-कंकड़ हट जाने की। अपनी प्रसन्नता और सन्तुष्टि का, यदि हमने इसी आशा को आधार बनाया हो, तो निराशा ही हाथ लगेगी। हाँ, यदि हम अपने स्वभाव एवं दृष्टिकोण को बदल लें तो यह कार्य ज

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सत्कर्मों से दुर्भाग्य भी बदल सकता है।

24 मार्च 2016
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प्रारब्ध कर्मों का, भूतकाल में किये हुए भले बुरे कामों का, फल मिलना प्रायः निश्चित ही होता है। कई बार तो ऐसा होता है कि कृतकार्य का फल तुरन्त मिल जाता है, कई बार ऐसा होता है कि प्रारब्ध भोगों की प्रबलता होने के कारण विधि निर्धारित भली-बुरी परिस्थिति वर्तमान काल में बनी रहती है और इस समय जो कार्य किए

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आत्मविकास का लक्ष्य पूरा हो

30 मार्च 2016
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सदगुणों का अर्थ सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, ईश्वर- भक्ति जैसे उच्च आदर्शों तक सीमित नहीं रखा जाना चाहिए। उनकी परिधि अन्तरंग और बहिरंग जीवन के प्रत्येक क्षेत्र तक फैली हुई है ।। समग्र व्यक्तित्व को परिष्कृत, सज्जनोचित एवं प्रामाणिक बनाने वाली सभी आदतों एवं रुझानों को सद्गुणों की सीमा में सम्मिलित किया

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हम पुरुष से पुरुषोत्तम बनें

31 मार्च 2016
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मानवीय शक्तियों का कोई अन्त नहीं, वे इतनी ही अनन्त हैं जितना यह आकाश। ईश्वरीय चेतना का प्रतीक प्रतिनिधि मानव प्राणी उन सब सामर्थ्यों को अपने अन्दर धारण किये हुए है, जो उनके पिता परमेश्वर में विद्यमान हैं।यदि आत्मा और परमात्मा का संयोग सम्भव हो सके तो साधारण-सा दीन-दीख पड़ने वाला व्यक्ति नर से नारायण

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समाजनिष्ठा का विकास करें

2 अप्रैल 2016
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स्वयं क्रिया कुशल और सक्षम होने के बावजूद भी कितने ही व्यक्ति अन्य औरों से तालमेल न बिठा पाने के कारण अपनी प्रतिभा का लाभ समाज को नहीं दे पाते। उदाहरण के लिए फुटबाल का कोई खिलाड़ी अपने खेल में इतना पारंगत है कि घण्टों गेंद को जमीन पर न गिरने दे परन्तु यह भी हो सकता है कि टीम के साथ खेलने पर अन्य खिल

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सद्विचारों द्वारा जीवन लक्ष्य की प्राप्ति।

3 अप्रैल 2016
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प्रत्येक मनुष्य अपने विचारों द्वारा ही अपना आत्म निर्माण करता है। क्योंकि विचार का बीज ही समयानुसार फलित होकर गुणों का रूप धारण करता है और वे गुण, मनुष्य के दैनिक जीवन में कार्य बनकर प्रकट होते रहते हैं। विचार ही वह तत्व है जो गुण, कर्म, स्वभाव के रूप में, दृष्टिगोचर होता है। मन, कर्म, वचन में विचार

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अपनी वासनाएं काबू में रखिए।

4 अप्रैल 2016
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अपनी वासनाएं काबू में रखिए। ( भाग १)किसी समय एक चोर ने न्यायाधीश के समक्ष अपनी चोरी की सफाई देते हुए इस भाँति कहा हुजूर मैंने चोरी तो अवश्य की है, परन्तु सच्चा अपराधी मैं नहीं हूँ। मेरे पड़ोसी ने अपना सोने का चमकदार कंठा दिखाकर मेरे मन को मोहित कर लिया और मुझे उसको चुरा लेने के लिए लाचार किया। अतएव

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विवाहोन्माद प्रतिरोध आन्दोलन

