रूखापन जीवन की बड़ी भारी कुरूपता है रूखी रोटी में क्या मजा है, रूखे बाल कैसे खराब लगते है, रूखी मशीन में बड़ी आवाज होती है और पुर्जे जल्दी ही टूट जाते है रूखे रेगिस्तान में जहाँ रेत का सूखा हुआ समुद्र पड़ा है कौन रहना पसंद करेगा। वैसे तो प्राणिमात्र ही विशेष रूप से ऐसे तत्वों से निर्मित है जिसके लिए सरसता की, स्निग्धता की, आवश्यकता है। मनुष्य का अन्तःकरण रसिक है, कवि है भावुक है सौंदर्य उपासक है, कला प्रिय है प्रेम मय है। हृदय का यही गुण है, सहृदयता का अर्थ कोमलता, मधुरता,आर्द्रता है जिसमें यह गुण नहीं उसे हृदय हीन कहा जाता है। हृदय हीन का तात्पर्य है जड़ पशुओं से भी नीचा। नीतिकार का कथन है कि “संगीत साहित्य कला विहीन साक्षात पशुः पुच्छविषाण हीनः” इस उक्ति में कला विहीन-नीरस मनुष्य को पशुओं से भी नीचा ठहराया गया है क्योंकि पशुओं में तो सींग पूछ की दो विशेषताएं तब भी है उस मनुष्य में तो इसका भी अभाव है।
जिसने अपनी विचारधारा और भावनाओं को शुष्क, नीरस और कठोर बना रखा है, वह मानव-जीवन के वास्तविक रस का आस्वादन करने से वंचित ही रहेगा। उस बेचारे ने व्यर्थ ही जीवन धारण किया और वृथा ही मनुष्य शरीर को कलंकित किया। आनंद का स्रोत सरसता की अनुभूतियों में है। परमात्मा को आनंदमय कहा जाता है। क्यों? इसलिए कि वह सरस है, प्रेममय है। श्रुति कहती है-’रसो वै स:’ अर्थात् वह परमात्मा रसमय है। भक्ति द्वारा, प्रेम द्वारा, परमात्मा को प्राप्त करना संभव बताया गया है। निस्संदेह जो वस्तु जैसी हो, उसको उसी प्रकार प्राप्त किया जा सकता है। परमात्मा दीनबंधु, करुणासिंधु, रसिक-विहारी, प्रेम का अवतार, दयानिधान, भक्तवत्सल है। उसे प्राप्त करने के लिए अपने अंदर वैसी ही लचीली, कोमल, स्निग्ध, सरस भावनाएँ पैदा करनी पड़ती हैं। भगवान भक्त के वश में है। जिनका हृदय कोमल है, भावुक है, परमात्मा उनसे दूर नहीं है।
आप अपने हृदय को कोमल, द्रवित, पसीजने वाला, दयालु, प्रेमी और सरस बनाइए। संसार के पदार्थों में ही सरसता का, सौंदर्य का, अपार भंडार भरा हुआ है। उसे ढॅूढ़ना और प्राप्त करना सीखिए। अपनी भावनाओं को जब आप कोमल बना लेते हैं, तो आप के अपने चारों ओर अमृत झरता हुआ अनुभव होने लगता है। जीवन की सार्थकता कोमलवृत्तियों की मधुरता का रसास्वादन करने में है।