बहेलियों के पास शिकारी कुत्ते होते हैं। खरगोश, लोमड़ी, हिरन, आदि जानवरों के पीछे उन्हें दौड़ाते हैं। कुत्ते कई मील दौडक़र, भारी परिश्रम के उपरान्त शिकार दबोचे हुए मुँह में दबाये घसीट लाते हैं। बहेलिये उससे अपनी झोली भरते हैं और कुत्तों को एक टुकड़ा देकर सन्तुष्ट कर देते हैं। यही क्रम आज विद्या, बुद्धि के क्षेत्र में चल रहा है। पुस्तक-प्रकाशक बहेलिए -तथाकथित साहित्यकारों से चटपटा लिखाते रहते हैं। गन्दे, अश्लील, कामुक, पशु प्रवृत्तियाँ भडक़ाने वाले, चोरी, डकैती, ठगी की कला सिखाने वाले उपन्यास यदि इकट्ठे किए जाएँ, तो वे एवरेस्ट की चोटी जितने ऊँचे हो जाएँगे। अबोध जनमानस उन्हीं विष-मिश्रित गोलियों को गले निगलता रहता है। चूहों को मारने की दवा आटे में मिलाकर गोलियों बनाकर बिखेर दी जाती हैं । उन्हें खाते ही चूहा तड़प-तड़प कर मर जाता है। यह साहित्य ठीक इसी प्रकार का है । इसे पढऩे के बाद कोई अपरिपक्व बुद्धि पाठक वैसा ही अनुकरण करने के लिए विवश होता है।
आज अनेक साहित्यकार बहेलियों के कुत्तों की भूमिका प्रस्तुत कर रहे हैं। अनेक प्रकाशक और विक्रेता मालामाल हो रहे हैं। कुछ टुकड़े खाकर यह साहित्यकार पाठकों का माँस इन आततायियों के पेट में पहुँचाने में अपनी विद्या, बुद्धि, कला-कौशल का परिचय दे रहे हैं। विद्या माता को व्यभिचारिणी वेश्या के रूप में जिस तरह प्रस्तुत किया जा रहा है, उसे देखकर यही कहना पड़ता हैं – " हे भगवान! इस संसार से विद्या का अस्तित्व मिटा दो, इससे तो हमारी निरक्षरता ही अच्छी है।"