5 अप्रैल 2016
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 समाज का निर्माण परिवार से होता है और परिवार का विवाह से । हर नया विवाह एक नये समाज की रचना करता है। जिस प्रकार छोटी-छोटी कड़ियों को मिलाकर एक जंजीर बनती है, उसी तरह इन छोटे-छोटे परिवारों का समूह ही समाज कहलाता है। यदि सभ्य, सुविकसित, सुसंस्कृत समाज का निर्माण करना हो तो उसके लिए परिवारों के निर्माण

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गुरु का अवलंबन

6 अप्रैल 2016
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बिजलीघर से तार जोड़ लेने पर नगर के अनेकों पंखे , बल्ब, हीटर, कूलर आदि चलने लगते हैं । भरी टंकी के साथ जुड़ा नल बराबर पानी देता रहता है । हिमालय के साथ जुड़ी हुई नदियाँ सदा प्रवाहित रहती हैं , पति की कमाई पर पत्नी , बाप की कमाई पर औलाद मौज मनाती रहती है । यही बात साधना क्षेत्र में भी है ।एकाकी साधक अ

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मांस मनुष्यता को त्याग कर ही खाया जा सकता है

12 अप्रैल 2016
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करुणा की प्रवृत्ति अविछिन्न है। उसे मनुष्य और पशुओं के बीच विभाजित नहीं किया जा सकता। पशु-पक्षियों के प्रति बरती जाने वाली निर्दयता मनुष्यों के साथ किये जाने वाले व्यवहार को भी प्रभावित करेगी। जो मनुष्यों से प्रेम और सद्व्यवहार का मर्म समझता है वह पशु-पक्षियों के प्रति निर्दय नहीं हो सकता। भारत यात्

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दुष्कर्मों के दण्ड से प्रायश्चित्त ही छुड़ा सकेगा

21 अप्रैल 2016
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यह ठीक है कि जिस व्यक्ति के साथ अनाचार बरता गया अब उस घटना को बिना हुई नहीं बनाया जा सकता। सम्भव है कि वह व्यक्ति अन्यत्र चला गया हो। ऐसी दशा में उसी आहत व्यक्ति की उसी रूप में क्षति पूर्ति करना सम्भव नहीं। किन्तु दूसरा मार्ग खुला है । हर व्यक्ति समाज का अंग है। व्यक्ति को पहुँचाई गई क्षति वस्तुत: प

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अभागो! आँखें खोलो!!

24 अप्रैल 2016
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अभागे को आलस्य अच्छा लगता है। परिश्रम करने से ही है और अधर्म अनीति से भरे हुए कार्य करने के सोच विचार करता रहता है। सदा भ्रमित, उनींदा, चिड़चिड़ा, व्याकुल और संतप्त सा रहता है। दुनिया में लोग उसे अविश्वासी, धोखेबाज, धूर्त, स्वार्थी तथा निष्ठुर दिखाई पड़ते हैं। भलों की संगति उसे नहीं सुहाती, आलसी, प्

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मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ

25 अप्रैल 2016
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यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि पारमार्थिक कार्यों में निरन्तर प्रेरणा देने वाली आत्मिक स्थिति जिनकी बन गई होगी, वे ही युग-निर्माण जैसे महान कार्य के लिए देर तक धैर्यपूर्वक कुछ कर सकने वाले होंगे । ऐसे ही लोगों के द्वारा ठोस कार्यों की आशा की जा सकती है । गायत्री आन्दोलन में केवल भाषण सुनकर या यज्ञ- प्रद

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सकारात्मकता

26 अप्रैल 2016
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जीवन हर पल जीने, उत्साह-उमंग के साथ उसे अनुभव करने का नाम है। हर दिन का शुभारम्भ उत्साह के साथ ऐसे हो, जैसे नया जन्म हुआ हो, दिनभर, हर श्वास योगी की तरह जियो, जरा भी नकारात्मकता प्रविष्ट मत होने दो। सकारात्मक, सकारात्मक मात्र सकारात्मक। यही तुम्हारा चिंतन हो। यह चिंतन यदि वर्ष के शुभारम्भ से ही अपना

