प्रगति के पथ पर बढ़ चलने की परिस्थितियाँ उपलब्ध हों उसके लिए दूसरों से याचना की आवश्यकता नहीं। देवताओं से भी कुछ मांगना व्यर्थ है क्योंकि वे भी सद्पात्र को ही सहायता करने के अपने नियम में बंधे हुए हैं।
मर्यादाओं का उल्लंघन करना जिस तरह मनुष्य के लिये उचित नहीं है उसी तरह देवता भी अपनी मर्यादाएं बनाए हुए हैं कि जिसने व्यक्तित्व के परिष्कृत करने की कठोर काम करने की तपश्चर्या की हो केवल उसी पर अनुग्रह किये जाय। ईश्वरीय या दैवी अनुकम्पाएँ भी गरम दूध की तरह हैं उन्हें लेने के लिये पहले आवश्यक पात्रता का सम्पादन करना ही चाहिए।
यह प्राथमिक योग्यता जहाँ उपलब्ध हुई कि ईश्वरीय प्रेरणा एवं व्यवस्था के अनुसार दूसरों की सहायता भी मिलनी अनिवार्य है। संसार का इतिहास इसी तथ्य का साक्षी रहा हैं।