समाज का निर्माण परिवार से होता है और परिवार का विवाह से । हर नया विवाह एक नये समाज की रचना करता है। जिस प्रकार छोटी-छोटी कड़ियों को मिलाकर एक जंजीर बनती है, उसी तरह इन छोटे-छोटे परिवारों का समूह ही समाज कहलाता है। यदि सभ्य, सुविकसित, सुसंस्कृत समाज का निर्माण करना हो तो उसके लिए परिवारों के निर्माण पर ध्यान देना होगा। इस संदर्भ में यह आवश्यक है, कि विवाह का शुभारम्भ श्रीगणेश ऐसे वातावरण में हो, जो अन्त तक मंगलमय परिणाम ही उत्पन्न करता है। कहते है कि अच्छी शुरुआत में सफलता की आधी सम्भावना सन्निहित रहती है। जिसका आरम्भ ही दुर्बुद्धि एवं दुर्भावना के साथ होगा उसका विकास भी असन्तोष और संघर्षों के बीच होगा और यह क्रम अन्ततः उसे असफल ही बना देगा।
आज के अधिकाँश विवाह आगे चल कर असफल ही सिद्ध होते हैं। ऐसे कम ही जोड़े निकलेंगे जो एक मन दो शरीर बन कर रहते हों। परस्पर द्वेष दुर्भाव भरे हुए वे किसी तरह अपनी गाड़ी तो घसीटते रहते हैं, पर उसमें भीतर ही भीतर असन्तोष एवं अविश्वास की आग सुलगती रहती है। ऐसे असफल गृहस्थों की शृंखला सभ्य समाज की, सुविकसित एवं सुसंस्कृत समाज की रचना में भला क्या सहायक बन सकती है? आज यही विषम परिस्थिति चारों ओर फैली हुई है ।
समाज निर्माण की आवश्यकता सर्वत्र अनुभव की जा रही है। हर कोई जानता है कि व्यक्ति और समाज का उज्ज्वल भविष्य इसी बात पर निर्भर है कि समाज में श्रेष्ठ परम्पराएं प्रचलित हों। कोई मनस्वी व्यक्ति अपनी प्रतिभा से समाज का वातावरण बदलते हुये भी सफल होते हैं, पर अधिकतर होता यह है कि समाज की जैसी भी स्थिति एवं परम्परा होती है, उसी के अनुरूप व्यक्तियों का बनना और ढलना जारी रहता है। तदनुसार ही उस देश, समाज या जाति का उत्थान एवं पतन होता रहता है। यदि हमें नये समाज का निर्माण वस्तुतः करना हो, तो उसके मूल विवाद पर अत्यधिक ध्यान देना होगा। उसमें जो विषमता विशृंखलता एवं विकृति उत्पन्न हो गई है, उसे सुधारना होगा। इसके बिना समाज निर्माण, मानव प्रगति एवं विश्व शान्ति के सपने साकार न हो सकेंगे।