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सद्पात्र की सहायता

27 अप्रैल 2016
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प्रगति के पथ पर बढ़ चलने की परिस्थितियाँ उपलब्ध हों उसके लिए दूसरों से याचना की आवश्यकता नहीं। देवताओं से भी कुछ मांगना व्यर्थ है क्योंकि वे भी सद्पात्र को ही सहायता करने के अपने नियम में बंधे हुए हैं।मर्यादाओं का उल्लंघन करना जिस तरह मनुष्य के लिये उचित नहीं है उसी तरह देवता भी अपनी मर्यादाएं बनाए

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अध्यात्मवादी चिन्तन

28 अप्रैल 2016
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 वास्तव में न तो नीत्शे का व्यक्तिवाद ही व्यावहारिक है और न ही मार्क्स का समाजवाद। उनमें से प्रथम व्यक्ति को ही सब कुछ मानता है। द्वितीय समाज को, किन्तु व्यावहारिकता की कसौटी दोनों को ही असफल सिद्ध करती है। एकमात्र अध्यात्मवादी चिन्तन ही ऐसा है जो इन दोनों के मध्य सुरुचिपूर्ण ढंग से सामंजस्य का संस्

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कर भला हो भला

29 अप्रैल 2016
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अच्छा काम करने पर स्वर्ग आदि का फल मिलने की बात कहीं जाती है यह कहाँ तक सच है। यह तो प्राणियों को श्रेय मार्ग पर ले जाने के लिए कहीं जाती है। जैसे बच्चों को दवा पिलाने के लिए कह देते हैं बेटा! प्रेम से पीलो तो तुम्हें खिलौने मिलेंगे। बच्चा आराम का महत्त्व नहीं समझता, खिलौनों का महत्त्व समझता है, उस

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दुर्भावों का उन्मूलन

16 मई 2016
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कई बार सदाचारी समझे जाने वाले लोग आश्चर्यजनक दुष्कर्म करते पाए जाते हैं। उसका कारण यही है कि उनके भीतर ही भीतर वह दुष्प्रवृति जड़ जमाए बैठी रहती है। उसे जब भी अवसर मिलता है, नग्न रूप में प्रकट हो जाती है। जैसे, जो चोरी करने की बात सोचता रहता है, उसके लिए अवसर पाते ही वैसा कर बैठना क्या कठिन होगा। शर

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सम्मान सिर्फ धन के सदुपयोगियों का

17 मई 2016
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 विभूतियों में इन दिनों अग्रिम स्थान धन को मिल गया है, पर वस्तुत: वह उसका स्थान नहीं है। प्रथम स्थान उदात्त भावनाओं का है। वे जिनके पास हैं, वे देव हैं। महामानवों को, ऋषि व तपस्वियों को, त्यागी-बलिदानियों को देव संज्ञा में गिना जाता है, वे दीपक की तरह जलकर सर्वत्र प्रकाश फैलाते हैं। इस संसार में जित

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प्रगतिशीलता अपनाने का उपाय

8 जून 2016
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प्रगतिशीलता अपनाने का उपाय एक ही है कि अवांछनीयताओं को निरस्त करते चला जाय और जो अभीष्ट आवश्यक है उसे अपनाने के लिए पूरे उत्साह का प्रयोग किया जाय। उत्कर्ष के उच्च शिखर पर चढ़ने के लिए इस रीति-नीति को अपनाने के अतिरिक्त और कोई मार्ग है नहीं।आत्मिक प्रगति का भवन, चार दीवारों से मिल कर बनता है। इस तख्

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आत्म-विकास की प्रक्रिया

9 जून 2016
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हम सभी रोटी, साग, चावल, दाल का आहार मिला-जुला कर करते हैं। ऐसा नहीं होता कि कुछ समय दाल ही पीते रहे-कुछ शाक खाकर रहे,फिर चावल खाया करे और बहुत दिन बाद केवल रोटी पर ही निर्भर रहे। स्कूली पढ़ाई में भाषा, गणित, भूगोल, इतिहास की पढ़ाई साथ चलती है, ऐसा नहीं होता कि एक वर्ष भाषा दूसरे वर्ष गणित तीसरे वर्ष

