सदगुणों का अर्थ सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, ईश्वर- भक्ति जैसे उच्च आदर्शों तक सीमित नहीं रखा जाना चाहिए। उनकी परिधि अन्तरंग और बहिरंग जीवन के प्रत्येक क्षेत्र तक फैली हुई है ।। समग्र व्यक्तित्व को परिष्कृत, सज्जनोचित एवं प्रामाणिक बनाने वाली सभी आदतों एवं रुझानों को सद्गुणों की सीमा में सम्मिलित किया जाएगा ।। कोई व्यक्ति झूठ नहीं बोलता, चोरी नहीं करता, व्यभिचार से बचा है, यह बचाव उचित है और अनुकरणीय भी, पर इतने को ही आत्म- निर्माण मान बैठना अपर्याप्त होगा ।। कीट- पतंग और वृक्ष- वनस्पति भी तो झूठ चोरी से बचे रहते हैं ।। यह स्थूल सदाचार का आंशिक पालन मात्र हुआ ।। इतने भर से आत्मविकास का लक्ष्य पूरा नहीं हो सकता ।। मन में कुहराम मचाने वाली घुटन का भी अन्त होना चाहिए ।। जिन उद्वेगों और विकारों ने मन:क्षेत्रको अस्त व्यस्त करके रख दिया है, उनका भी निराकरण होना चाहिए ।। गुण, कर्म, स्वभाव में उत्कृष्टता का अभाव रहने के कारण जो सर्वतोमुखी दरिद्रता छाई हुई है, उसका भी अन्त होना चाहिए ।।