मन बड़ा बलवान् शत्रु है। इससे युद्ध करना भी अत्यंत दुष्कर कृत्य है। इससे युद्ध में एक विचित्रता है। यदि युद्ध करने वाला दृढ़ता से युद्ध में संलग्न रहे, निज इच्छाशक्ति को मन के व्यापारों पर लगाए रहे, तो युद्ध में संलग्न सैनिक की शक्ति अधिकाधिक बढ़ती है और एक दिन वह इस पर पूर्ण विजय प्राप्त कर लेता है।
मन को दृढ़ निश्चय पर स्थिर रखने से मुमुक्षु की इच्छा-शक्ति प्रबल होती है। मन का स्वभाव मनुष्य के अनुकूल बन जाने का है। उसे कार्य दीजिए। वह चुपचाप नहीं बैठना चाहता। यदि तुम उसे फूल-फूल पर विचरण करने वाली तितली बना दोगे, तो यह तुम्हें न जाने कहाँ-कहाँ की खाक छनवाएगा। यदि तुम इसे उजड्ड रखोगे, तो यह रात-दिन भटकता ही रहेगा, पर यदि तुम इसे चिंतन योग्य पदार्थों में स्थिर रखने का प्रयत्न करोगे, तो यह तुम्हारा सबसे बड़ा मित्र बन जाएगा।
जब-जब तुम्हारे अंत:करण में वासना का प्रबल वेग उत्पन्न हो, निश्चयात्मक बुद्धि को जाग्रत करो। मन में थोड़ी देर के निमित्त पृथक् होकर इसके व्यापारों पर तीव्र दृष्टि रखो। बस, विचार-शृंखला टूट जाएगी और तुम इसके साथ चलायमान न होगे। मन के व्यापार के साथ निजि आत्मा की समस्वरता न होने दो। इसी अभ्यास द्वारा यह आज्ञा देने वाला न रह कर सीधा-आज्ञाकारी अनुचर बन जाएगा।