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सत्य एवं प्रेरणादायी

9 जून 2016
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पितामह भीष्म के जीवन का एक ही पाप था कि उन्होंने समय पर क्रोध नहीं किया।औरजटायु के जीवन का एक ही पुण्य था कि उसने समय पर क्रोध किया।परिणामस्वरुप,एक को बाणों की शैय्या मिली,औरएक को प्रभु श्रीराम की गोद!अतः क्रोध भी तब पुण्य बन जाता है जब वह धर्म और मर्यादा के लिए किया जाए, और सहनशीलता भी तब पाप बन जा

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मूर्ति पूजा ( भाग २ ) सत्यार्थ प्रकाश से संकलित

10 जून 2016
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(प्रश्न) परमेश्वर निराकार है वह ध्यान में नहीं आ सकता इसलिये अवश्य मूर्त्ति होनी चाहिये। भला जो कुछ भी नहीं करे तो मूर्त्ति के सम्मुख जा, हाथ जोड़ परमेश्वर का स्मरण करते और नाम लेते हैं, इस में क्या हानि है?(उत्तर) जब परमेश्वर निराकार, सर्वव्यापक है तब उस की मूर्त्ति ही नहीं बन सकती और जो मूर्त्ति के

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सुख कहा हैं ?

13 जून 2016
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सुख, धन के ऊपर निर्भर नहीं, वरन् सद्ज्ञान के ऊपर, आत्मनिर्माण के ऊपर निर्भर है। जिसने आत्मज्ञान से अपने दृष्टिकोण को सुसंस्कृत कर लिया है, वह चाहे साधन-संपन्न हो चाहे न हो, हर हालत में सुखी रहेगा। परिस्थितियाँ चाहे कितनी ही प्रतिकूल क्यों न हों, वह प्रतिकूलता में अनुकूलता का निर्माण कर लेगा। उत्तम ग

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साहित्यकार बहेलियों के कुत्तों की भूमिका ना निभायें

14 जून 2016
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बहेलियों के पास शिकारी कुत्ते होते हैं। खरगोश, लोमड़ी, हिरन, आदि जानवरों के पीछे उन्हें दौड़ाते हैं। कुत्ते कई मील दौडक़र, भारी परिश्रम के उपरान्त शिकार दबोचे हुए मुँह में दबाये घसीट लाते हैं। बहेलिये उससे अपनी झोली भरते हैं और कुत्तों को एक टुकड़ा देकर सन्तुष्ट कर देते हैं। यही क्रम आज विद्या, बुद्धि

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जीवन के तीन तत्व

15 जून 2016
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जीवन के मुख्य तीन तत्व हैं, जिनमें पहला है उद्योग, दूसरी है भक्ति और तीसरी है सीखना सिखाना। उद्योग की कमी के कारण ही देश में आलस्य भर गया है, आलस्य से बेकारी आई है। पढ़े लिखे लोगों ने उद्योग से मुँह मोड़ लिया है। इसलिए वे सुखी नहीं हैं। जहाँ उद्योग न होने के कारण घुन लग जाता है। उससे भारी हानि होती

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जो दिखाई देता है, वह भी सत्य नहीं

16 जून 2016
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चीन में यह अपनी तरह का अनोखा प्रयोग था। अनेक प्रतिष्ठित व्यक्तियों के साथ सेना के उच्च अधिकारी भी डा० चू-फुत सेन का यह प्रदर्शन देखने के लिये एकत्रित हुये। डा० चू-फूत-सेन चीन के उन योग्य वैज्ञानिकों में सं हैं, जिनकी प्रतिभा पर विश्वास करके सरकार ने अनेक बन्दियों पर प्रयोग करने की उन्हें खुली छुट दे

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धर्म का सच्चा स्वरूप

16 जून 2016
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बहुत से लोग तो धर्म को केवल पुस्तकों में सुरक्षित रखने की वस्तु और वेद गीता आदि धर्म ग्रन्थों को अलमारियों में बन्द रहने की चीज समझते हैं। “इनका ख्याल है कि धर्म व्यवहार और आचरण में लाने की वस्तु नहीं-असली जीवन में उसका कोई सरोकार (सम्बन्ध) नहीं”। कोई-कोई तो ऐसी अनर्गल (बे सिर पैर की) बातें कहते हुए

