मानवीय शक्तियों का कोई अन्त नहीं, वे इतनी ही अनन्त हैं जितना यह आकाश। ईश्वरीय चेतना का प्रतीक प्रतिनिधि मानव प्राणी उन सब सामर्थ्यों को अपने अन्दर धारण किये हुए है, जो उनके पिता परमेश्वर में विद्यमान हैं।
यदि आत्मा और परमात्मा का संयोग सम्भव हो सके तो साधारण-सा दीन-दीख पड़ने वाला व्यक्ति नर से नारायण बन सकता है और उसकी महानता परमात्मा जितनी ही विशाल हो सकती है।
आत्मा और परमात्मा में अन्तर उत्पन्न करने वाली माया और कुछ नहीं, केवल अज्ञान का इतना सा कलेवर मात्र है।
भौतिक आकर्षणों, अस्थिर संपदाओं और उपहासास्पद तृष्णा वासनाओं में उलझे रहने से मनुष्य के लिए यह सोच समझ सकना कठिन हो जाता है कि वह जिस अलभ्य अवसर को - मनुष्य शरीर को - प्राप्त कर सकता है वह एक विशेष उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ही होना चाहिए। शरीर का ही नहीं आत्मा का भी आनन्द ध्यान में रखना चाहिए।
यदि हम अपने स्वरूप और कर्त्तव्य को समझ सकें और तदनुकूल करने के लिए तत्पर होसकें तो इस क्षुद्रता और अशान्ति से सहज ही छुटकारा पाया जा सकता है जिसके कारण हमें निरंतर क्षुब्ध रहना पड़ता है।
अज्ञान की माया से छुटकारा पाना ही मनुष्य का परम पुरुषार्थ है।
ऐसे पुरुषार्थी को ईश्वरीय महानता उपलब्ध हो सकती है और वह पुरुष से पुरुषोत्तम बन सकता है।