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आप बहुत कुछ कर सकते हैं।

17 जून 2016
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श्री हेनरी हैरिसन ब्राउन ने मनोविज्ञान के दो संकेतों का विस्तृत विश्लेषण किया है और उनका विचार है कि इन दोनों की शक्तियों को सही रूप में समझने वाला व्यक्ति ही संसार में विजयी हो सकता है। वे मनुष्य की समस्त मानसिक शक्तियों को इन दो संकेतों के पीछे पीछे आना मानते है।1-मैं कर सकता हूँ (सफलता और विजय का

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जीवन का सद्व्यय

17 जून 2016
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मनुष्य जीवन का अधिकांश भाग आहार, निद्रा, भय और मैथुन में व्यतीत हो जाता है। शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति में समय और शक्तियों का अधिकांश भाग लग जाता है। विचार करना चाहिए कि क्या इतने छोटे कार्यक्रम में लगे रहना ही मानव जीवन का लक्ष्य है? यह सब तो पशु भी करते हैं। यदि मनुष्य भ इसी मर्यादा के अंतर्गत घ

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तुम बीच में खड़े हो

18 जून 2016
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तुम परमात्मा की आधी शक्ति के मध्य में खड़े हो, तुमसे ऊँचे देव, सिद्ध और अवतार हैं तथा नीचे पशु-पक्षी, कीट-पतंग आदि हैं। ऊपर वाले केवल मात्र सुख ही भोग रहे हैं और नीचे वाले दु:ख ही भोग रहे हैं। तुम मनुष्य ही ऐसे हो, जो सुख और दु:ख दोनों एक साथ भोगते हो। यदि तुम चाहो तो नीचे पशु-पक्षी भी हो सकते हो और

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मनुष्य, अनन्त शक्ति का भाण्डागार है।

18 जून 2016
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मनुष्य अपने आप में एक परिपूर्ण इकाई है। उसमें वे समस्त शक्तियाँ और सम्भावनायें जन्मजात रूप में विद्यमान् हैं, जिनके आधार पर किसी भी दिशा में पूर्णता एवं सफलता के उच्च-शिखर पर पहुँचना सम्भव हो सकता है।समस्त दैवी शक्तियों का प्रतिनिधित्व मनुष्य की अन्तःचेतना करती है। प्रसुप्त पड़ी रहने पर वह भले ही अप

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प्रेम ही सुख-शांति का मूल है

20 जून 2016
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भगवान ने अपनी सृष्टि को सुंदर और सुव्यवस्थित बनाने के लिए जड़ और चेतन पदार्थों को एक दूसरे से संबंधित कर रखा है। निखिल विश्वब्रह्मांड के ग्रह-नक्षत्र अपने-अपने सौरमंडलों में आकर्षण शक्ति के द्वारा एक-दूसरे से संबंधित हैं। यदि ये संबंध-सूत्र टूट जाएँ, तो किसी की कुछ स्थिरता न रहे। सारे ग्रह-नक्षत्र ए

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ज्ञानयोग की एक सुलभ साधना

21 जून 2016
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दुनियाँ में लक्ष्मी, विद्या, प्रतिष्ठा, बल, पद, मैत्री, कीर्ति, भोग, ऐश्वर्य आदि को बड़ा फल माना जाता है। यह सब -ज्ञान-रूपी वृक्ष के फल हैं। ज्ञान के अभाव में इनमें से एक भी वस्तु प्राप्त नहीं हो सकती। इस लोक के सारे सुख ज्ञान के ऊपर निर्भर हैं, परलोक का सुख भी ज्ञान द्वारा ही सम्पादित होता हैं। विव

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सहृदयता में जीवन की सार्थकता

22 जून 2016
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रूखापन जीवन की बड़ी भारी कुरूपता है रूखी रोटी में क्या मजा है, रूखे बाल कैसे खराब लगते है, रूखी मशीन में बड़ी आवाज होती है और पुर्जे जल्दी ही टूट जाते है रूखे रेगिस्तान में जहाँ रेत का सूखा हुआ समुद्र पड़ा है कौन रहना पसंद करेगा। वैसे तो प्राणिमात्र ही विशेष रूप से ऐसे तत्वों से निर्मित है जिसके लिए

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मृत्यु का भय दूर कर दीजिए

23 जून 2016
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मृत्यु से मनुष्य बहुत डरता है। इस डर के कारण की खोज करने पर प्रतीत होता है कि मनुष्य मृत्यु से नहीं वरन् अपने पापों के दुष्परिणामों से डरता है। देखा जाता है कि यदि मनुष्य को कहीं कष्ट या विपत्ति के स्थान  में जाना पड़े, तो वह जाते समय बहुत डरता और व्याकुल होता है। मृत्यु से मनुष्य इसलिए घबराता है कि

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हमारे युवक

24 जून 2016
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दुनिया के तमाम नवयुवकों पर दृष्टिपात करने से जान पड़ता है कि किसी देश का नौजवान हमारे देश के युवकों की भाँति उदासीन नहीं है। उसके जीवन का कार्यक्षेत्र अपने देश के बाहर भी है। वह निरन्तर उन्नति के मार्ग पर बढ़ने के लिये प्रयत्न करता रहता है और अपनी समस्याओं को सुलझाने की स्वयं जिम्मेदारी समझता है। वह

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जिंदगी में आनंद का निर्माण करो

25 जून 2016
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उठो! अपने चारों ओर नवजीवन के बीज बोओ, पवित्रता के वातावरण का निर्माण करो। यदि तुम दूसरों को धोखा दोगे, झूठ बोलोगे, षड्यंत्र रचोगे, ठगोगे तो इससे अपने आप को ही पतित बनाओगे। अपने को ही छोटा, तुच्छ और कमीना साबित करोगे। किसी दूसरे का अपनी सारी शक्तियाँ लगाकर भी तुम अधिक अनिष्ट नहीं कर सकते, परंतु इन हर

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मन जीता तो जग जीता

27 जून 2016
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मन बड़ा बलवान् शत्रु है। इससे युद्ध करना भी अत्यंत दुष्कर कृत्य है। इससे युद्ध में एक विचित्रता है। यदि युद्ध करने वाला दृढ़ता से युद्ध में संलग्न रहे, निज इच्छाशक्ति को मन के व्यापारों पर लगाए रहे, तो युद्ध में संलग्न सैनिक की शक्ति अधिकाधिक बढ़ती है और एक दिन वह इस पर पूर्ण विजय प्राप्त कर लेता है

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मन जीता तो जग जीता

19 जुलाई 2016
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मन बड़ा बलवान् शत्रु है। इससे युद्ध करना भी अत्यंत दुष्कर कृत्य है। इससे युद्ध में एक विचित्रता है। यदि युद्ध करने वाला दृढ़ता से युद्ध में संलग्न रहे, निज इच्छाशक्ति को मन के व्यापारों पर लगाए रहे, तो युद्ध में संलग्न सैनिक की शक्ति अधिकाधिक बढ़ती है और एक दिन वह इस पर पूर्ण विजय प्राप्त कर लेता है

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बादलों की तरह बरसते रहो

16 सितम्बर 2016
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🔴 वे लोग अगले जन्म में दु:ख भोगेंगे जो किसी को कुछ नहीं देते और पैसे को जोड़कर जमा करते जाते हैं। जिसने अपने घर में दौलत के ढेर जोड़ रख हैं मगर उसका सदुपयोग नहीं करता उसे एक प्रकार का चौकीदार ही कहना चाहिए। उसका जीवन पृथ्वी के लिए भार रूप है जो वेश की परवाह किए बिना निरंतर धन के लिए ही हाय-हाय करते

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👉 परिशोधन प्रगति का प्रथम चरण

30 नवम्बर 2017
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🔷 पत्थर का कोयला एक विशेष स्तर पर पहुँचकर हीरे की उपमा पा लेता है। यों उसका अनगढ़ प्रयोग करने वाले अँगीठी में जलाकर भी कमरे में रख लेते हैं और भोर होने से पूर्व ही विषैली गैस के कारण मर चुके होते हैैं। जबकि हीरा उपलब्ध करने वाले सुसम्पन्न भाग्यवान बनते हैं। लोहा, रांगा, सीसा, अभ्रक जैसे सामान्य खनिज

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